कर्नाटक की प्रखर वामपंथी पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या को लेफ्ट और राइट के बीच की लड़ाई बना दिया गया है. आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर लगातार जारी है. और, इसी बीच बिहार के अरवल जिले में पंकज मिश्र नाम के पत्रकार की गोली मारकर हत्या कर दी गई है. हत्या या किसी भी प्रकार की हिंसा हमेशा निंदनीय है! हिंसक घटनायें तो किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं हैं.
हत्या या किसी भी प्रकार की हिंसा किस पंथ, सम्प्रदाय या विचारधारा से जुड़ी थीं, यह मसला तो गौण हैं. हालांकि, यह प्रश्न तो उठ ही सकता है कि क्या किसी पंथ से जुड़े इंसान को पत्रकार माना जाना चाहिए? क्योंकि, पत्रकारिता तो आपसे सौ फीसद निष्पक्षता की अपेक्षा करती है. किसी पत्रकार को अपनी व्यक्तिगत निष्ठा, विषय या विचार विशेष के प्रति कभी भी आसक्ति नहीं रखनी चाहिए. न ही उसे किसी भी विचारधारा के प्रति दुराग्रही होना चाहिए. निश्चित रूप से एक ज़मीनी पत्रकार वही होता है जो राजा से रंक तक को एक ही जैसा सम्मान देता है. नहीं तो वह किसी व्यक्ति या विचारधारा का प्रचारक हो जाता है. तब तो उसे पत्रकार क़तई नहीं कहा जा सकता.
क्या किसी पंथ या विचार से जुड़ा इंसान तटस्थ रह सकता है? राजधानी में गौरी लंकेश की हत्या पर शोक जताने के लिए हुई सभा में जिस तरह से वामपंथी नेता सीताराम येचुरी से लेकर डी. राजा तक पहुंचे उसने सारे मामले की गंभीरता को ही खत्म कर दिया है. गौरी की हत्या कांग्रेस शासित कर्नाटक राज्य में हुई. उनकी हत्या से सारा देश सन्न है. पर उस हत्या के लिए राज्य सरकार को दोष न देकर केन्द्र सरकार को दोष देने का क्या मतलब है?
प्रेस क्लब में हुई सभा में कुछ वक्ता कह रहे थे कि गौरी लंकेश हिन्दुत्व विरोधी थीं. तो क्या अब हिन्दु बहुल भारत में हिन्दुओं की बात करना अपराध हो...
कर्नाटक की प्रखर वामपंथी पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या को लेफ्ट और राइट के बीच की लड़ाई बना दिया गया है. आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर लगातार जारी है. और, इसी बीच बिहार के अरवल जिले में पंकज मिश्र नाम के पत्रकार की गोली मारकर हत्या कर दी गई है. हत्या या किसी भी प्रकार की हिंसा हमेशा निंदनीय है! हिंसक घटनायें तो किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं हैं.
हत्या या किसी भी प्रकार की हिंसा किस पंथ, सम्प्रदाय या विचारधारा से जुड़ी थीं, यह मसला तो गौण हैं. हालांकि, यह प्रश्न तो उठ ही सकता है कि क्या किसी पंथ से जुड़े इंसान को पत्रकार माना जाना चाहिए? क्योंकि, पत्रकारिता तो आपसे सौ फीसद निष्पक्षता की अपेक्षा करती है. किसी पत्रकार को अपनी व्यक्तिगत निष्ठा, विषय या विचार विशेष के प्रति कभी भी आसक्ति नहीं रखनी चाहिए. न ही उसे किसी भी विचारधारा के प्रति दुराग्रही होना चाहिए. निश्चित रूप से एक ज़मीनी पत्रकार वही होता है जो राजा से रंक तक को एक ही जैसा सम्मान देता है. नहीं तो वह किसी व्यक्ति या विचारधारा का प्रचारक हो जाता है. तब तो उसे पत्रकार क़तई नहीं कहा जा सकता.
क्या किसी पंथ या विचार से जुड़ा इंसान तटस्थ रह सकता है? राजधानी में गौरी लंकेश की हत्या पर शोक जताने के लिए हुई सभा में जिस तरह से वामपंथी नेता सीताराम येचुरी से लेकर डी. राजा तक पहुंचे उसने सारे मामले की गंभीरता को ही खत्म कर दिया है. गौरी की हत्या कांग्रेस शासित कर्नाटक राज्य में हुई. उनकी हत्या से सारा देश सन्न है. पर उस हत्या के लिए राज्य सरकार को दोष न देकर केन्द्र सरकार को दोष देने का क्या मतलब है?
प्रेस क्लब में हुई सभा में कुछ वक्ता कह रहे थे कि गौरी लंकेश हिन्दुत्व विरोधी थीं. तो क्या अब हिन्दु बहुल भारत में हिन्दुओं की बात करना अपराध हो गया है? अगर भारत में हिन्दुओं के मसले नहीं उठेंगे तो क्या पाकिस्तान में उठेंगे? गौरी लंकेश के मामले में भी कुछ कथित सेक्युलरवादी, दक्षिणपंथी विचारधारा का समर्थन करने वालों को भक्त कहने से पीछे नहीं हट रहे. तो क्या पत्रकार होने का मतलब केवल वामपंथी होना या दक्षिणपंथी विचारधारा का विरोधी होना है? गौरी लंकेश की हत्या पर उतना ही शोक उचित है जितना एक सामान्य हत्या पर या राजद के नेता लालू के प्रिय शहाबुद्दीन के गुर्गों द्वारा गोलियों से भूने गए एक राष्ट्रीय दैनिक के पत्रकार राजेश रंजन की हत्या पर होता है. पर ये कहना कि यह लोकतंत्र की हत्या है. अभिव्यक्ति का गला घोटना है. कुतर्क भी है और गैर-वाज़िब भी.
संभले सोशल मीडिया
हालांकि जिस तरह सोशल मीडिया पर गौरी लंकेश को ले कर अभद्र और असंसदीय शब्द लिखे जा रहे हैं, वह अपमानजनक और शर्मनाक है. हमारे देश में दिवंगत शख्स के लिए ओछे शब्दों का प्रयोग निषेध है. फिर हम कौन सा समाज और कौन सी संस्कृति रच रहे हैं? यह तो असभ्य और बर्बर समाज में भी नहीं होता होगा. महात्मा गांधी की हत्या हो. दीनदयाल उपाध्याय की हत्या हो. या किसी भी आम आदमी की भी हत्या हो जाये. वह आख़िरकार हत्या ही होती है. कोई नक्सली हत्या करे. आतंकवादी हत्या करे. या कोई दंगाई हत्या करे. किसी भी तर्क से किसी भी हत्या को सही ठहराना अमानवीयता है.
गौरी लंकेश की हत्या का एक और भी आयाम है. इस हत्या ने साबित कर दिया है कि देश की आईटी राजधानी कर्नाटक बर्बादी की तरफ जा रही है. बीते कुछ समय के दौरान कर्नाटक की नकारा कांग्रेस सरकार की मिली-भगत से राज्य में जो कुछ हो रहा है, उसे देश को गंभीरता से लेना होगा. मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली कर्नाटक सरकार खुद देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त है. मुख्यमंत्री स्वयं राज्य के लिए पृथक झंडे की मांग तक कर रहे हैं. यानी उन्हें तिरंगे से इतर भी कोई झंडा चाहिए.
यही नहीं, कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया कह रहे हैं कि क्या देश के संविधान में ऐसा कोई नियम है जो राज्य को अपना अलग झंडा रखने से रोकता हो? क्या उन्हें इस संबंध में जानकारी नहीं है कि भारत का दूसरा झंडा नहीं हो सकता? कल तो वह यह भी मांग करने लगेंगे कि हमें अपना राज्यगान भी दे दो. और जरा देखिए कि दिल्ली में बैठे कांग्रेसी नेता इन सारे घटनाक्रमों से बेपरवाह बैठे हुए हैं. वे अपनी राज्य सरकार के इतने निंदनीय कदम की भर्त्सना तक करना भी जरूरी नहीं समझ रहे. क्यों कांग्रेस नेतृत्व अपने कर्नाटक के नेताओं को नहीं कसता? क्या माना जाए कि कर्नाटक सरकार को केन्द्रीय नेतृत्व की मूक सहमति मिली हुई है?
हिन्दी का विरोध
कर्नाटक सरकार हिन्दी का भी बेशर्मी से विरोध कर रही है. कुछ समय पहले बैंगलुरु मेट्रो रेल के साइन-बोर्ड में हिन्दी इस्तेमाल होने का कुछ कन्नड़ समर्थक कड़ा विरोध कर रहे थे. ये पहले कभी नहीं हुआ. ये सरकार से तीन भाषाओं के बदले दो भाषाओं की नीति अपनाने का आग्रह भी कर रहे थे. हिन्दी तो प्रेम, मैत्री और सौहार्द की भाषा है. यह तो सारे देश को ही नहीं. अपितु पूरे विश्व में बसे भारतवासियों को जोड़ती भी है. अब अचानक से उसका कर्नाटक में ही क्यों विरोध होने लगा है, ये तो समझ से परे है.
कर्नाटक में पिछले कई दशकों से हिन्दी प्रचार-प्रसार में कन्नड़ भाषी ही लगे हुए हैं. हिन्दी विरोधियों का अब तो कांग्रेस मुख्यमंत्री भी साथ दे रहे हैं. उन्हें पराई अंग्रेजी अपनी लगती है, पर उन्हें अपनी ही हिन्दी से तकलीफ होने लगी है. पिछले दिनों बेंगलुरु मेट्रो के दो स्टेशनों पर हिंदी में लिखे गए नामों को टेप से ढक देने का मामला सामने आया था. यह घटना चिकपेटे और मैजेस्टिक स्टेशन की थी. यानी साफ है कि कर्नाटक को आग के आगे धकेला जा रहा है.
कौन बचाए कर्नाटक को?
कर्नाटक को बचाने की जरूरत है. लेकिन, हो यह रहा है कि वहां की कर्नाटक सरकार को कोई कठघरे में खड़ा नहीं कर रहा है. गौरी की हत्या के बाद देश के सोशल मीडिया में कुछ उसी तरह का माहौल बनाया जा रहा है, जैसा तब बना था जब राजधानी से सटे नोएडा के बिसहाड़ा गांव में एक शख्स को अपने घर में गौ-मांस रखने के आरोप में उग्र भीड़ ने मार डाला था. उस घटना के बाद तमाम तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता मृतक मोहम्मद अखलाक के घर पहुंचने लगे थे. ठीक उसी तरह जैसे बीच जंगल में मधुमक्खी का बड़ा छत्ता तूफान में गिर जाये तो भालू-बन्दर उस पर टूट पड़ते हैं. वे उसके घर में जाकर संवेदना कम और सियासत ज्यादा करते नजर आ रहे थे. तब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. इसके बावजूद सेक्युलरवादी केन्द्र की मोदी सरकार को दोषी ठहरा रहे थे. अखलाक के घर कांग्रेस के वाइस प्रेसिडेंट राहुल गांधी से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और असदद्दीन ओवैसी से लेकर माकपा की वृंदा करात तक ने हाजिरी दे दी थी.
कर्नाटक में हालात बिगड़ने का पहला साफ संकेत तब मिला था जब बैंगलुरू शहर में कावेरी जल विवाद पर तमिलों के साथ मारपीट हुई थी. उसके बाद वहां पर लगातार अराजकता और अस्थिरता का वातावरण बना हुआ है.
पर हैरानी इस बात की है कि कोई भी कर्नाटक सरकार को वहां के बिगड़ते हालातों के लिए दोष नहीं दे रहा. गौरी लंकेश का कत्ल चीख-चीखकर देश को बता रहा है कि कर्नाटक को आग में झुलसने से बचा लो.
ये भी पढ़ें-
इस विरासत का बोझ हमें उठाना ही पड़ेगा!
ट्विटर पर नेताओं के कायदे वो नहीं जो आप समझते हैं
अब तक एक कातिल भी नहीं पकड़ा गया, जिंदा जला दिए जाते हैं पत्रकार !
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.