सिल्वर जुबली का अवसर अमूमन एक बड़ी और दीर्घकालिक सफलता का जश्न होता है, लेकिन शिवसेना और भाजपा गठबंधन इसका अपवाद रहा है. कारण विगत महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान सीट बंटवारे को लेकर दोनों के 25 वर्षीय रिश्ते के बीच खड़ी हुई दीवार है. इसके नतीजे में इनको अलग-अलग चुनावी समर में कूदना पड़ा. बाद में मजबूरीवश दोनों ने मिलकर सरकार जरूर बना ली लेकिन ऐसा लगता है कि ये दीवार और ऊंची होती चली जा रही है. कम से कम बृहन्मुंबई महानगर पालिका में शिवसेना के अकेले चुनाव लड़ने और फिर उसके बाद दूसरे राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन का विकल्प खुला रखकर एक महासंघ बनाने की घोषणा करने से तो यही लगता है. इस तरह हम कह सकते हैं कि सम्बंधों का ये रजत जयंती अवसर बहुत सुखद नहीं रहा.
बीएमसी चुनाव में ‘एकला चलो’ की नीति अपनाकर एक तरह से शिवसेना ने भाजपा पर दबाव बनाने का प्रयास किया है, लेकिन लगता है कि भाजपा पर इस दबाव का कोई विशेष असर होता नहीं दिखाई दे रहा है. मुख्यमंत्री देवेन्द्र फणनवीस समेत भाजपा के दीगर नेता विभिन्न मंचों से लगातार बीएमसी में काबिज शिवसेना के शासन में पारदर्शिता की कमी को मुद्दा बनाकर उनपर निशाना साध रहे हैं. इसका सीधा सा मतलब ये है कि भाजपा को भी अब ये साथ पसंद नहीं है. यानी 288 सीटों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में उन्हें अब सरकार चलाने के लिए शिवसेना के सहारे की आवश्यकता नहीं है.
वैसे भी 122 सीटों के साथ भाजपा इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई थी और बहुमत सिद्ध करने के लिए वो महज 23 सीटों से दूर थी. तब भी शरद पंवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के बाहर से समर्थन देने के लिए राजी होने होने की खबरें आई थीं, लेकिन उस समय भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने अपने पुराने साथी शिवसेना के साथ जाना उचित समझा. ताजा घटनाक्रम से ये अंदाजा लगाना...
सिल्वर जुबली का अवसर अमूमन एक बड़ी और दीर्घकालिक सफलता का जश्न होता है, लेकिन शिवसेना और भाजपा गठबंधन इसका अपवाद रहा है. कारण विगत महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान सीट बंटवारे को लेकर दोनों के 25 वर्षीय रिश्ते के बीच खड़ी हुई दीवार है. इसके नतीजे में इनको अलग-अलग चुनावी समर में कूदना पड़ा. बाद में मजबूरीवश दोनों ने मिलकर सरकार जरूर बना ली लेकिन ऐसा लगता है कि ये दीवार और ऊंची होती चली जा रही है. कम से कम बृहन्मुंबई महानगर पालिका में शिवसेना के अकेले चुनाव लड़ने और फिर उसके बाद दूसरे राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन का विकल्प खुला रखकर एक महासंघ बनाने की घोषणा करने से तो यही लगता है. इस तरह हम कह सकते हैं कि सम्बंधों का ये रजत जयंती अवसर बहुत सुखद नहीं रहा.
बीएमसी चुनाव में ‘एकला चलो’ की नीति अपनाकर एक तरह से शिवसेना ने भाजपा पर दबाव बनाने का प्रयास किया है, लेकिन लगता है कि भाजपा पर इस दबाव का कोई विशेष असर होता नहीं दिखाई दे रहा है. मुख्यमंत्री देवेन्द्र फणनवीस समेत भाजपा के दीगर नेता विभिन्न मंचों से लगातार बीएमसी में काबिज शिवसेना के शासन में पारदर्शिता की कमी को मुद्दा बनाकर उनपर निशाना साध रहे हैं. इसका सीधा सा मतलब ये है कि भाजपा को भी अब ये साथ पसंद नहीं है. यानी 288 सीटों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में उन्हें अब सरकार चलाने के लिए शिवसेना के सहारे की आवश्यकता नहीं है.
वैसे भी 122 सीटों के साथ भाजपा इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई थी और बहुमत सिद्ध करने के लिए वो महज 23 सीटों से दूर थी. तब भी शरद पंवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के बाहर से समर्थन देने के लिए राजी होने होने की खबरें आई थीं, लेकिन उस समय भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने अपने पुराने साथी शिवसेना के साथ जाना उचित समझा. ताजा घटनाक्रम से ये अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि भाजपा के सामने अभी भी राकांपा का विकल्प मौजूद है और अंदरखाने उसकी राकांपा कुछ न कुछ सेटिंग जरूर है. यही उम्मीद देवेन्द्र फणनवीस सरकार को स्थायित्व प्रदान करने और पुराना साथ छूटने की परवाह न करने को बल दे रही है.
इन परिस्थितियों को भांपकर शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र की मौजूदा सरकार को एक तरह से ‘नोटिस पीरियड’ देने का कार्ड खेला है. उन्होंने कहा है कि अगर उनकी वरिष्ठ सहयोगी भाजपा, शिवसेना के द्वारा लंबे समय से उठाए जाने वाले मुद्दों पर अपना रुख स्पष्ट नहीं करती है तो उनके पास प्रदेश सरकार से अपना समर्थन वापस लेने का विकल्प खुला है. इसके पीछे उनकी रणनीति निकाय चुनावों तक ‘वेट एण्ड वॉच’ अर्थात निकाय चुनाव के परिणामों की प्रतीक्षा करने और उनको देखकर आगे की राह तय करने की है. इस तरह विधानसभा चुनाव की तरह ही निकाय चुनाव में भी उन्हें अकेले अपनी किस्मत अंदाजने का मौका मिल जाएगा. गौरतलब है कि बीएमसी में निरंतर 19 वर्षों से शिवसेना का कब्जा है और निकाय चुनावों में उसकी पकड़ हमेशा से ही मजबूत मानी जाती रही है. बिना गठबंधन स्थानीय निकायों में शिवसेना प्रमुख को अपनी पार्टी की हैसियत परखनी है और इसी पर उनकी आगे की रणनीति आधारित होगी.
निकाय चुनाव में अगर शिवसेना को अपेक्षित सफलता मिलती है तो वर्तमान महाराष्ट्र सरकार के बाकी बचे कार्यकाल में उन्हें तन्हा चुनाव लड़ने के लिए रास्ता हमवार करने का समय मिल जाएगा. फिर इसके लिए उनके पास नवीन पटनायक, नितीश कुमार, ममता बनर्जी और दिवंगत जयललिता की मिसाले हैं. काबिलेगौर है कि ये सभी एक समय राजग के घटक रहे हैं लेकिन उससे अलग होने के बाद भी इन्होंने अकेले अपने दम पर चुनाव जीता और अपनी सरकारें बनाने में सफलता पाई. यही वजह है कि अपने हालिय बयान में उद्धव ठाकरे ने इनकी मिसालें देने से कोई गुरेज भी नहीं किया है. अलबत्ता इसके साथ वो हिंदुत्व का कार्ड खेलने से भी चूके और कहा कि इसी की आस ने उन्हें गठबंधन में रुके रहने को मजबूर किया. इस तरह उन्होंने समान नागरिक संहिता, राम मंदिर मुद्दे और पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने जैसे मुद्दों पर भाजपा को घेरने की कोशिश की है और इसमें प्रधानमंत्री मोदी के ढाई साल के कार्यकाल को पूरी तरह विफल बताया है. इसके बहाने उन्होंने जनता की सहानुभूति अपनी तरफ बटोरने की कोशिश की है ताकि बदले में उनके वोट हासिल किए जा सकें. देखना होगा कि हिंदुत्व के इस कार्ड की प्रासांगिकता आज भी बरकरार है या नहीं?
दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे ने क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करके एक महासंघ बनाने का संकेत देकर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी जता दी है. यानी अब वह अपने और शिवसेना के राजनैतिक कैनवस को अधिक बड़ा आकार देने के मूड में हैं. इस तरह क्षेत्रीय राजनीति से आगे निकलकर अब वह राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जमीन तलाश कर रहे हैं. उनका इरादा राष्ट्रीय दलों के बजाए क्षेत्रीय दलों से गठबंधन कर एक महासंघ बनाने का है. कहीं न कहीं यह एक नए गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई तीसरे मोर्चे की आहट है. काबिलेजिक्र है कि कांग्रेस और भाजपा के बिना बनने वाला कोई भी मोर्चा आज तलक देश में अपने दम पर सरकार बनाने में विफल रहा है और उनकी सरकारें इन राष्ट्रीय दलों की बैसाखी पर टिकी होती हैं. उद्धव ठाकरे का ये संभावित महासंघ अगर मूर्त रूप लेता है तो उसे भी भविष्य में कांग्रेस के सहारे की आवश्यकता पड़ेगी. शायद यही सोचकर उद्धव ने बाला साहिब ठाकरे के उसूलों को दरकिनार कर पहली बार कांग्रेस तक की तारीफ कर डाली और गत छः-सात दशकों तक देश में हुए विकास कार्यों का श्रेय कांग्रेस को देने तक से नहीं चूके. उनकी ये स्वीकारोक्ति भविष्य के लिए कांग्रेस को रिझाने की एक कोशिश भी है.
समस्या ये है कि वह जिस ‘हिंदुत्व’ के सहारे उद्धव ठाकरे इस महासंघ का ताना-बाना बुनने की कोशिश कर रहे हैं, उसमें उन्हें क्षेत्रीय दलों का साथ किस हद तक मिलेगा? ऐसे में कहना बेजा ना होगा कि ये कोई राजनीतिक रणनीति नहीं बल्कि महज एक कयासआराई है. इस अनुमानित गणित और जोड़-घटाव का काफी हद तक दारोमदार बीएमसी चुनाव के नतीजों पर होगा.
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