क्या संयोग है! देश में आजकल दो दलितों की काफी चर्चा है, पर अलग-अलग वजहों से.
एक हैं टीना डाबी. मात्र 22 साल की. पहले ही प्रयास में सिविल सेवा परीक्षा में सर्वोच्च स्थान हासिल कर दिखा दिया कि मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए. जो चाहा सो कर दिखाया. अब वो देश की ब्यूरोक्रेसी में शीर्ष तक जाएंगी. अपने वतन के लिए नीतियां बनाएंगी. प्रशासन संभालेंगी. और भी बहुत कुछ करने के मौके उनके पास होंगे.
उन्हें देखने के बाद अब किसकी हिम्मत होगी कि दलितों को कमतर निगाह से देख ले? वह देश में दलित युवाओं की ताकत, प्रतिभा, मान-सम्मान और उत्थान की प्रतीक बन गई हैं. जिस वक्त देश के शातिर जातिवादी लोग अपने सियासी फायदे के लिए हमारे दलित नौजवानों में ठूंस-ठूंस कर हीन भावना और वंचित होने का बोध भरने में जुटे थे, उसी वक्त टीना डाबी ऊंचे मनोबल के साथ लक्ष्य-प्राप्ति के लिए समर्पित होकर काम कर रही थीं.
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दूसरा था रोहित वेमुला. 26 साल का. भले हमारे लोकतंत्र में उसकी आस्था कुछ कम थी, लेकिन तमाम कमियों के बावजूद इसी लोकतंत्र ने उसे भी आगे बढ़ने के तमाम मौके मुहैया कराए थे. हैदराबाद यूनिवर्सिटी में पीएचडी करने का सौभाग्य मिला उसे और सरकार द्वारा फेलोशिप भी दी जाती थी, ताकि बिना किसी दिक्कत के वह अपना रिसर्च पूरा कर सके. बनना तो बहुत कुछ वह भी चाहता था, लेकिन वह टीना डाबी की तरह लक्ष्य के प्रति समर्पित नहीं रह सका और रास्ता भटक गया.
वह हैदराबाद के सांप्रदायिक और देश-विरोधी नेताओं के जाल में फंस गया. नफ़रत और नकारात्मक सोच ने उसे जकड़ लिया. एक पीएचडी स्कॉलर का बौद्धिक दिवालियापन देखिए कि वह देश के संविधान निर्माता और हम 130 करोड़ भारतीयों के श्रद्धेय बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर का नाम...
क्या संयोग है! देश में आजकल दो दलितों की काफी चर्चा है, पर अलग-अलग वजहों से.
एक हैं टीना डाबी. मात्र 22 साल की. पहले ही प्रयास में सिविल सेवा परीक्षा में सर्वोच्च स्थान हासिल कर दिखा दिया कि मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए. जो चाहा सो कर दिखाया. अब वो देश की ब्यूरोक्रेसी में शीर्ष तक जाएंगी. अपने वतन के लिए नीतियां बनाएंगी. प्रशासन संभालेंगी. और भी बहुत कुछ करने के मौके उनके पास होंगे.
उन्हें देखने के बाद अब किसकी हिम्मत होगी कि दलितों को कमतर निगाह से देख ले? वह देश में दलित युवाओं की ताकत, प्रतिभा, मान-सम्मान और उत्थान की प्रतीक बन गई हैं. जिस वक्त देश के शातिर जातिवादी लोग अपने सियासी फायदे के लिए हमारे दलित नौजवानों में ठूंस-ठूंस कर हीन भावना और वंचित होने का बोध भरने में जुटे थे, उसी वक्त टीना डाबी ऊंचे मनोबल के साथ लक्ष्य-प्राप्ति के लिए समर्पित होकर काम कर रही थीं.
इसे भी पढ़ें: मोदी राज में कैसे टॉप कर गए दलित और मुस्लिम छात्र?
दूसरा था रोहित वेमुला. 26 साल का. भले हमारे लोकतंत्र में उसकी आस्था कुछ कम थी, लेकिन तमाम कमियों के बावजूद इसी लोकतंत्र ने उसे भी आगे बढ़ने के तमाम मौके मुहैया कराए थे. हैदराबाद यूनिवर्सिटी में पीएचडी करने का सौभाग्य मिला उसे और सरकार द्वारा फेलोशिप भी दी जाती थी, ताकि बिना किसी दिक्कत के वह अपना रिसर्च पूरा कर सके. बनना तो बहुत कुछ वह भी चाहता था, लेकिन वह टीना डाबी की तरह लक्ष्य के प्रति समर्पित नहीं रह सका और रास्ता भटक गया.
वह हैदराबाद के सांप्रदायिक और देश-विरोधी नेताओं के जाल में फंस गया. नफ़रत और नकारात्मक सोच ने उसे जकड़ लिया. एक पीएचडी स्कॉलर का बौद्धिक दिवालियापन देखिए कि वह देश के संविधान निर्माता और हम 130 करोड़ भारतीयों के श्रद्धेय बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर का नाम लेकर मुंबई में सैकड़ों लोगों की हत्या के गुनहगार आतंकवादी याकूब मेमन के समर्थन में आंदोलन करने निकल पड़ा.
हर कदम एक संघर्ष है... |
मुझे नहीं मालूम कि डॉ. अंबेडकर के संविधान ने उसे क्या नहीं दिया था, जो याकूब मेमन, उसके शागिर्दों और पाकिस्तान में बैठे उसके आक़ाओं की हत्यारी और भारत-विरोधी गैंग से उसे मिल सकता था? लेकिन जिस रास्ते पर वह चल पड़ा था, उसपर सिर्फ़ और सिर्फ़ साज़िशें होती हैं और हर आदमी की जान शातिर सियासतदानों और अपराधियों एवं आतंकवादियों के सरगनाओं का मोहरा मात्र होती है. इसलिए एक दिन पता चला कि रोहित ने आत्महत्या कर ली.
हो सकता है कि अवसाद का शिकार होकर उसने सचमुच आत्महत्या ही की हो, पर यह भी हो सकता है कि जिन लोगों को उसकी मौत से फायदा होने वाला था, उन्होंने ही अपने सियासी फायदे के लिए उसे फांसी चढ़ा दिया हो या फांसी पर चढ़कर बिना कुछ किये-धरे भगत सिंह बन जाने का पागलपन भरा नुस्खा बता दिया हो. लेकिन उस पीएचडी स्कॉलर और उसके शागिर्दों को इतना भी पता नहीं था कि भगत सिंह वे लोग कहलाते हैं, जो मातृ-भूमि की राह पर कुर्बान होते हैं. मातृ-भूमि के दुश्मनों का साथ देने वाले जयचंद कहलाते हैं.
बहरहाल, रोहित के साथ जो भी हुआ, गलत हुआ. लेकिन यह गलत इसलिए हुआ, क्योंकि वह गलत रास्ते पर चला गया था. जो लोग मासूमों की लाशों पर चढ़कर भी राजनीति कर लेते हैं, उनका क्या जाता है? वे तो "चढ़ जा बेटा सूली पर" की तर्ज़ पर नौजवानों को मरने-मारने के लिए उकसा ही सकते हैं. कोई रोहित मरेगा, तभी तो उसकी चिता पर रोटियां सेकेंगे वे. इसलिए उसकी मौत पर गंदी जातिवादी राजनीति का सिलसिला लंबा चला.
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सत्ता-विरोध और व्यवस्था-विरोध के नाम पर दलित नौजवानों में नफ़रत और नकारात्मकता भरी गई. उनमें कूट-कूट कर यह अहसास भरा गया कि तुम कमतर हो और अगर तुम आगे बढ़ना चाहोगे तो देश के संस्थान तुम्हारी जान ले लेंगे. आतंकवादियों का बचाव, समर्थन और महिमामंडन करने वाले लोगों के शातिर और राष्ट्र-विरोधी गिरोहों के साथ उनका गठबंधन कराने की कोशिश की गई, ताकि उनकी युवा-ऊर्जा को देश के विरोध में इस्तेमाल कर देश में अराजकता का माहौल पैदा किया जा सके.
रोहित की मौत से पहले और उसके बाद एक बहुत बड़ी साज़िश रची गई, जिसके कई अध्याय अब भी बाकी हैं. मुझे आशंका है कि इसमें पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई से लेकर भारत के कई घाघ सांप्रदायिक दलों का नेक्सस काम कर रहा है. इस नेक्सस से सांप्रदायिक दलों ने सियासत की सीढियां चढ़ने का और आईएसआई ने भारत में विखंडन की परिस्थितियां पैदा करने का मंसूबा पाल रखा है.
बहरहाल, अब हमारे युवा दलित भाइयों-बहनों को तय करना है कि वे टीना डाबी के रास्ते पर चलकर अपनी और देश की तरक्की का रास्ता खोलेंगे या फिर रोहित वेमुला के रास्ते पर चलकर अपनी और देश की बर्बादी की कहानी लिखेंगे. पर इतना तय है कि जो सकारात्मक ऊर्जा से भरा होगा, वह टीना डाबी की तरह ऊंचाइयों को प्राप्त करेगा और जो नकारात्मक ऊर्जा का शिकार हो जाएगा, उसका हश्र रोहित वेमुला जैसा ही होगा.
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