धर्म, पंथ, विचारधारा, जाति, संप्रदाय के नाम पर लोगों का मरना कोई आज की बात नहीं है. ये बरसों से हो रहा है. होता चला आ रहा है. समाज हमेशा ही दो वर्गों में बंटा रहा जिसके अंतर्गत एक वर्ग कमज़ोर कहलाया जबकि दूसरा शक्तिशाली. दिलचस्प बात ये रही कि जो शक्तिशाली था बार बार उसने अपने पराक्रम का परिचय देते हुए कमजोर का दमन किया, उसे दबाया. सवाल होगा कि ये बातें क्यों? जवाब है बीते कुछ घंटों में देश भर में हुई हत्याएं और उन हत्याओं को मुद्दा बनाकर उनपर अपनी राजनीति करते गिद्ध. चाहे मध्य प्रदेश के मंदसौर में विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता युवराज सिंह की हत्या हो. या फिर पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में संघ कार्यकर्ता बंधु पाल के पूरे परिवार का क़त्ल. इन मौतों ने उन तमाम लोगों को राजनीति करने का पूरा मौका दे दिया है जिनका उद्देश्य नफ़रत फैलाना और देश की अखंडता को प्रभावित करना है.
इन मौतों को ढाल बनाकर सवाल पूछने का दौर शुरू हो गया है. सोशल मीडिया पर तमाम तरह की बातें हो रही हैं. खूब आक्रोश दिख रहा है. क्या पोस्ट क्या तस्वीरें एक बाढ़ सी आ गई है. तमाम तरह के विडियो शेयर हो रहे हैं और बीते कुछ घंटों में घटी इन घटनाओं पर जिसका जैसा अंदाज और रुतबा है. वो अपने हिसाब से विरोध दर्ज कर रहा है. सवाल उनसे पूछे जा रहे हैं जो कल तबरेज, अख़लाक़, पहलू खान के लिए सवाल कर रहे थे. उनकी मौतों को विरोध का हथियार बना रहे थे.
मामले को लेकर जैसा विरोध लोगों द्वारा दर्ज किया जा रहा है. साफ़ है कि नफ़रत का शिकार हुई लाशें भी कहीं न कहीं अपने को ठगा हुआ सा महसूस कर रही है. शायद ये लाशें भी सोच रहीं हों कि अब उनकी मौत का फायदा वो लोग उठा रहे हैं...
धर्म, पंथ, विचारधारा, जाति, संप्रदाय के नाम पर लोगों का मरना कोई आज की बात नहीं है. ये बरसों से हो रहा है. होता चला आ रहा है. समाज हमेशा ही दो वर्गों में बंटा रहा जिसके अंतर्गत एक वर्ग कमज़ोर कहलाया जबकि दूसरा शक्तिशाली. दिलचस्प बात ये रही कि जो शक्तिशाली था बार बार उसने अपने पराक्रम का परिचय देते हुए कमजोर का दमन किया, उसे दबाया. सवाल होगा कि ये बातें क्यों? जवाब है बीते कुछ घंटों में देश भर में हुई हत्याएं और उन हत्याओं को मुद्दा बनाकर उनपर अपनी राजनीति करते गिद्ध. चाहे मध्य प्रदेश के मंदसौर में विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता युवराज सिंह की हत्या हो. या फिर पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में संघ कार्यकर्ता बंधु पाल के पूरे परिवार का क़त्ल. इन मौतों ने उन तमाम लोगों को राजनीति करने का पूरा मौका दे दिया है जिनका उद्देश्य नफ़रत फैलाना और देश की अखंडता को प्रभावित करना है.
इन मौतों को ढाल बनाकर सवाल पूछने का दौर शुरू हो गया है. सोशल मीडिया पर तमाम तरह की बातें हो रही हैं. खूब आक्रोश दिख रहा है. क्या पोस्ट क्या तस्वीरें एक बाढ़ सी आ गई है. तमाम तरह के विडियो शेयर हो रहे हैं और बीते कुछ घंटों में घटी इन घटनाओं पर जिसका जैसा अंदाज और रुतबा है. वो अपने हिसाब से विरोध दर्ज कर रहा है. सवाल उनसे पूछे जा रहे हैं जो कल तबरेज, अख़लाक़, पहलू खान के लिए सवाल कर रहे थे. उनकी मौतों को विरोध का हथियार बना रहे थे.
मामले को लेकर जैसा विरोध लोगों द्वारा दर्ज किया जा रहा है. साफ़ है कि नफ़रत का शिकार हुई लाशें भी कहीं न कहीं अपने को ठगा हुआ सा महसूस कर रही है. शायद ये लाशें भी सोच रहीं हों कि अब उनकी मौत का फायदा वो लोग उठा रहे हैं जिनका अपना एजेंडा है. जिनकी अपनी विचारधारा है.
बात सीधी और एकदम साफ़ है. मौत, मौत है. वो जितनी विभत्स मंदसौर में विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता युवराज सिंह की है. उतनी ही वीभत्स श्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में संघ कार्यकर्ता बंधु पाल की है. ऐसे ही कुछ मामला तबरेज, अख़लाक़ या फिर पहलू खान का है. इन तमाम मौतों की एक बड़ी वजह एजेंडा और विचारधारा है. यानी ये लोग तभी अब हमारे बीच नहीं हैं क्योंकि इनकी विचारधारा उस व्यक्ति से मेल नहीं खाई जिन्होंने इनकी हत्या की.
इन मौतों के बाद एक वर्ग वो भी सामने आया है, जो कह रहा है कि अपनी विचारधारा से उलट विचारधारा के लोगों को मारकर हिसाब बराबर किया जा रहा है. रास्ते साफ़ किये जा रहे हैं. अगर बात ऐसी है तो ये बताना भी बहुत जरूरी है कि मामला किसी तरह भी हिसाब बराबरी का नहीं है. अलग अलग इन घटनों में विरोध के स्वर उठना स्वाभाविक है. मगर ये बात भी शीशे की तरह बिलकुल साफ़ है कि घटना का विरोध करते हुए कहीं न कहीं हम जाने अनजाने नफ़रत की आग में खर डालने का काम कर रह हैं. विश्व हिंदू परिषद् और संघ कार्यकर्ता की हत्या से लेकर तबरेज और पहलू की हत्या तक हमें इस बात का पूरा ख्याल रखना होगा कि जज्बात के समुद्र में बहकर हम ऐसा कुछ न कर जाएं जो आने वाले समय के लिहाज से डरावना हो. कुछ ऐसा जिसके ताप से हमारा समाज उन शवों की तरह क्षत विक्षत न हो जाए जो हमारे सामने पड़े हैं.
कह सकते हैं कि आज जैसा माहौल तैयार हुआ है. न सिर्फ हमारा विरोध का तरीका सेलेक्टिव हुआ है. बल्कि हम उस सीमा तक पहुंच गए हैं जिसका सीधा असर हमारे सामाजिक ढांचे पर देखने को मिल रहा है.
बाकी बात अगर उपरोक्त मामलों के मद्देनजर हो. तो इन मामलों को लेकर प्रदर्शन लोग अपनी अपनी सुचिता के अनुसार ही कर रहे हैं. लोग अपनी संवेदना प्रकट करते हुए सोशल मीडिया पर बता रहे हैं कि कैसे हमारे भाइयों के साथ अत्याचार हुआ. सोशल मीडिया का रुख करिए असलियत खुल कर सामने आ जाएगी.जिस तरह से वर्तमान में मारे गए लोगों की फोटो को अलग अलग एंगल से सोशल मीडिया पर शेयर किया जा रहा है वो ये साफ़ तौर पर जाहिर कर रहा है कि हमारी संवेदना अन्दर से कितनी खोखली हो गई हैं. कैसे हम मनुष्य के चोले में किसी पशु से ज्यादा बदतर हो गए हैं.
विरोध की आग में जलते हुए हम शायद ये समझ ही नहीं पा रहे कि आज हम जिस दौर में जी रहे हैं वो सोशल मीडिया का दौर है. एक ऐसा दौर जब कब तिल का ताड़ बना दिया जाए इसका अंदाजा शायद ही किसी को हो. हम ये समझ ही नहीं पा रहे कि अपने स्वार्थ की आग में हम किस किस की और कितनी आहुति दे रहे हैं.
अंत में हम बस ये कहकर अपनी बात को विराम देंगे कि किसी घटना के विरोध के नाम पर उस घटना की तस्वीरें शेयर करना और फिर उनका चीर हरण करना कहीं से भी सही नहीं है. इससे परेशानी कहीं से भी दूर नहीं हो रही बल्कि इससे परेशानी सिर्फ और सिर्फ बढ़ रही है.
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