भारतीय रिवाजों के अनुसार, विवाहित महिलाओं को अपने पति का नाम नहीं लेना चाहिए. यहां तक कि कई महिलाएं अपने पति परमेश्वर को 'अजी सुनते हो' कहकर बुलाती हैं. ये कहना तो बेमानी होगी कि इस तरह की बातें एक पितृसत्तात्मक अवधारणा का नतीजा हैं, क्योंकि पतियों को ऐसी कोई बाध्यता नहीं है. हालांकि पुणे के एक गांव में महिलाओं का एक समूह इस प्रथा को तोड़ने के लिए आगे आया है. ये महिलाएं अपने पति को नाम लेकर पुकारना शुरू कर दिया है साथ ही गांव की दूसरी औरतों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं.
महिलाओं का ये समूह #खेलबदल कैंपेन का हिस्सा हैं. ये कैंपेन पितृसत्ता को तोड़ने के लिए चलाया जा रहा है और इसे वीडियो वालंटियर्स नामक संगठन द्वारा महाराष्ट्र के पुणे जिले के वाल्हे गांव में काम कर रहा है. इस समूह में नौ महिलाएं शामिल हैं जिसमें स्वास्थ्य कर्मचारी और गृहणियां शामिल हैं.
ये ग्रुप 13 राज्यों में फैले उन 56 ग्रुपों में से एक है, जो इन महिलाओं के जीने के लिए एक सुरक्षित स्थान बना रहे हैं. इस ग्रुप को चलाने वाली रोहिणी परवार कहती हैं कि उन्होंने एक वीडियो दिखाया जिसमें महिलाएं अपने पति को उनके पहले नाम से संबोधित नहीं करतीं.
'ये प्रथा बताती है कि एक महिला अपने पति का बहुत सम्मान करती है और पति के लंबी उम्र की कामना करती है. जो महिला इस परंपरा का पालन नहीं करती उसे कुसंस्कारी कहा जाता है. उस औरत के पास नैतिकता नाम की चीज ही नहीं है. ये परंपरा हमारे यहां महिलाओं के दिमाग में इतनी गहराई से डाल दी गई है कि इससे बाहर आना उनके लिए नामुमकिन सा होता है. जब तक क्लब ने इस ओर महिलाओं का ध्यान नहीं खींचा.'
उन्होंने कहा, 'इनमें से कुछ महिलाओं की शादी को 30 साल हो गए थे और वो पहला दिन था जब उन्होंने पहली बार...
भारतीय रिवाजों के अनुसार, विवाहित महिलाओं को अपने पति का नाम नहीं लेना चाहिए. यहां तक कि कई महिलाएं अपने पति परमेश्वर को 'अजी सुनते हो' कहकर बुलाती हैं. ये कहना तो बेमानी होगी कि इस तरह की बातें एक पितृसत्तात्मक अवधारणा का नतीजा हैं, क्योंकि पतियों को ऐसी कोई बाध्यता नहीं है. हालांकि पुणे के एक गांव में महिलाओं का एक समूह इस प्रथा को तोड़ने के लिए आगे आया है. ये महिलाएं अपने पति को नाम लेकर पुकारना शुरू कर दिया है साथ ही गांव की दूसरी औरतों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं.
महिलाओं का ये समूह #खेलबदल कैंपेन का हिस्सा हैं. ये कैंपेन पितृसत्ता को तोड़ने के लिए चलाया जा रहा है और इसे वीडियो वालंटियर्स नामक संगठन द्वारा महाराष्ट्र के पुणे जिले के वाल्हे गांव में काम कर रहा है. इस समूह में नौ महिलाएं शामिल हैं जिसमें स्वास्थ्य कर्मचारी और गृहणियां शामिल हैं.
ये ग्रुप 13 राज्यों में फैले उन 56 ग्रुपों में से एक है, जो इन महिलाओं के जीने के लिए एक सुरक्षित स्थान बना रहे हैं. इस ग्रुप को चलाने वाली रोहिणी परवार कहती हैं कि उन्होंने एक वीडियो दिखाया जिसमें महिलाएं अपने पति को उनके पहले नाम से संबोधित नहीं करतीं.
'ये प्रथा बताती है कि एक महिला अपने पति का बहुत सम्मान करती है और पति के लंबी उम्र की कामना करती है. जो महिला इस परंपरा का पालन नहीं करती उसे कुसंस्कारी कहा जाता है. उस औरत के पास नैतिकता नाम की चीज ही नहीं है. ये परंपरा हमारे यहां महिलाओं के दिमाग में इतनी गहराई से डाल दी गई है कि इससे बाहर आना उनके लिए नामुमकिन सा होता है. जब तक क्लब ने इस ओर महिलाओं का ध्यान नहीं खींचा.'
उन्होंने कहा, 'इनमें से कुछ महिलाओं की शादी को 30 साल हो गए थे और वो पहला दिन था जब उन्होंने पहली बार उन्होंने अपने पति का नाम लिया था.'
लेकिन ये बहस यहीं खत्म नहीं होती. इसने महिलाओं को अपने घर जाकर और पति को उनके नाम से पुकारने के लिए प्रेरित किया. इस बदलाव ने उनके परिवार को हैरत में डाल दिया. हालांकि कुछ पतियों ने पवार पर महिलाओं को बहलाने-फुसलाने का आरोप लगाया है. लेकिन वास्तव में इन्होंने महिलाओं को ये समझाने में मदद की है कि कैसे आजतक वे पितृसत्तात्मक मानसिकता को ढो रही थीं.
ग्रुप ने कुछ महिलाओं को सिंदूर, मंगलसूत्र, बिछिया जैसे शादी के सबूतों को पहनने के बोझ से भी मुक्ति दिलाई है. पवार ने कहा, 'सिर्फ महिलाएं ही ये क्यों बोर्ड टांगकर चलें की वो शादीशुदा हैं? मैंने अपने पति से कहा कि अगर वो सिंदूर लगाएगा तभी मैं भी सिंदूर लगाऊंगी. मेरी इस बात पर वो सिर्फ हंसे और मैंने इन सब चीजों को पहनना बंद कर दिया है.'
हालांकि कुछ महिलाओं ने शादी के सर्टिफिकेट को माथे पर लगाना पूरी तरह से बंद नहीं किया है, लेकिन उनका कहना है कि उन्हें सिंदूर, मंगलसूत्र वगैरह कब पहनना है इसमें थोड़ी आजादी है.
बदलाव की शुरूआत छोटी चीज़ों के साथ ही होती है. लेकिन ये औरतें जो कुछ कर रही हैं हमें इस बात पर गर्व है. पितृसत्ता को सवालों के कटघरे में खड़ा किए बगैर भारत में महिलाओं को समझ में नहीं आएगा कि आखिर कितनी गहराई तक उनके दिमाग में इस बात को भर दिया गया है. साथ ही कैसे पूरा समाज हमें और हमारे सोच को कंट्रोल करने की कोशिश कर रहा है.
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