विधानसभा चुनावों को लेकर पांच राज्यों में सियासी गहमा-गहमी पूरे जोर पर है. इस बीच नागालैंड के राजनीतिक पारे में भी अचानक उछाल आ गया है. आमतौर पर किसी भी राज्य में होने वाले विभिन्न निकायों के चुनाव इतनी सुर्खियां नहीं बटोर पाते हैं फिर भी नागालैंड इनको लेकर इनदिनों चर्चा में है. कारण इनमें 33 फीसद महिला आरक्षण को लेकर वहां पिछले चंद सप्ताह से चल रहा विरोध-प्रदर्शन है जिसने अब उग्र रूप ले लिया है. इसकी आंच राजधानी कोहिमा से लेकर दीमापुर तक जाने वाले राजमार्ग समेत राज्य के दीगर हिस्सों में भी महसूस की जा रही है. यही वजह है कि गत 1 फरवरी को होने वाले इन चुनावों को फिल्हाल टाल दिया गया है. इसका विरोध करने वाले लोगों का आरोप है कि संविधान के अनुच्छेद 234 (टी) के तहत स्थानीय निकायों में दिया जाने वाला महिला आरक्षण नागा परम्पराओं और रीति-रिवाजों के विरुद्ध है. हालांकि संस्कृति और परम्परा की बातें करने वाले ये भूल जाते हैं ये सदियों में विकसित होती हैं जब्कि नगर निकायों की अवधारणा काफी हद तक नई-नई है. फिर भला ये नागाओं की संस्कृति और परम्पराओं के विरुद्ध कैसे हो सकती है?
देखा जाए तो नागा अस्मिता से जोड़ दिया गया ये विरोध-प्रदर्शन महज पुरूष प्रधान सोच और नजरिए की देन है. जब भी महिला अधिकारों की दिशा में कोई कदम उठाया जाता है तो नागा जनजातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले पुरूषों की भागीदारी वाले संगठनों को अपनी जमीन दरकती हुई नजर आती है. संयुक्त समन्वय समिति के बैनर तले होने वाले हालिया विरोध-प्रदर्शन में भी ऐसे ही संगठनों की बहुतायत है जो पुरूषों से सम्बंधित हैं. दरअसल ये लोग चाहते ही नहीं कि राजनीति में नागालैंड की महिलाओं की किसी तरह की हिस्सेदारी हो. उनकी इसी संकीर्ण सोच का ही नतीजा है कि 1963 के बाद से अब तक नागालैंड की विधानसभा में कोई भी महिला चुनाव जीतकर नहीं पहुंच सकी है. जब्कि 2013 के विधानसभा चुनाव में मर्दों के मुकाबले औरतों का मत प्रतिशत ज्यादा था. विरोध-प्रदर्शन के पीछे इन संगठनों की दलील है कि संविधान के अनुच्छेद 371 (ए) के तहत उन्हें नागालैंड की जनजातीय परम्पराओं और रीति-रिवाजों...
विधानसभा चुनावों को लेकर पांच राज्यों में सियासी गहमा-गहमी पूरे जोर पर है. इस बीच नागालैंड के राजनीतिक पारे में भी अचानक उछाल आ गया है. आमतौर पर किसी भी राज्य में होने वाले विभिन्न निकायों के चुनाव इतनी सुर्खियां नहीं बटोर पाते हैं फिर भी नागालैंड इनको लेकर इनदिनों चर्चा में है. कारण इनमें 33 फीसद महिला आरक्षण को लेकर वहां पिछले चंद सप्ताह से चल रहा विरोध-प्रदर्शन है जिसने अब उग्र रूप ले लिया है. इसकी आंच राजधानी कोहिमा से लेकर दीमापुर तक जाने वाले राजमार्ग समेत राज्य के दीगर हिस्सों में भी महसूस की जा रही है. यही वजह है कि गत 1 फरवरी को होने वाले इन चुनावों को फिल्हाल टाल दिया गया है. इसका विरोध करने वाले लोगों का आरोप है कि संविधान के अनुच्छेद 234 (टी) के तहत स्थानीय निकायों में दिया जाने वाला महिला आरक्षण नागा परम्पराओं और रीति-रिवाजों के विरुद्ध है. हालांकि संस्कृति और परम्परा की बातें करने वाले ये भूल जाते हैं ये सदियों में विकसित होती हैं जब्कि नगर निकायों की अवधारणा काफी हद तक नई-नई है. फिर भला ये नागाओं की संस्कृति और परम्पराओं के विरुद्ध कैसे हो सकती है?
देखा जाए तो नागा अस्मिता से जोड़ दिया गया ये विरोध-प्रदर्शन महज पुरूष प्रधान सोच और नजरिए की देन है. जब भी महिला अधिकारों की दिशा में कोई कदम उठाया जाता है तो नागा जनजातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले पुरूषों की भागीदारी वाले संगठनों को अपनी जमीन दरकती हुई नजर आती है. संयुक्त समन्वय समिति के बैनर तले होने वाले हालिया विरोध-प्रदर्शन में भी ऐसे ही संगठनों की बहुतायत है जो पुरूषों से सम्बंधित हैं. दरअसल ये लोग चाहते ही नहीं कि राजनीति में नागालैंड की महिलाओं की किसी तरह की हिस्सेदारी हो. उनकी इसी संकीर्ण सोच का ही नतीजा है कि 1963 के बाद से अब तक नागालैंड की विधानसभा में कोई भी महिला चुनाव जीतकर नहीं पहुंच सकी है. जब्कि 2013 के विधानसभा चुनाव में मर्दों के मुकाबले औरतों का मत प्रतिशत ज्यादा था. विरोध-प्रदर्शन के पीछे इन संगठनों की दलील है कि संविधान के अनुच्छेद 371 (ए) के तहत उन्हें नागालैंड की जनजातीय परम्पराओं और रीति-रिवाजों से जुड़ी मान्यताओं को संरक्षण प्राप्त है. काबिलेगौर है कि संविधान के इस अनुच्छेद में नागालैंड के लिए विशेष प्रावधान है. इसी का फायदा उठाकर ये संगठन महिला आरक्षण के विरोध में अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं और उसे मनवाने के लिए हिंसा का सहारा लेने तक से बाज नहीं आ रहे हैं. जब्कि वो भूल जाते हैं कि संविधान से प्रदत्त उनके अधिकारों को नागालैंड की विधानसभा से अध्यादेश लाकर उनपर तर्कसंगत प्रतिबंध लगाने की भी व्यवस्था है. गौरतलब है कि मुख्यमंत्री जेलिंग के नेतृत्व वाली वर्तमान एनपीएफ सरकार गत वर्ष 24 नवंबर 2016 को इससे सम्बंधित एक प्रस्ताव लाकर विधानसभा से पहले ही पारित करा चुकी है. इसमें नागालैंड सरकार के सितंबर 2012 के उस प्रस्ताव को निरस्त कर दिया गया था जो स्थानीय निकाय चुनावों में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण के खिलाफ था. ऐसे में नागा जनजातियों का ये विरोध-प्रदर्शन बेमाने हो जाता है. दूसरी जानिब भाजापा समर्थित नागालैंड की मौजूदा सरकार की इस बात में भी दम है कि निकाय चुनावों में महिला आरक्षण की व्यवस्था नहीं होने से केंद्र सरकार के द्वारा विभिन्न मदों में मिलने वाली आर्थिक सहायता के लाभ से नागालैंड वंचित रह जाता है. जाहिर है कि इससे केंद्र सरकार की वित्तीय मदद से चलने वाली महिला अधिकारों के संरक्षण और कल्याण की कई योजनाएं राज्य में लागू नहीं हो पाती हैं. यही वजह है कि महिला अधिकारों की आवाज बुलंद करने वाली ‘नागा मदर्स एसोसिएशन’ ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर दीगर राज्यों की तरह ही अपने यहां के भी निकाय चुनावों में 33 प्रतिशत आरक्षण को सुनिश्चित करने की मांग की थी. अजीब बात है कि राज्य में महिलाओं की खराब सूरतेहाल के बावजूद विरोध प्रदर्शन करने वाले कुछ संगठनों की दलील है कि नागा समाज में महिलाओं को समान अधिकार मुहैया हैं, इसलिए उन्हें किसी प्रकार के रिजर्वेशन की कोई आवश्यकता ही नहीं है. जब्कि नागा समाज में पुरूष और महिला गैर-बराबरी की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वहां महिलाओं को जमीन की मिल्कियत का हक नहीं है. अपने बाप-दादा की विरासत से उन्हें जमीन का एक टुकड़ा भी नसीब नहीं होता है. ये नागा संस्कृति और वहां की पारंपरिक मान्यताओं के विरुद्ध है. नागा जनजातियों के समाज में इस तरह और भी कई कुरीतियां हैं लेकिन महिला आरक्षण के विरोध में उनसे जुड़े असल मुद्दे गौण होते जा रहे हैं.
प्रदर्शनकारियों के डर से 535 उम्मीदवारों में से डेढ़ सौ से अधिक प्रत्याशियों ने अपने नामांकन वापस ले लिए हैं. इनमें मर्द और औरतें दोनों शामिल हैं जब्कि कई उम्मीदवारों का उनकी जनजातियों के द्वारा बायकॉट कर दिया गया है. यानी महिलाओं और उनके आरक्षण का समर्थन करने वाले उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के उनके अधिकार से भी वंचित किया जा रहा है और प्रशासन पूरी तरह से असहाय नजर आ रहा है. जाहिर है ये संस्कृति और परम्परा के नाम पर खुली गुंडागर्दी है जिस पर अतिशीर्घ काबू पाने की जरूरत है.
अर्थात नागाओं का महिला आरक्षणा विरोध ना केवल पुरूष प्रधान समाज की संकीर्ण मानसिकता को प्रदर्शित करता है बल्कि ये एक तरह से असंवैधानिक है. ऐसे में राज्य सरकार को किसी भी हालत में महिला आरक्षण का विरोध करने वालों के आगे झुकना नहीं चाहिए और महिलाओं को उनका अधिकार सुनिश्चित करना चाहिए. यही वो रास्ता है जो नागा समाज में औरतों के पिछड़ेपन को दूर करने के साथ-साथ उन्हें अपने अधिकारों की आवाज बुलंद करने के लिए एक मजबूत प्लेटफार्म भी मुहैया कराएगा. जाहिर है पुरूषों से अधिक संख्या में मतदान करने वाली महिलाओं को सत्ता में भी कम से कम 33 फीसदी हिस्सेदारी का हक तो है ही.
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