पद्मावती : जिनके लिए लड़ रहे हो वो तो आपस में मौज से रहते थे
इतिहासकार कहते हैं कि मुग़ल ताक़त को खड़ा करने वाले विदेशी मूल के नहीं, बल्कि पूरी तरह भारतीय और अपनी बहादुरी के लिए मशहूर राजपूत, जाट और पठान थे.
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पद्मावती ने एक नयी बहस को जन्म दिया है. लेकिन देश का जो वातावरण है, वो उसे बार-बार हिंदू मुसलमान के भ्रामक विमर्श की तरफ मोड़ने में कामयाब भी हो गया है. इसे लेकर जबरदस्त तनाव अब लोगों की ज़िंदगियों तक पहुंच गया है. पद्मावती को लेकर हिंदू और मुसलमान विमर्श इतना ज्यादा है कि लोग खुद पद्मावती और उस काल के सांप्रदायिक सामंजस्य को भूल रहे हैं. कुछ लोग कह रहे हैं कि राजपूतों ने अपनी बेटियां मुगलों के हवाले की. कुछ लोग उन्हें डर जाने वाला बता रहे हैं. लेकिन इतने सारे विमर्श के बाद में अब इस पूरे झगड़े को अलग नज़रिए से देखना चाहता हूं.
दो चार नहीं 15 से ज्यादा रिश्ते मुगलों और राजपूतों के बीच हुए. इतने रिश्ते न तो भय से बनते हैं न गुलामी से. जाहिर सी बात है कि रिश्ते दो धर्मों के बीच के नहीं थे बल्कि एक वर्ग के बीच में थे. ये रिश्तेदारी दो बड़े खानदानों के बीच थी. राजा का राजा के साथ रिश्ता था. राजा न तो धर्म मानता है न जाति. वो राजघराने को जानता है. अमीर राजा दूसरे धर्म के रजवाड़े को तो शान से बिठाता है, लेकिन अपनी ही जाति और धर्म के व्यक्ति को वे ज़मीन पर बैठने को मज़बूर करता था. रिश्ता हैसियत का था. आज भी वो रिश्ता कायम है. मेवाड़ के राजपूत राजा के पास आम राजपूत आज भी मिलने जाए तो सत्कार नहीं पा सकता.
इतिहास की थोड़ी जानकारी होती तो ये मार-काट नहीं करते
लेकिन राजघरानों के लिए और झूठी जातिगत शान के लिए लोग जान देने को तैयार हैं. इन संदर्भों से देखें तो आपको साफ दिखाई देगा कि दुनिया में दो ही जाति और दो ही धर्म हैं. वो है- गरीबी और अमीरी. सिर्फ शादियों का मामला नहीं है दूसरे मामलों में भी जाति धर्म से ज्यादा ऊंच-नीच का भेद ही खास होता था. लेकिन आगे बढ़ने से पहले आपको शादियों की कुछ नज़ीरें पढ़वा देता हूं. ताकि आप उस समय के जबरदस्त प्रेम भाव, आदर सत्कार, मेल जोल, भाईचारे और जश्नों से लेकर शादियों तक के बेहतरीन रिश्तों की तस्वीर समझ सकें.
आप जान सकेंगे कि उनके लिए हम आम नागरिक थे. वसूली का एक ज़रिया थे और हमारी कमाई से लगान, टैक्स या जजिया वसूलकर ऐश करना उनका अकेला काम था.
सबसे पहले पढें कि राजपूत और मुगलों के रिश्तेदारियों की गवाही देती ये फेहरिस्त...
- जनवरी 1562- राजा भारमल की बेटी से अकबर की शादी (कछवाहा-अंबेर)
– 15 नवंबर 1570- राय कल्याण सिंह की भतीजी से अकबर की शादी (राठौर-बीकानेर)
– 1570- मालदेव की बेटी रुक्मावती का अकबर से विवाह (राठौर-जोधपुर)
– 1573– नगरकोट के राजा जयचंद की बेटी से अकबर की शादी (नगरकोट)
– मार्च 1577- डूंगरपुर के रावल की बेटी से अकबर का विवाह (गहलोत-डूंगरपुर)
– 1581- केशवदास की बेटी की अकबर से शादी (राठौर-मोरता)
– 16 फरवरी, 1584- भगवंत दास की बेटी से राजकुमार सलीम (जहांगीर) की शादी (कछवाहा-आंबेर)
– 1587- जोधपुर के मोटा राजा की बेटी से जहांगीर का विवाह (राठौर-जोधपुर)
– 2 अक्टूबर 1595- रायमल की बेटी से अकबर के बेटे दानियाल का विवाह (राठौर-जोधपुर)
– 28 मई 1608- राजा जगत सिंह की बेटी से जहांगीर की शादी (कछवाहा-आंबेर)
– 1 फरवरी, 1609- रामचंद्र बुंदेला की बेटी से जहांगीर का विवाह (बुंदेला, ओरछा)
– अप्रैल 1624- राजा गजसिंह की बहन से जहांगीर के बेटे राजकुमार परवेज की शादी (राठौर-जोधपुर)
– 1654- राजा अमर सिंह की बेटी से दाराशिकोह के बेटे सुलेमान की शादी (राठौर-नागौर)
– 17 नवंबर 1661- किशनगढ़ के राजा रूपसिंह राठौर की बेटी से औरंगज़ेब के बेटे मो. मुअज़्ज़म की शादी (राठौर-किशनगढ़)
– 5 जुलाई 1678- राजा जयसिंह के बेटे कीरत सिंह की बेटी से औरंगज़ेब के बेटे मो. आज़म की शादी (कछवाहा-आंबेर)
– 30 जुलाई 1681- अमरचंद की बेटी औरंगज़ेब के बेटे कामबख्श की शादी (शेखावत-मनोहरपुर)
बात सिर्फ शादियों और रिश्तेदारियों की होती तो ये तर्क एक बार के लिए कबूल भी किया जा सकता था कि राजपूत डरपोक, मतलबी, मौका परस्त और मुगलों के कदमों में बिछे रहने वाले लोग थे. लेकिन मामला सिर्फ बेटियां सौंपने का नहीं था. बाकायदा मुगलों के दरबार में हिंदू राजपूत अहम ओहदों पर थे. वो राजकाज में जुल्मों सितम से लेकर हंटर बरसाने तक के सारे काम करते थे और बिना हिंदू मुसलमान का भेद किए खाल उधेड़कर कर वसूला करते थे.
1587 में जहांगीर और मोटा राजा की बेटी जगत गोसांई की शादी हुई, जिससे 5 जनवरी 1592 को लाहौर में शाहजहां पैदा हुआ. अकबर ने जन्म के छठे दिन खुशी में उसका नाम खुर्रम (खुशी) रखा. जहांगीर की पत्नी नूरजहां का काफ़ी ज़िक्र होता है. पर शेर के हमले से उन्हें असल में उनकी राजपूत बीवी जगत गोसांईं ने ही बचाया था. तुज़ुक-ए-जहांगीरी के मुताबिक़ उन्होंने पिस्तौल भरकर शेर पर चलाई, जिसके बाद जहांगीर की जान बची. नूरजहां ने इसके बाद ख़ुद शिकार करना सीखा.
यानी शाहजहां के बेटे औरंगज़ेब की दादी एक राजपूत थी. ग़ौरतलब यह भी है कि मुग़लों और राजपूतों के बीच शादियां औरंगज़ेब के समय भी जारी रहीं. ख़ुद औरंगज़ेब की दो पत्नियां हिंदू थीं. और उनसे पैदा हुए बच्चे कई बार बाक़ायदा उत्तराधिकार की जंग में जीते.
इतिहासकार कहते हैं कि मुग़ल ताक़त को खड़ा करने वाले विदेशी मूल के नहीं, बल्कि पूरी तरह भारतीय और अपनी बहादुरी के लिए मशहूर राजपूत, जाट और पठान थे. मुग़ल सेना में पैदल, घुड़सवार और तोपखाना तीनों में कुल 80 फ़ीसदी से ज़्यादा राजपूत, जाट और पठान होते थे और बाक़ी विदेशी मूल के सैनिक. यही नहीं सेना में मनसबदारों को पैदल और सवार जाट, राजपूत या पठान मिलते थे. मिसाल के लिए बादशाह की ओर से इक हज़ारी की पदवी का मतलब था उस मनसबदार को 1000/1000 यानी एक हज़ार पैदल जाट और एक हज़ार घुड़सवार सेना रखने का हक़ था.
चौंकाने वाली बात यह है कि औरंगज़ेब के समय न सिर्फ़ राजपूत मनसबदार बल्कि मराठा मनसबदारों की संख्या दूसरे मुग़ल बादशाहों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा थी. काबुल, कांधार, बर्मा और तिब्बत तक साम्राज्य के विस्तार के लिए अगर मुग़लों को किसी पर सब ज़्यादा यक़ीन था तो वो थे- राजपूत. उस वक्त राजघराने और शाही खानदान एक दूसरे से धार्मिक बातें सीखते और उन पर अमल भी किया करते थे. राजपूतों की बेटियां बाकायदा बादशाहों के फैसले प्रभावित करतीं थीं. बदायूंनी लिखता है कि....
- अकबर ने अपनी हिंदू पत्नियों के कहने पर बीफ़, लहसुन-प्याज़ खाना छोड़ दिया था. 1604 में हमीदा बानो बेग़म की मौत के बाद अकबर ने सिर मुंडवाया था, क्योंकि यह हिंदू रानी की इच्छा थी.
- 1627 में शाहजहां की राठौर पत्नी जोधपुर में 8 दिन सिर्फ़ इसलिए रुकी. ताकि वह अपने पति शाहजहां के लिए ज़रूरी समर्थन जुटा सके.
- 1605 में जहांगीर ने अपनी हिंदू पत्नी की मौत के ग़म में 4 दिन खाना नहीं खाया. तुज़ुक-ए-जहांगीरी में इसका तफ़सील से ज़िक्र है.
मुगलों की ताकत थे राजपूत-
शिवाजी को भारत में हिंदुओं की तरफ से लड़ाई करने वाला सबसे बड़ा ऑइकन माना जाता है. लेकिन शिवाजी को रोकने की औरंगज़ेब की सारी कोशिशें नाकाम हो गईं. तब उस वक़्त के सबसे बड़े मनसबदार और अपने समधी मिर्ज़ा राजा जयसिंह को उसने दक्कन भेजा. जयसिंह ने एक के बाद एक क़िले जीतकर शिवाजी को पीछे हटने को मजबूर किया.
जदुनाथ सरकार ‘शिवाजी एंड हिज़ टाइम्स’ में लिखते हैं कि, जयसिंह ने 11 जून 1665 को पालकी में इंतज़ार कर रहे शिवाजी से सिर्फ इसी शर्त पर मिलना स्वीकार किया कि वह शिवाजी की कोई शर्त नहीं मानेंगे और उन्हें अपने सारे क़िले बिना शर्त मुग़लों को सौंपने होंगे. शिवाजी ने शर्त मानी और औरंगज़ेब के दरबार में आने को मजबूर हुए.
राजकुमार शाह शुजा जब आगरा के तख़्त के लिए बढ़ा, तो उसे रोकने के लिए शाहजहां ने राजकुमार सुलेमान शिकोह के साथ राजा जयसिंह और अनिरुद्ध गौड़ को भेजा. बड़ी ताताद में राजपूतों ने तख़्त की लड़ाई में औरंगज़ेब का साथ दिया. इनमें शुभ करन बुंदेला, भागवत सिंह हाड़ा, मनोहर दास हाड़ा, राजा सारंगम और रघुनाथ राठौर प्रमुख थे. ज़्यादातर राजपूत राजाओं ने तख्त की लड़ाई में शाहजहां और उसके बड़े बेटे दारा शिकोह का विरोध किया था.
मुगलों और राजपूतों में धार्मिक भेद नहीं था-
अगर राजपूत मुगलों के सामने झुक गए होते या मुगलों की धार्मिक अधीनता स्वीकार को होती, तो ये नहीं होता कि मुग़ल शासन का हिस्सा रहे राजपूत कई मंदिर बनवा पाते.
- राजा मानसिंह ने बंगाल में राजमहल नगर, राव करन सिंह ने दक्कन में करनपुरा और रामदास कछवाहा और राम मनोहर ने पंजाब में बाग़ बनवाए.
- मान सिंह ने उड़ीसा में और बीर सिंह बुंदेला ने मथुरा में मंदिर बनवाया. राव करन सिंह ने नासिक के मंदिरों को भारी दान दिया. और ये सभी मुग़ल प्रशासन का हिस्सा थे.
ऐसे में ये मानना कि मामला जाति और धर्म का है सिर्फ बेवकूफी है. ये मामला राजपूतों और मुगलों के सूझबूझ भरे तालमेल और आपसी सामंजस्य का है. आज की भाषा में सोचें तो राजा महाराजा और बादशाहों को अपने राजकाज से मतलब था. आज के नेताओं की तरह धर्म के लिए वो पगलाते नहीं थे.
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