New

होम -> सियासत

बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 04 दिसम्बर, 2022 03:53 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
  • Total Shares

अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) तो 2014 में भी नरेंद्र मोदी को चुनौती दे चुके हैं - और अब आम आदमी पार्टी ने ऐसा माहौल बना लिया है कि दस साल बाद एक बार फिर वो 2024 के आम चुनाव में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को चैलेंज करने वाले हैं. वो और उनकी टीम जोर शोर से तैयारियों में जुटी हुई है.

कहने को तो अरविंद केजरीवाल यहां तक कह रहे थे कि अगर सीबीआई दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया को गिरफ्तार कर लेती है तो वो बड़े आराम से गुजरात चुनाव जीत जाएंगे. अफसोस की बात ये रही कि बार बार बीजेपी को ललकारने के बावजूद ऐसा कुछ नहीं हुआ.

लेकिन तभी अरविंद केजरीवाल और उनके सारे ही साथी 2024 में मोदी बनाम केजरीवाल मुकाबले को जोर शोर से प्रचारित कर रहे है - और ऐसा लग रहा है जैसे बीजेपी की रणनीति ही अरविंद केजरीवाल के लिए मददगार साबित हो रही है.

असल में, ये बीजेपी के ही संसदीय बोर्ड ने तय किया है कि 2024 के पहले होने वाले सारे ही विधानसभा चुनाव पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही चेहरे पर लड़ेगी. जहां बीजेपी की सरकार नहीं है, वहां तो ठीक है लेकिन जहां वो सत्ता में है वहां उसके मुख्यमंत्री चेहरा क्यों नहीं हो सकते?

अगर ऐसा नहीं होता तो अभी हो रहे गुजरात चुनाव (Gujarat Election 2022) में आमने सामने तो भूपेंद्र पटेल और अरविंद केजरीवाल ही होते. मुकाबला तो बराबरी में ही होता है. जहां ऐसा कोई तार्किक आधार नहीं होता, वहां नेता अपनी हैसियत के हिसाब से फैसला लेते हैं. जरूरी नहीं कि वो हैसियत जनता ने तय किया हो, कुछ लोगों को ऐसी चीजें विरासत में भी मिलती हैं.

जैसे राहुल गांधी हमेशा ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुकाबला करते नजर आते हैं. अमित शाह से भी नहीं. अरविंद केजरीवाल भी वैसा ही करते हैं. 2014 में जब वाराणसी सीट पर अरविंद केजरीवाल चुनाव लड़ रहे थे तो भी मुकाबला करीब करीब बराबरी का था. सीनियर और जूनियर का फर्क अलग हो सकता है. तब मोदी मुख्यमंत्री के रूप में लगातार तीन चुनाव जीत चुके थे - और अरविंद केजरीवाल दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने के 49 दिन बाद ही इस्तीफा दे दिये थे.

अरविंद केजरीवाल की अपनी ही पहल होती तो अलग बात होती, ये तो बीजेपी ही देश के मुख्यमंत्रियों के मुकाबले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मैदान में उतार देती है. 2015 के दिल्ली चुनाव में बीजेपी ने किरण बेदी को चेहरा जरूर बनाया था, लेकिन 2020 में तो अमित शाह ने मोदी को ही मोर्चे पर लगा दिया था.

ठीक वैसा ही हाल पंजाब में भी देखने को मिला जब अरविंद केजरीवाल के खिलाफ सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमला बोल रहे थे. भला अरविंद केजरीवाल का हौसला कैसे न बढ़े जब दिल्ली और पंजाब दोनों ही विधानसभा चुनावों में मोदी के मैदान में रहते बीजेपी को शिकस्त देकर सरकार बना चुके हों. ऐसी ही कहानी 2015 में नीतीश कुमार और 2021 में ममता बनर्जी की भी रही है - और ये जानना भी बेहद दिलचस्प है कि 2024 के आम चुनाव के लिए ये तीनों ही चेहरे मोदी के सामने चैलेंजर बन कर उभरे हैं.

2024 के लिए तो अरविंद केजरीवाल मेक इंडिया नंबर 1 मुहिम चला ही रहे हैं, गुजरात चुनाव में OTP फॉर्मूला आजमा रहे हैं. अरविंद केजरीवाल के ओटीपी का मतलब वन टाइम पासवर्ड तो नहीं है, लेकिन वो तो यही मान कर चल रहे हैं काम वैसे ही बन सकता है.

गुजरात चुनाव के दौरान ही अहमदाबाद में हुए आजतक के टाउनहॉल कार्यक्रम में अरविंद केजरीवाल ने OTP फॉर्मूले को विस्तार से समझाया था. अरविंद केजरीवाल के ओटीपी का अर्थ ओबीसी, ट्राइबल और पाटीदार का गठजोड़ है. अरविंद केजरीवाल का ही कहना भी है, आम आदमी पार्टी ने ओबीसी का सीएम कैंडिडेट बनाया है. जबकि आम आदमी पार्टी के पास ट्राइबल का भारी समर्थन है, साथ ही AAP का अध्यक्ष पाटीदार समाज से है.

और 2024 में लड़ाई किन मुद्दों पर होगी, ये गुजरात चुनाव में चल रही बयानबाजी और राजनीतिक दलों के दावों से पहले ही समझा जा सकता है - लेकिन ये भी वोट दे रही जनता को ही समझना होगा कि आखिर बुनियादी सुविधायें और आम अवाम के लिए जरूरी चीजें चुनावों में मुद्दा क्यों नहीं बन पा रही हैं?

एक निजी टिप्पणी चुनावी मुद्दा कैसे हो सकती है?

क्या किसी चुनाव मुद्दा ये होना चाहिये कि देश के प्रधानमंत्री की तुलना उनके राजनीतिक विरोधी किससे कर रहे हैं - राम से या रावण से?

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के एक रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना रावण से कर देने के बाद से तो यही हो रहा है - और सिर्फ बीजेपी नेता ही नहीं खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी बार बार लोगों के बीच जाकर यही बता रहे हैं कि किस किस ने और कब कब उनको क्या क्या कहा?

narendra modi, arvind kejriwalगुजरात चुनाव में ट्रेलर देख कर अंदाजा लगा सकते हैं कि 2024 में लड़ाई कैसी होगी?

जिस किसी ने भी कुछ ऐसा वैसा कहा है, उसके खिलाफ कार्रवाई की मांग होनी चाहिये. पुलिस में शिकायत दर्ज करायी जानी चाहिये. पुलिस इनकार करे कोर्ट जाना चाहिये. या फिर सड़क पर उतर कर धरना प्रदर्शन ही करना चाहिये, लेकिन वोट डाले जाने का आधार इसी को बना दिया जाये तो फिर तो हो चुका कामकाज.

लेकिन ये क्या हुआ कि घर न हो, अस्पताल न हो और बच्चों की आगे की शिक्षा के लिए आस पास स्कूल न हो, लेकिन अपने नेता का मान रखने के लिए वोट देंगे. इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में गुजरात की एक महिला वोटर का तो यही कहना था.

लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा है, ऐसा करने से नेता का मान तो रह जाएगा, लेकिन न तो घर मिलेगा, न अस्पताल बनेगा और न ही बच्चों की आगे की पढ़ाई का ही कोई इंतजाम हो सकेगा.

अफसोस की बात तो ये है कि बहस एक दायरे में सिमट कर रह गयी है - और ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है.

2015 के दिल्ली चुनाव में बीजेपी ने अरविंद केजरीवाल के गोत्र पर सवाल उठाया था, वो चुनाव जीत गये. 2015 में ही नीतीश कुमार के डीएनए पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही सवाल उठाया था, वो भी चुनाव जीत गये - और 2019 में राहुल गांधी नारा लगाने लगे 'चौकीदार चोर है' प्रधानमंत्री मोदी पहले के मुकाबले ज्यादा बहुमत के साथ सत्ता में लौट आये.

सरकार बन रही है या ट्रैवेल एजेंसी का रजिस्ट्रेशन?

क्या लोगों को वोट इस बात पर देना चाहिये कि अयोध्या में राम मंदिर का दर्शन कराने कौन नेता ले जा रहा है?

गुजरात पहुंच कर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सारे गुजरातियों को अयोध्या ले जाकर राम लला का दर्शन कराने का चुनावी वादा कर रहे हैं. कह रहे हैं कि दिल्ली की ही तरह वो उनको स्टेशन पर छोड़ने भी जाएंगे और जब दर्शन करके लौटेंगे तो रिसीव करने के लिए भी पहले से स्टेशन पर मौजूद रहेंगे.

गजब हाल है - ये चुनाव लड़ा जा रहा है या फिर किसी ट्रेवेल एजेंसी का रजिस्ट्रेशन कराया जा रहा है?

सब कुछ राम भरोसे कैसे चलेगा

बड़े जोर शोर से देश में नोटबंदी लागू की गयी. तमाम तरह के फायदे समझाये गये. आतंकवाद से लेकर काले धन के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक की बातें हुईं, लेकिन अब नोटबंदी का कोई नामलेवा नहीं है. राम मंदिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बन रहा है, लेकिन क्रेडिट ऐसे लिया जाता है जैसे वो भी तीन तलाक और धारा 370 की तरह चुनावी वादा हो - नोटबंदी की बातें तो दूर दूर तक रहीं सुनायी नहीं देतीं.

और अब देखिये कि जब मुद्दा आर्थिक विकास और देश की आर्थिक व्यवस्था पर होनी चाहिये, 5 ट्रिलियन इकनॉमी का क्या हुआ उस पर सवाल पूछा जाना चाहिये - तो मांग की जा रही है कि रुपयों पर किस किस की तस्वीर छापी जानी चाहिये.

क्या वोट देने का आधार ये होना चाहिये कि नोटों पर लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति होनी चाहिये या नहीं?

भविष्य का मतलब अगले जन्म नहीं होता

गुजरात चुनाव में बीजेपी की तरफ से समझाया जा रहा है कि देश को मजबूत बनाने लिए लोग वोट दें. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी गुजरात के लोगों से कह रहे हैं कि वे ये सोच कर वोट न दें कि 5 साल के लिए सरकार बना रहे हैं - बल्कि 25 साल बाद जब देश आजादी का शताब्दी महोत्व मनाये तो देश मजबूत रहे. फिलहाल देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है.

क्या पांच साल के लिए किसी राजनीतिक दल की सरकार इसलिए बनने देनी चाहिये, क्योंकि 25 साल बाद वो देश को मजबूत बनाएगा?

आखिर बीजेपी के 27 साल के शासन के बाद कांग्रेस का जिक्र क्यों होना चाहिये?

ये तो वैसे ही है जैसे बगैर जंगलराज की याद दिलाये बिहार में नीतीश कुमार के लिए एक भी चुनाव जीतना मुश्किल हो जाता है.

मौजूदा दौर की बात क्यों नहीं हो रही है: कोई ये क्यों नहीं बता रहा कि आज का क्या है? ये समझाने की कोशिश क्यों हो रही है कि अभी आप सब कुछ भूल जायें.

आपके पास नौकरी है कि नहीं, आपको शिकायत नहीं होनी चाहिये!

आपके लिए स्वास्थ्य सुविधाएं हैं या नहीं, ध्यान मत दीजिये!

आपके चलने के लिए सड़क है कि नहीं, मत देखिये!

आपको अपने काम के लिए रिश्वत तो नहीं देनी पड़ रही है, परवाह मत कीजिये!

आप बस ऐसी सरकार बनवा दीजिये ताकि 25 साल बाद, आपके बच्चों के लिए देश मजबूत रहे. देश मजबूत रहेगा तो फिर किसी भी चीज की जरूरत नहीं पड़ेगी - बुनियादी चीजों की तो कतई नहीं.

वैसे ये सब कोई नया फॉर्मूला नहीं है... ये सब आजादी के पहले से चला आ रहा है - और लोग हैं कि सपने से निकल ही नहीं पा रहे हैं.

कब तक सपने ही देखते रहेंगे: अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का आंदोलन शुरू करने वालों ने भी एक सपना दिखाया था - सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या अब भी वो सपना सपना नहीं रह गया है?

आजादी मिली तो जवाहरलाल नेहरू ने भी नये और मजबूत भारत का सपना दिखाया था. नेहरू को लेकर बहस कहां जा रही है, भूल जाइये - क्या वास्तव में वैसा कुछ महसूस होता है या फिर यूं ही आंख मूंद कर जैसे मुहर लगाते थे, ईवीएम का बटन भी दबाये चले जा रहे हैं?

नेहरू के बाद प्रधानमंत्री बनने पर इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का सपना दिखाया - गरीबी ने तो खूब तरक्की की, गरीबों का कुछ भी नहीं हुआ. आलम ये है कि आज भी राजनीतिक दल गरीबी के नाम पर वोट मांग लेते हैं.

इंदिरा के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने वाले राजीव गांधी ने भी 21वीं सदी के भारत का सपना दिखाया था - जब तक सपना टूटेगा नहीं हकीकत मालूम कैसे होगी?

प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने भी उदारीकरण के दौर में देश की आर्थिक मजबूती का सपना दिखाया था - और वो सपना भी सपना ही रह गया लगता है.

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इंफ्रास्ट्रक्चर यानी देश की आधारभूत संरचना की खूब बातें की - इंडिया शाइनिंग कैंपेन फेल न हुआ होता तो क्या पता कुछ और भी देखने को मिलता?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो खैर अच्छे दिन के वादे के साथ ही आये थे, लेकिन फिर भी गुजरात का ही चुनाव जीतने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है - 'विकास गांडो थायो छे' कैंपेन बंद तो पांच साल पहले ही हो गया था, लेकिन न तो लोगों का संघर्ष खत्म हुआ, न ही बीजेपी का.

और अब अरविंद केजरीवाल भी 'मेक इंडिया नंबर 1 कैंपेन' चला रहे हैं - बरसों का ट्रैक रिकॉर्ड देखते हुए आप चाहें तो अभी से अंदाजा लगा सकते हैं.

इन्हें भी पढ़ें :

मोदी के रोड शो के बाद गुजरात में डर के आगे बीजेपी की जीत पक्की मान लें

केजरीवाल और मोदी-शाह की राजनीति में अब सिर्फ 'रेवड़ी' भर फर्क बचा है!

पत्नी रिवाबा के प्रचार में जुटे रवींद्र जडेजा क्या 2024 को लेकर 'गंभीर' हैं?

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय