उज्जैन में सरकारी टेंडर के तहत इस्कॉन मंदिर 2010 से शहर के स्कूलों को मिड डे मील सप्लाई करता आ रहा है. इन स्कूलों में शहर के कई प्राइमरी स्कूल और मदरसे भी शामिल हैं. लेकिन अब करीब 30 से ज्यादा मदरसों ने इस्कॉन मंदिर से मिड डे मील का खाना लेने से मना कर दिया है.
2010 से इस्कॉन शहर के प्राइमरी स्कूल और मदरसों में मिड डे मील दे रहा है |
असल में 2010 में जब खाना देने का काम इस्कॉन मंदिर को दिया गया, तब भी मदरसों ने इसका विरोध किया था, लेकिन तब सरकारी काम में इस तरह के विरोध को ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई थी और 5 सालों तक खाना इस्कॉन ही देता रहा. लेकिन जुलाई 2016 में ये टेंडर खत्म होने पर मदरसा प्रशासन ने फिर अपने विरोध का झंडा तान लिया.
क्या है मदरसों की आपत्ति-
'मदरसा प्रशासन का कहना है कि वह खाना न सिर्फ हिंदू लोगों द्वारा बनाया जाता है बल्कि खाने को पहले हिंदू भगवानों को भोग भी लगाया जाता है. वो ऐसे पूजा-पाठ करके दिया गया खाना ना तो खुद खाएंगे और ना किसी बच्चे को खाने देंगे. इससे उनका धर्म भ्रष्ट होता है.'
चलिए मान लेते हैं कि मंदिर से भेजे गए खाने से उन्हें समस्या है. लेकिन जब ये टेंडर बीआरके फूड्स और मां पार्वती फूड नाम की कंपनियों को दिया गया तो मदरसों ने इनसे भी खाना लेने से मना क्यों कर दिया?
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उज्जैन में सरकारी टेंडर के तहत इस्कॉन मंदिर 2010 से शहर के स्कूलों को मिड डे मील सप्लाई करता आ रहा है. इन स्कूलों में शहर के कई प्राइमरी स्कूल और मदरसे भी शामिल हैं. लेकिन अब करीब 30 से ज्यादा मदरसों ने इस्कॉन मंदिर से मिड डे मील का खाना लेने से मना कर दिया है.
2010 से इस्कॉन शहर के प्राइमरी स्कूल और मदरसों में मिड डे मील दे रहा है |
असल में 2010 में जब खाना देने का काम इस्कॉन मंदिर को दिया गया, तब भी मदरसों ने इसका विरोध किया था, लेकिन तब सरकारी काम में इस तरह के विरोध को ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई थी और 5 सालों तक खाना इस्कॉन ही देता रहा. लेकिन जुलाई 2016 में ये टेंडर खत्म होने पर मदरसा प्रशासन ने फिर अपने विरोध का झंडा तान लिया.
क्या है मदरसों की आपत्ति-
'मदरसा प्रशासन का कहना है कि वह खाना न सिर्फ हिंदू लोगों द्वारा बनाया जाता है बल्कि खाने को पहले हिंदू भगवानों को भोग भी लगाया जाता है. वो ऐसे पूजा-पाठ करके दिया गया खाना ना तो खुद खाएंगे और ना किसी बच्चे को खाने देंगे. इससे उनका धर्म भ्रष्ट होता है.'
चलिए मान लेते हैं कि मंदिर से भेजे गए खाने से उन्हें समस्या है. लेकिन जब ये टेंडर बीआरके फूड्स और मां पार्वती फूड नाम की कंपनियों को दिया गया तो मदरसों ने इनसे भी खाना लेने से मना क्यों कर दिया?
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समस्या ये है ही नहीं कि खाना मंदिर से आ रहा है या मस्जिद से. समस्या ये है कि खाना बना कौन रहा है. इस्कॉन में भगवान कृष्ण का खाना है, मां पार्वती फूड में पार्वती जी का खाना और बीआरके के बारे में जानकारी नहीं कि उसमें कौन से भगवान हैं, तो उस लिहाज से खाना मदरसे वाले खुद ही बनाएं तो ही निश्चिंत हो सकते हैं कि खाना बनाने वाले हाथ मुसलमान के ही हों. तभी धर्म सुरक्षित रह पाएगा. लेकिन पिछले 5 साल से धर्म कैसे और कितना भ्रष्ट हुआ इसकी जानकारी भी मदरसों को देनी चाहिए.
बच्चों और उनके माता-पिता को भी इस मामले में जबरदस्ती खींचा जा रहा है |
क्या बच्चे और उनके माता-पिता इतना सोचते हैं?
खबर ये भी है कि मामले को तूल देने के लिए बच्चों और उनके माता-पिता को भी इस मामले में खींचा जा रहा है. ये कह रहे हैं कि बच्चे वो खाना नहीं खाना चाहते जो इस्कॉन से आ रहा है. और बच्चों के माता-पिता धमकी दे रहे हैं कि ये खाना आया तो वो बच्चों को मदरसे से निकाल लेंगे. ये बात कितनी अचंभित करती है कि किसी स्कूल में पढ़ने वाले छोटे बच्चे या उनके माता-पिता क्या इतना सोचते भी होंगे कि मिड डे मील कौन बना रहा है या फिर वो कहां से आ रहा है? इसका मतलब साफ है कि मदरसों में बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ ये भी समझाया और सिखाया जाता है कि जो खाना वो खा रहे हैं उससे उनका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा क्योंकि वो इस्कॉन से आ रहा है. और माता-पिता कब से इतनी इनक्वाइरी करने लगे कि मिड डे मील का टेंडर सरकार ने किस धर्म वाले लोगों को दिया है? सरकारी स्कूलों में तो ऐसा नहीं होता, हां मदरसों में क्या होता है ये इस घटना से साफ हो गया है.
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ये बेहद शर्मनाक है कि धर्म को हथियार की तरह इस्तेमाल करने वाले लोगों ने बच्चों के खाने को भी इसी रंग में रंगने की शुरुआत कर दी है. स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा ही अब तक इन मामलों से बची हुई थी, लेकिन वहां भी अब मजहब ही सिखाया जाने लगा है.
आखिर चाहते क्या हैं इस खेल के खिलाड़ी?
सरकार सभी धर्मों को साथ में लेकर चलती है और संविधान में हर धर्म बराबर हैं, लेकिन शायद इन कुछ लोगों को साथ चलना पसंद नहीं. इन्हें सब कुछ अलग चाहिए. अलग सहूलियतें. अलग कानून. अलग खाना और अलग शिक्षा भी. शुक्र है कि अभी अनाज को इन्होंने धर्म से दूर रखा है. हरी सब्जियां और हरे फल सिर्फ इनके नहीं हुए अभी तक. लेकिन सोच लीजिए इतना कट्टरपन दिखाएंगे तो आगे जो रोटियां मदरसों में पकने वाली हैं, उसके लिए कहीं इन्हें आटे की चक्की न लगानी पड़े. और फिर गेहूं किसके खेत से आ रहा है उसके लिए क्या करेंगे? क्योंकि किसान तो नए अनाज की बेचने से पहले पूजा करता है.
बहरहाल अब तक सुना था दाने-दाने पर लिखा होता है खाने वाले का नाम, लेकिन इन्होंने बनाने वाले का लिख दिया. बच्चों को खाना मिले, न मिले वो बर्दाश्त है लेकिन हिंदू के हाथ लगे ये बर्दाश्त नहीं है. वाह !! धर्म की राजनीति में बच्चों और उनकी रोटियों का स्वागत है !
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.