आसा 'राम' बापू - बलात्कार का आरोपी, 'राम' पाल – आश्रम में गर्भपात सेंटर चलाने का आरोप, बाबा 'राम'रहीम – बलात्कारी
'मुंह में राम बगल में छुरी' विकास के क्रम में विकसित होकर अब ये मुहावरा हो गया है 'नाम में राम, दिल से बलात्कारी' और ये इस बात का प्रमाण है कि सरकारों ने, समाज ने और परिवार ने हमारे राम को, हमारी शिक्षा को, कितना गिरा कर रख दिया है.
कथा ही सही लेकिन कल्पना कीजिए एक आदमी इस धरती पर ऐसा आया जिसने राम के नाम को मर्यादा पुरूषोत्तम के तौर स्थापित किया. राम नाम को मर्यादा पुरूषोत्तम के तौर पर स्थापित करने लिए उस राम ने अपने पिता की एक बात का मान रखने के लिए महल को छोड़ दिया. केवट, निषाद और शबरी के साथ वनवासी की जिंदगी जीकर ये बताया कि मानव और मानव में ऊंच-नीच के नाम पर, जाति के नाम पर कोई भेद हो ही नहीं सकता. अरे उस राम ने जटायु गीद पक्षी का मृत्यु संस्कार करके ये बताया कि जीवन पशुता और मनुष्यता में भी कोई भेद नहीं करता. उसने समाज के ताने सहे, लेकिन समाज को नहीं छोड़ा, समाज को सही राह दिखाने के लिए पत्नी के विछोह को झेला.
हर कदम पर सेवा, हर कदम पर त्याग, हर कदम पर मानवता को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए सतयुग में जन्मे राम नाम के एक व्यक्ति ने, राम के नाम को प्रमाणित करके दिखाया और ये प्रमाण इतना जीवंत हो गया कि युग बीत गए लेकिन राम की महिमा उनकी दी हुई शिक्षा प्रासंगिक बनी रही, क्योंकि ज्ञानियों ने, गुणियों ने राम को जाना, जब जाना, तब माना, और फिर जब आपने-अपने माने हुए को जान लिया तो फिर यहां पर पूरा हुआ उनके शिक्षा का क्रम, पूरी हुई उनकी साधना और वो साधु शब्द से सुशोभित हुए.
श्री राम
तुलसी ने जब राम को जाना तब लिखा कि 'सियाराम मय सब जग जानी करहु प्रमाण जोरी जुग पानी' संसार का कण-कण राम नाम में संपृक्त है और जब इस राम को जान लिया तो काम, क्रोध, मद और लोभ जैसे नर्क के पंथ पर कदम पड़ ही नहीं सकते. क्योंकि राम को तो पसंद है 'निर्मल मन'. मन में राम तो जीवन एक मंदिर. तो तुलसी के राम, हनुमान के राम, शबरी के राम, लक्ष्मण और भरत के राम, सीता के राम एक व्यक्ति का नहीं एक शिक्षा का नाम है, एक संस्कार का नाम है जिसे इन लोगों ने अपने जीवन में जिया और इन लोगों ने उस शिक्षा की भक्ति की और राम भक्त बने. ये अंधे भक्त नहीं, ये लोग व्यक्ति के भक्त नहीं थे, किसी भगवान के भी भक्त नहीं थे. ये सबके सब उस विचार के भक्त थे जिसे राम ने शुरू किया और लोगों ने इस रामनामी शिक्षा को, परंपरा को इतना विकसित किया कि राम के भक्त तुलसीदास को रामचरितमानस में लिखना पड़ गया कि राम से भी बड़ा है राम का नाम. यानी कि उस विचार का नाम, उस शिक्षा का नाम, उस संस्कार और परंपरा का नाम. शिक्षा की सबसे सटीक परिभाषा का नाम राम हो गया.
अब अगर इस देश में बलात्कार के आरोपी आसाराम है और उनके करोड़ों भक्त हैं. रामपाल के नाम पर लाखों लोग जान देने के लिए तैयार हैं और बाबा रामरहीम के व्याभिचार पर पर्दा डालने के लिए लोग शहर जलाने पर आमादा हैं तो समझ जाइए कि सरकारों ने, समाज और परिवार ने राम की शिक्षा को कहां से कहां पहुंचा दिया है. साफ है लोगों ने राम के नाम को पकड़ लिया और उनकी शिक्षा को छोड़ दिया. और जब शिक्षा छूटती है, तो विचार छूटता है, संस्कार छूटता है, फिर क्या परिवार, क्या समाज और क्या राष्ट्र. तब तो व्यक्ति रामनामी दुशाला ओढ़कर सिर्फ लूटता है, ठगता है और व्यभिचार करता है.
वर्तमान में आसाराम, रामपाल और बाबा रामरहीम इस बात का प्रमाण हैं कि हमारी शिक्षा और हमारा संस्कार क्या है. बाजारवाद के दौर में सब एक दूसरे को ठग रहे हैं क्योंकि हम सब के भीतर छोटा या बड़ा आसाराम सांस ले रहा है, हम सब एक दूसरे को लूट रहे हैं क्योंकि कोई रामपाल हमारे भीतर भी पल रहा है और हम सब एक दूसरे का शोषण कर रहे हैं क्योंकि कोई हमारे भीतर एक बाबा राम रहीम फल-फूल रहा है जो हमारे व्यभिचार को पोषण दे रहा है.
आज तमाम मीडिया में बाबाओं के बलात्कार के किस्से, उनके अपराधों के किस्से, उनकी विलासिता के किस्से सुर्खियों में हैं और सब पानी पी-पीकर उन्हें और उनके भक्तों को कोस रहे हैं. जबकि सच ये है कि बाबाओं की आलीशान दुकानें हमारे अपने चरित्र का प्रमाण पत्र है. ये लोग हमारे पैसों पर मौज कर रहे हैं. हमारे परिवार, समाज और राष्ट्र के लोग ही इनके भक्त हैं और हमारे चुने हुए नेता इनका इस्तेमाल करते हैं और हमारा शासन-प्रशासन इनका बंधक है. वो तो किसी एक की व्यथा और पीड़ा इतनी बड़ी गई, हालात ऐसे बन गये कि बाबा की दुकान बंद हो गई वर्ना इन बाबाओं की आड़ में हर कोई अपने-अपने तरीके से अपना-अपना उल्लू सीधा कर ही रहा था. तो ये वक्त बाबाओं को कोसने का नहीं खुद को जानकर खुद से घृणा करने का है.
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