2017 अब खत्म होने को है. इस पूरे साल में कई ऐसी घटनाएं हुईं जो हमारे लिए अति महत्वपूर्ण रहीं. जिनका एक आजाद देश की जनता के जीवन पर प्रभाव भी रहा. लेकिन अगर सच्चाई में देखेंगे तो शायद ही उन अग्रणी फैसलों से आम लोगों के जीवन में कोई फर्क पड़ा.
आईए जानते हैं वो फैसले क्या थे और उनका नतीजा क्या रहा-
1- सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को मूलभूत अधिकार माना:
इसी साल अगस्त के महीने में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने एकमत से माना कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन जीने के अधिकार के तहत् निजता का अधिकार भी आता है. इस कारण से देश के नागरिकों की निजता का अधिकार उनका फंडामेंटल राइट यानी मूलभूत अधिकार है. इससे सरकार के आधार कार्ड को अनिवार्य करने के फैसले को झटका लगा. क्योंकि आधार कार्ड में लोगों के आंखों की पुतली और उंगलियों की स्कैनिंग की जाती थी. इसे कोर्ट ने अवैधानिक माना.
लेकिन क्या वाकई सच्चाई बदली? क्या सरकार ने आधार की अनिवार्यता खत्म कर दी? इसका जवाब खोजेंगे तो ना में ही मिलेगा. हां इस फैसले के बाद फर्क सिर्फ इतना आया कि जहां पहले सरकार बड़े ही अधिकार के साथ आधार को अनिवार्य घोषित करती थी, वहीं अब उसने नाक दूसरे तरीके से पकड़ी है. अब सरकार ये तो नहीं कह रही कि आधार अनिवार्य है, लेकिन राशन कार्ड पर राशन लेने से लेकर श्मशान घाट तक में बिना आधार काम होना बंद हो गया.
2017 अब खत्म होने को है. इस पूरे साल में कई ऐसी घटनाएं हुईं जो हमारे लिए अति महत्वपूर्ण रहीं. जिनका एक आजाद देश की जनता के जीवन पर प्रभाव भी रहा. लेकिन अगर सच्चाई में देखेंगे तो शायद ही उन अग्रणी फैसलों से आम लोगों के जीवन में कोई फर्क पड़ा.
आईए जानते हैं वो फैसले क्या थे और उनका नतीजा क्या रहा-
1- सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को मूलभूत अधिकार माना:
इसी साल अगस्त के महीने में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने एकमत से माना कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन जीने के अधिकार के तहत् निजता का अधिकार भी आता है. इस कारण से देश के नागरिकों की निजता का अधिकार उनका फंडामेंटल राइट यानी मूलभूत अधिकार है. इससे सरकार के आधार कार्ड को अनिवार्य करने के फैसले को झटका लगा. क्योंकि आधार कार्ड में लोगों के आंखों की पुतली और उंगलियों की स्कैनिंग की जाती थी. इसे कोर्ट ने अवैधानिक माना.
लेकिन क्या वाकई सच्चाई बदली? क्या सरकार ने आधार की अनिवार्यता खत्म कर दी? इसका जवाब खोजेंगे तो ना में ही मिलेगा. हां इस फैसले के बाद फर्क सिर्फ इतना आया कि जहां पहले सरकार बड़े ही अधिकार के साथ आधार को अनिवार्य घोषित करती थी, वहीं अब उसने नाक दूसरे तरीके से पकड़ी है. अब सरकार ये तो नहीं कह रही कि आधार अनिवार्य है, लेकिन राशन कार्ड पर राशन लेने से लेकर श्मशान घाट तक में बिना आधार काम होना बंद हो गया.
राशन कार्ड पर राशन चाहिए- आधार नंबर लाओ. नया सिम कार्ड चाहिए- आधार से लिंक कराओ. बैंक में खाता है- आधार नंबर से जोड़िए. गैस कनेक्शन है- आधार जरूरी है. स्कूल में बच्चे का एडमिशन कराना है- उसका आधार नंबर बताइए. यहां तक की पिछले दिनों खबर आई कि गोआ में एक लड़के को पेड सेक्स से इसलिए मना कर दिया गया क्योंकि उसके पास आधार कार्ड नहीं था! मतलब खाते, पीते, नहाते, गाते हर जगह बिना आधार के काम नहीं होने वाला.
लेकिन ध्यान रखिए, आधार अनिवार्य नहीं है!
2- तीन तलाक को सुप्रीम कोर्ट ने अवैध और असंवैधानिक करार दिया:
इसी साल अगस्त में ही सुप्रीम कोर्ट ने एक और शानदार फैसला दिया था. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कानून को धत्ता बताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को अवैध और असंवैधानिक करार दे दिया. यूपी चुनावों के दौरान तीन तलाक पर किए गए अपने इस वादे को सरकार ने निभाया. और माना जाता है कि इस वादे के कारण ही यूपी में इस बार मुस्लिम महिलाओं ने अपने धूर विरोधी भाजपा को बढ़-चढ़कर वोट भी दिया था. खूब हो हल्ला मचा. लेकिन तीन लड़कियों द्वारा दायर इस याचिका पर कोर्ट ने मानवीय पहलु को सर्वोपरि माना.
खैर अब जरा सच्चाई पर भी नजर डाल लेते हैं कि इस फैसले के बाद मुस्लिम महिलाओं के जीवन में क्या बदलाव आया. उन्हें कितना सुकून, चैन मिला. तो आपको बता दें कि जिन पांच औरतों ने इस तुगलकी प्रथा के विरोध में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, उसमें से एक इशरत जहां भी हैं. आज के समय में इशरत की हालत ये है कि समाज और पास पड़ोस की तो छोड़िए, खुद उसके परिवार वालों ने उसका बहिष्कार कर दिया है. मस्जिद का काजी उन्हें बुलाकर धमकाता है कि उसने इस्लाम के खिलाफ काम किया है और उसे इसकी सजा मिलेगी. वहीं इशरत के देवर और देवरानी, उसके ही घर से उसे निकाल बाहर करना चाहते हैं.
आज भी किसी मुस्लिम आदमी से इस फैसले के बारे में पूछिए तो वो कहेगा कि ये फैसला धर्म के खिलाफ है. वहीं इस फैसले से जिसे सबसे ज्यादा राहत मिली वो हैं महिलाएं. लेकिन ज्यादातर महिलाएं धर्म के चंगुल में ऐसी फंसी हैं कि वो भी इस फैसले का विरोध करती हैं. जबकि अपने सुरक्षित भविष्य का ख्याल उन्हें नहीं रहता.
3- सरकार ने अधिकारियों की गाड़ियों पर लाल बत्ती को बैन कर दिया:
इसी साल 1 मई से सरकार ने सभी सरकारी गाड़ियों पर लाल बत्ती लगाना बैन कर दिया था. फैसले के समय जोर-शोर से लाल फीताशाही और खुद को सामान्य जन से अलग दिखाने की प्रथा को खत्म करने के दावे गढ़े गए. लेकिन सच्चाई ये है कि भले ही सरकारी बाबुओं की गाड़ी से लाल बत्ती हटा दी गई है पर उनकी ठसक को खत्म नहीं किया जा सका.
एक ओर जहां गणमान्य जनता के सेवकों के आगमन पर घंटो पहले बैरिकेडिंग कर दी जाती है. एंबुलेंस तक को रास्ता नहीं दिया जाता. वहीं फ्लाइट तक को डिले करा दिया जाता है क्योंकि नेता जी को सफर करना है. बत्ती तो उतर गई पर बिगड़े तरीके बंद नहीं किए गए.
4- निर्भया के रिपिस्टों को सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई:
16 दिसम्बर 2012 को देश की राजधानी दिल्ली को बीच सड़क पर शर्मसार किया गया था. उस रात निर्भया के कपड़े नहीं फाड़े गए थे बल्कि देश को नंगा किया गया था. उस रात निर्भया के गुप्तांगों में लोहे की छड़ नहीं डाली गई थी, बल्कि सरकार के सीने में रड घुसेड़ी गई थी. उस रात उस लड़की का रेप नहीं हुआ था बल्कि औरतों को बताया गया था कि तुम्हारी औकात और जगह यही है. उस सर्द रात वो लड़की नंगी एक घंटे तक सड़क पर नहीं पड़ी थी, बल्कि इस समाज को कहा गया था कि तुम्हारी यही सच्चाई है. तुम मरे हुए लोगों के लिए यही सही है. जान की कीमत तो पहले भी हमारे देश में नहीं थी, लेकिन लड़कियों की जगह कितनी नगण्य है ये उस घटना से साक्षात सामने आया था.
उस घटना को 5 साल बीत गए. सारी दिल्ली, देश भर की जनता उस वक्त तो सड़क पर आई, लेकिन क्या ये कांड, ऐसे अपराध रूक गए? इस सवाल का जवाब देने की जरुरत मुझे नहीं लगता कि है. हम सभी इसका जवाब जानते हैं. ये और बात है कि निर्भया के समय हम सभी भावुक हो गए थे क्योंकि इस तरह के घिनौने अपराध से हम सभी का साबका पहली बार पड़ा था. अब रोजाना कितनी ही निर्भयाएं मौत के मुंह में समा जाती हैं लेकिन सुबह चाय के साथ ये खबर पढ़कर नाश्ते तक भूल जाते हैं. क्योंकि अब आदत हो गई है हमें.
5- गुरमीत राम रहीम को रेप के आरोप में 20 साल की सजा सुनाई गई:
डेरा सच्चा सौदा प्रमुख और मेसेंजर ऑफ गॉड गुरमीत राम रहीम को रेप के आरोप में 20 साल की सजा सुनाई गई. पंचकुला के स्पेशल सीबीआई कोर्ट ने उसे ये सजा सुनाई. हजारों लोगों की भीड़ ने तोड़फोड़ और आगजनी की. मासूमों की जान गई. खैर लेकिन इससे बदला क्या?
क्या लोगों का धर्म पर अंधविश्वास खत्म हो गया? क्या लोग आस्था के ऊपर विवेक को तवज्जो देने लगे? क्या लोगों ने बाबाओं पर आंख मूंदकर विश्वास करना बंद कर दिया? जवाब मिलेगा नहीं. धर्म के नाम पर आज भी वोट मांगे जा रहे हैं. धर्म के नाम पर आज भी लोगों को बर्गलाया जा रहा है. धर्म के नाम पर आज भी लोग मरने मारने पर उतारु हैं. कहीं लव जिहाद के नाम पर किसी निर्दोष का कत्ल कर दिया जा रहा है. तो कहीं आस्था के नाम पर रेपिस्ट बाबाओं का गुणगान किया जा रहा है.
2017 की ये घटनाएं हर लिहाज से अहम् थीं. लेकिन देश और समाज की सूरत तब तक नहीं बदल सकती जब तक लोग नहीं बदलेंगे. हम नहीं बदलेंगे. कम लिखा है ज्यादा समझना. बाकी तो आप समझदार हैं ही.
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