साजिश के सिद्धांतों की उम्र बड़ी लंबी होती है. या ये कहें कि वो लगभग अमर ही हो जाती हैं. उदाहरण के लिए चांद के अंधरी सतह पर एलियन का रहते हैं. और शायद वो हमारे ग्रह पर हमला करने की तैयारियों में भी लगे हैं. इस तरह की एक अफवाह ने हम सभी के मन में इतना घर कर लिया है कि कई प्रतिष्ठित अंतरिक्ष एजेंसियों के स्पष्टीकरण के बावजूद भी इसे सच ही मानते हैं.
ऐसी ही एक और साजिश के बारे में हम अक्सर बात करते हैं. हालांकि इसका मजाक नहीं बनाया जा सकता लेकिन ये थियोरी खत्म होने का भी नाम नहीं लेती. दुनिया के कई टेक्नोलॉजी के क्षेत्र की कई दिग्गज कंपनियां अपने ग्राहकों की जासूसी करती हैं. और स्मार्टफोन और लैपटॉप पर इन कंपनियों की निगरानी होती है और मैं और आप जो भी बात करते हैं वो सभी ये रिकॉर्ड करते हैं.
2017 में टेक एनालिटिक्स फर्म सीबीइंसाइट्स (CBInsights) के अनुसार फेसबुक द्वारा एक पेटेंट दाखिल किए जाने के बाद से कंपनियों की भौंहें तन गई थी. फेसबुक ने पेटेंट दायर किया था जिसके द्वारा उन्हें यूजर के मूड का आंकलन करने का अधिकृत अधिकार मिल जाएगा. यूजर के चेहरा का भाव उनके फोन या कंप्यूटर के कैमरा से रिकॉर्ड हो जाएगा और इस जानकारी को फेसबुक अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना चाह रहा था.
गूगल और अमेजन के बारे में इस तरह की चिंता व्यक्त की गई है. हालांकि, उन्होंने अपने यूजर की बात नहीं सुनी और फिर उनकी बातचीत के आधार पर उन्हें एड दिखाते है. कंपनियों की बेवजह दखलअंदाजी से भी ऐसी चिंताएं बन जाती हैं. जैसे अमेजन इको और गूगल होम डिवाइस का वॉयस बेस्ड आर्टिफिशियल असिस्टेंस सर्विस. इन्होंने इस चिंता को और हवा दी है कि हो सकता है ये कंपनियां यूजर की सारी बातों को सुन रही हैं.
उदाहरण के लिए, कई यूजर ने शिकायत की है कि उन्होंने अपने मित्र, परिवारजनों या फिर किसी परिचित से बात की. और उसके बाद उन्हें उन बातों से संबंधित एड उन्हें दिखने लगे.
आखिर चल क्या रहा है-
सच कहूं तो ये बताना बहुत मुश्किल है. स्मार्टफोन, ट्रैकिंग डिवाइस की तरह काम करते हैं इसके सोच का कारण उनका हार्डवेयर है जो इन पतले फोन में लगाया जाता है. निजी हितों के लिए इस्तेमाल होने वाले उपकरण होने के बावजूद ये हमेशा इंटरनेट से जुड़े होते हैं, दुनिया के विभिन्न हिस्सों में स्थित सर्वरों से डेटा भेजते और प्राप्त करते हैं (ऑडियो के रूप में भी). हाल ही में अमेरिकी सीनेट के सामने गवाही देते हुए फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने ऐसी चिंताओं को सिरे से खारिज कर दिया. चारों तरफ कैमरे से घिरे जुकरबर्ग ने इन आरोपों से स्पष्ट रूप से इनकार किया कि फेसबुक अपने यूजर के माइक्रोफोन का इस्तेमाल कर उनकी "जासूसी" करता है.
फेसबुक ने पूरी तरह इंकार भी नहीं किया
हालांकि उन्होंने ये चेतावनी जरुर जोड़ दी कि वास्तव में यहा हो क्या रहा है, यह समझने के ये जरुरी है. उन्होंने कहा- "अगर आपने हमारे ऐप को अनुमति दी है तभी हम आपके माइक्रोफोन का इस्तेमाल करते हैं. और अगर आप कोई ऐसा फीचर उपयोग कर रहे हैं जिसमें ऑडियो की जरुरत हो." अब बात ये है कि लगभग हर यूजर ही फेसबुक को अपने स्मार्टफोन के कैमरा और माइक्रोफोन के इस्तेमाल की इजाजत दे देता है. और फेसबुक इनका बहुत ही सारी चीजों में इस्तेमाल करता है. लेकिन सवाल ये है कि क्या ये यहीं रुक जाएगी?
कैंब्रिज एनालिटिका डेटा लीक के पहले तक सभी लोग दबी जुबान में ये बात करते थे कि कैसे फेसबुक थर्ड पार्टी को अपने यूजर के डाटा मुहैया कराता है. अंत में बड़े पैमाने पर डेटा लीक के लिए फेसबुक को दोषी पाया गया, इतने स्पष्ट रूप से अब कौन कहेगा कि यहां कुछ भी नहीं हो रहा है? हमारे पास पहले से ही वॉयस-बेस्ड असिस्टेंस द्वारा हमारी बातों को सुनने और रिकॉर्ड करने के उदाहरण हैं. जो कि उन्हें करना नहीं चाहिए था. ऐसे मामलों पर दोष डिवाइस पर या डिवाइस में कुछ दोष बताकर पल्ला झाड़ा गया.
अभी के लिए कैंब्रिज एनालिटिका टाइप कोई खुलासा नहीं होने के कारण ठोस सबूत नहीं हैं. ये यूजर पर निर्भर करता है कि वे क्या करेंगे. लेकिन डाटा प्राइवेसी और सुरक्षा पर बढ़ते खतरों को देखते हुए सावधानी बरतने में कोई दिक्कत नहीं है. और टेक इंडस्ट्री का तो पूरी तरह भरोसा नहीं करना चाहिए. कैमरा बंद कर देना और माइक म्यूट कर देना कोई उपाय नहीं है. लेकिन कुछ एप का इस्तेमाल करते समय यूजर परमिशन पर ध्यान देना बहुत जरुरी है. आखिर आपका डाटा है और इसकी सुरक्षा भी आपके ही हाथ में है.
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