सिखों के खिलाफ 1984 नरसंहार के दौरान कहां गुम था राष्ट्रीय मीडिया?
1984 के उन काले और खौफनाक दिनों में स्वतंत्र अखबारों में से अधिकतर कहां थे? उनका परिदृश्य से गायब होना स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत में चौथे स्तंभ की सबसे बड़ी नाकामी थी. इस मुद्दे पर अब तक कम ही ध्यान गया है.
-
Total Shares
जरनैल सिंह जो अब आम आदमी पार्टी के नेता हैं, तब एक पत्रकार थे जब उन्होंने 2009 में पी चिदम्बरम पर जूता उछाला था. उनके इस कृत्य ने उस नजरिए को बदल दिया जिस नजरिए से तब तक मीडिया 1984 को देख रहा था. जरनैल सिंह ने ये विरोध जब जताया था उस वक्त तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदम्बरम एक न्यूज़ कॉन्फ्रेंस को संबोधित कर रहे थे. दरअसल तब कांग्रेस ने सिख नरसंहार के दो कुख्यात संदिग्धों को लोकसभा चुनाव के लिए टिकट दिए थे और वजह बताई थी, देश के कानून प्रवर्तन सिस्टम की ओर से उन्हें ‘दोषमुक्त’ बताया जाना.
जरनैल सिंह के विरोध जताए जाने को राष्ट्रीय मीडिया ने प्रमुखता से जगह दी. मृदुभाषी सिंह को टीवी स्टूडियोज़ में बुलाया गया. पत्रकारिता के मूल्यों के साथ ही जरनैल 25 साल से जिस संताप और पीड़ा से गुजर रहे थे, उसे लेकर बहस होने लगी. जरनैल ने महज 11 साल की उम्र में ही दिल्ली में 1984 के उन काले और खौफनाक दिनों को देखा था. 9 साल पहले 2009 में सिंह के विवादित विरोध प्रदर्शन से तब के हुक्मरानों पर दबाव बढ़ा. इसी के बाद सिख नरसंहार के कथित सूत्रधारों के लोकसभा टिकट काटे गए.
जरनैल सिंह ने 2009 में पी चिदम्बरम पर जूता उछाला था
एक हिन्दी अखबार के अनजाने से पत्रकार ने गैर पारम्परिक तरीके से विरोध जताकर सत्ताधारियों को कुछ जवाबदेही के लिए विवश किया. ऐसा करते हुए उसने अपनी नौकरी को भी खतरे में डालने का जोख़िम लिया. सिंह का ये विरोध बेशक पत्रकारिता के स्थापित सिद्धांतों का खुला उल्लंघन था लेकिन इसकी गूंज सत्ता के गलियारों में सुनाई दी. उस वक्त सरकार की कमान एक सिख यानी डॉ मनमोहन सिंह के ही हाथों में थी. लेकिन जैसे ही संदिग्ध षड्यंत्रकारियों को कांग्रेस पार्टी की चुनाव उम्मीदवारों की लिस्ट से बाहर किया गया, उसके बाद मीडिया का बड़ा वर्ग इस मुद्दे को लेकर फिर सुप्तावस्था में चला गया. ये 1984 की गूंज के साथ इसी हफ्ते तब फिर जागा जब सज्जन कुमार को उम्र कैद की सजा सुनाई गई.
लेखक और इतिहास के प्रोफेसर विलियम एस्टोर ने 2012 में ‘हफिन्गटन पोस्ट’ में अपने कॉलम में लिखा- ‘एक सच्चे मुक्त प्रेस को दिलेरी की ज़रूरत होती है. उसमें ये कहने की इच्छाशक्ति होनी चाहिए कि ‘मैं आरोप लगा रहा हूं.’
क्या हमारे प्रेस के अधिकतर हिस्से (उस समय तक प्रिंट ही ज्यादा प्रभावी था) ने वो किया जो हमारे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ से करना अपेक्षित था? वो भी तब जब उन्मादी भीड़ सिखों को ज़िंदा जला रही थी, उनके घरों को फूंक रही थी, उनकी महिलाओं से बलात्कार कर रही थी. 31 अक्टूबर 1984 की शाम से अत्याचारों का जो दौर शुरू हुआ वो तीन दिन तक बदस्तूर चलता रहा?
हमारे सोशल-मीडिया ब्रॉडकास्ट में मंगलवार को हिस्सा लेते हुए जरनैल सिंह ने उन दिनों को याद किया जब उन्होंने पत्रकार बनने का फैसला किया. जरनैल सिंह ने बताया, ‘जब मैं कॉलेज में था तो दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी गया. यहां 40 साल का अखबारों का रिकॉर्ड था. मैंने 1984 की रिपोर्टिंग ढूंढने की कोशिश की. मैं दंग रह गया कि पहले तीन दिनों (नवंबर 1984 के) की घटनाओं को लेकर कुछ भी नहीं था, जब बड़ी संख्या में सिखों को दिल्ली की सड़कों पर ज़िंदा जला दिया गया.’
पुलिस उस वक्त पूरे परिदृश्य से ‘जादुई ढंग से गायब’ हो गई थी
ये सब जानने के बाद ही जरनैल सिंह ने खुद पत्रकारिता की पढ़ाई कर इसे प्रोफेशन के तौर पर चुना. लेकिन उन्होंने खुद ही पत्रकारिता के अपने करियर को तब दांव पर लगा दिया जब 2009 में तत्कालीन एक ताकतवर केंद्रीय मंत्री पर जूता उछाल दिया था. वरिष्ठ पत्रकार और लेखक जसपाल सिंह सिद्धू भी मानते हैं कि 1984 में हमारे देश के प्रमुख दैनिक समाचार पत्रों से उन तीन दिनों के लिए पत्रकारिता गुम हो गई.
सिद्धू कहते हैं, ‘मुख्य धारा के घरेलू प्रेस में जो भी रिपोर्ट किया गया वो भी तब जब प्रेस के एक छोटे से वर्ग ने उन खौफनाक घटनाओं पर लिखना शुरू कर दिया था. लेकिन जब स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय खुला था तो पहले तीन दिन के लिए रिपोर्टिंग करीब-करीब ब्लैक-आउट ही रही.’
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के लिए 1984 में रिपोर्टिंग करने वाले राहुल बेदी ने अपने एक लेख में बताया कि किस तरह पुलिस उस वक्त पूरे परिदृश्य से ‘जादुई ढंग से गायब’ हो गई थी. वो परिदृश्य जिसे 34 साल बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने इसी हफ्ते ‘मानवता के ख़िलाफ अपराध’ करार दिया. बेदी ने लिखा, ‘और जो थोड़े बहुत (पुलिसवाले) दिखाई भी दे रहे थे वो या तो खुद ही कुछ नहीं करना चाहते थे या उन्हें ऊपर से भीड़ पर गोली नहीं चलाने के आदेश थे. ये भीड़ अपने संख्याबल और कोई कार्रवाई ना होने का भरोसा होने पर ही वो सब कर रही थी. कार्रवाई होती तो ये भीड़ ना टिकती.’
लेकिन बड़ा सवाल ये है कि उस वक्त प्रेस का बड़ा हिस्सा कहां गायब था? तीन दिन तक उसका सक्रिय ना होना, इसको आखिर कैसे जायज़ ठहराया जाएगा? उस वक्त सरकार की ओर से संचालित दूरदर्शन अकेला ब्रॉडकास्टर था. उस वक्त दूरदर्शन ने पूरा फोकस इंदिरा गांधी के अंतिम संस्कार और प्रधानमंत्री के तौर पर उनके उत्तराधिकारी के चुनाव पर कर रखा था. लेकिन तब तीन दिन तक स्वतंत्र अखबारों में से अधिकतर कहां थे? उनका परिदृश्य से गायब होना स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत में चौथे स्तंभ की सबसे बड़ी नाकामी था. इस मुद्दे पर अब तक कम ही ध्यान गया है.
अब नब्बे के दशक की ओर फास्ट फारवर्ड होते हैं
भारत में तब निजी न्यूज़ स्टेशनों ने दस्तक देना शुरू कर दिया. एक दशक से भी ज़्यादा तक 1984 साउंड बाइट्स में खोया रहा, कांग्रेस और बीजेपी के नेताओं के बीच जुबानी जंग में फंसा रहा. प्रिंट और टीवी मीडिया संस्थानों ने 1984 के नरसंहार पर गंभीरता से तब ध्यान देना शुरू किया जब डॉ मनमोहन सिंह ने इस पर एक बयान दिया, जिसे ‘माफी मांगना’ कहकर प्रचारित किया गया. ये एक सिख प्रधानमंत्री थे जिन्होंने 1984 के लिए 2005 में ‘खेद’ जताया ना कि भारत की संसद ने.
तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने 1984 के लिए 2005 में ‘खेद’ जताया था
लटके हुए इन्साफ का ये मुद्दा फिर 4 साल तक मीडिया के रडार से गायब रहा. तब तक जब 2009 में कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव की उम्मीदवारी के लिए 1984 के दो टॉप संदिग्धों को चुना. उस घटना के नौ साल बाद अदालत की ओर से अब सज्जन कुमार को दोषी ठहराने का फैसला सामने आया. इस फैसले को अभी भी ऊपरी अदालत में चुनौती देने का विकल्प खुला है.
सज्जन कुमार को दोषी ठहराए जाने को अब मीडिया में काफी कवरेज मिला. मुख्यतौर पर इसकी वजह राजनीतिक स्टोरी होना है. ना कि इसका मानवीय और नागरिक अधिकारों से जुड़ा मसला होना या देश के जघन्य नरसंहारों में से एक में इंसाफ से जुडी स्टोरी का होना है. किसी भी पत्रकार को इंसाफ मांगने या पत्रकारिता के मानदडों में रहकर बोलने के लिए खेद महसूस नहीं करना चाहिए क्योंकि सिर्फ इसलिए कि वो उस समुदाय से जुड़ा है जिसे अत्याचारों का सामना करना पड़ा. लेकिन 1984 में राष्ट्रीय प्रेस का वो बड़ा वर्ग जिसने 1984 के काले दिनों को ही पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया और उसको वक्त–वक्त पर महज़ एक राजनीतिक मसाला बहस की तरह इस्तेमाल किया, उसी प्रेस का हिस्सा रही सिख आवाज़ अब धीरे धीरे विलुप्त होती जा रही हैं.
1984 के बाद के भारत में पंजाब के बाहर तैयार हुई सिख पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी शायद 1984 के राष्ट्रीय प्रेस के बड़े हिस्से की तरह ही उस दर्दनाक इतिहास को सामने लाने से विमुख हो गई है. हमने इसी सिंड्रोम को अभी एक प्रमुख टीवी स्टेशन के ब्रॉडकास्ट के दौरान महसूस किया. ये ब्रॉडकास्ट सज्जन कुमार को दोषी ठहराए जाने के बाद दिल्ली के एक गुरुद्वारे में स्थित 1984 के स्मारक से किया जा रहा था.
शो का युवा सिख एंकर 1984 के नरसंहार के कुछ पीड़ितों से सज्जन कुमार की सज़ा पर उनसे प्रतिक्रिया जानना चाह रहा था. जब उसने एक महिला पीड़ित से बात की तो उस महिला ने कहा, ‘थोड़ा संतोष है. ये हमारे ज़ख्मों पर जरा सा मरहम लगने जैसा है. लेकिन जिन्होंने बच्चों-भाइयों को मारा, उन्हें भी सजा-ए-मौत मिलनी चाहिए.’
ये देखना हैरानी वाला था कि एंकर ने उस महिला के जवाब पर ये अजीब सवाल किया..“आप उनके लिए सज़ा-ए-मौत क्यों मांग रही हैं? सिखी हमें ये नहीं सिखाता. सिखी ये नहीं कहता कि जिन्होंने तुम्हें मारा, तुम उन्हें मारो.”
1984 के बाद के दौर में पढ़े-लिखे सिख पत्रकार ने ऐसा सवाल पूछकर सिख धर्म को लेकर अपनी सीमित समझ का परिचय दिया. सिख धर्म का मूल सामाजिक न्याय, अधिकार और मानवता से ही जुड़ा है. इतिहास गवाह है कि सिख से खालसा की यात्रा ज़ुल्म और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष की अनूठी मिसाल है. इस सिख पत्रकार के सवालों से संकेत मिलता है कि किस तरह एक पूरी पीढ़ी ने खुद को हालिया और पहले के इतिहास से विमुख कर लिया.
अंग्रेजी उपन्यासकार जॉर्ज ओरवेल का एक प्रसिद्ध कथन है- “लोगों को तबाह करने का सबसे कारगर रास्ता है कि उनकी इतिहास की समझ को खारिज कर देना या उसे मिटा देना है.”
किसी भी सभ्य समाज में सुरक्षित भविष्य इस पर निर्भर करता है कि वो ऐतिहासिक तथ्यों का कितनी मजबूती से अनुसरण करता है.1984 के कवरेज का जो कुछ भी बचा है, वो भी मिटता जा रहा है.. यानी सही जानकारी और पीड़ादायक इतिहास के बारे में सवाल करने की सही काबीलियत का होना.
(इस स्टोरी के कई बहुमूल्य अंश वरिष्ठ पत्रकार हरमीत शाह सिंह से प्राप्त हुए हैं)
ये भी पढ़ें-
1984 दंगे: सिख कत्लेआम का वो आरोपी जो कांग्रेस से इनाम लेता रहा
राहुल जी, 1984 और 2002 दंगों का जरा अंतर तो समझिए
आपकी राय