आदित्य ठाकरे: बिना अखाड़े में उतरे कुश्ती नहीं खेली जा सकती
आदित्य ठाकरे ने मुंबई के वर्ली विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने की घोषणा की है. ऐसा पहली बार है जब ‘ठाकरे’ परिवार का कोई सदस्य चुनाव मैदान में उतरेगा. आदित्य ठाकरे का ये फैलसा इसलिए भी चौंकाने वाला है क्योंकि शिवसेना में हमेशा ही एक अलग किस्म की राजनीति की है.
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शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के बेटे, बालासहब ठाकरे के पोते- शिवसेना के नेता आदित्य ठाकरे ने मुंबई के वर्ली विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है. अब पहली बार कोई ‘ठाकरे’ चुनाव मैदान में उतरेगा. वैसे राजनीतिक पार्टी चलाने वाले हर नेता को चुनाव के रास्ते ही सत्ता में पहुचना पड़ता है, लेकिन शिवसेना की बात हमेशा अलग रही है. बालासाहब ठाकरे ने जब शिवसेना की स्थापना की तब वो एक संगठन था. उसे राजनीतिक पार्टी का रूप लेने में वक्त लगा. हां, शिवसेना चुनाव जरुर लड़ती थी लेकिन फिर भी उसका स्वरुप एक संगठन का ही था. किसी ना किसी तरीके से अपना दबदबा या उपद्रव मूल्य बना रहे, इसके अलावा कोई राजनीतिक ढांचा पार्टी का था ही नही. 80 के दशक में जब एक पार्टी के रूप में बालासाहब को ताकत का एहसास होने लगा तब तक उन्हें ये बात भी समझ में आ गई थी कि ‘मातोश्री’ पर बैठकर पार्टी, चुनकर आये विधायकों और अगर सरकार बनती है तो उसे चलाना ज्यादा ठीक है. उनकी छवि के लिये भी. इससे वे सत्ता के लिए किए जाने वाले समझौतों से भी खुद को दूर रख सकेंगे. ऐसा करना बाला साहेब की आदेश देने वाली छवि को सूट नहीं करता था. वे एक ऐसे नेता रहे जो मतदाताओं के लिए हमेशा सड़क पर रहना और विरोधियों को टक्कर देना ज्यादा पसंद करते थे. उन्हें एक ‘आम’ विधायक, सांसद या मंत्री की तरह विरोधियों के साथ तू-तू मैं-मैं पसंद नहीं रही.
आदित्य ठाकरे के रूप में पहली बार कोई ‘ठाकरे’ चुनाव मैदान में उतरेगा
इस रणनीति का बाला साहेब ठाकरे को एक फायदा ये भी था कि जब चाहे तब वो इनसे अलग हो सकते थे और जिम्मेदारी झटक कर कह सकते थे की ये तो उनका फैसला था. इसका इस्तमाल उन्होने कई बार किया. 1995 मे जब पहली बार शिवसेना बीजेपी की सरकार महाराष्ट्र में आई तब उन्होंने साफ कर दिया था कि वो ‘रिमोट कंट्रोल’ से सरकार चलायेंगे और उन्होंने ऐसा किया भी. अपनी ही सरकार के कई फैसलों को उन्होंने मुखपत्र सामना के जरिये निशाना भी बनाया. सरकार चलाते चलाते विपक्ष की भूमिका निभाने का ये अजीबोगरीब तरीका था. इसका खमियाजा भी इस साझा सरकार को भुगतना पड़ा था.
बालासाहब के बाद उद्धव ठाकरे के पास जब बागडोर आई तब कोशिश हुई कि उन्हें पार्टी का मुख्यमंत्रीपद का उम्मीदवार प्रोजेक्ट करे लेकिन वो भी कहीं शिवसेना की पुरानी छवि मे अटके पड़े रहे. हालांकि सत्ता में रहकर विपक्ष की भुमिका निभाने का खेल उन्होंने भी खूब खेला, लेकिन खुद इस मैदान में उतरने की जोखिम वो उठा नहीं पाये. उनके भाई एमएनएस के अधयक्ष राज ठाकरे ने भी चुनाव लड़ने का ऐलान किया था, लेकिन बाद में वो इस भूमिका से ये कहकर पीछे हटे कि चुनाव लड़ना ठाकरे परिवार के ‘जींस’ में ही नहीं है. लेकिन आदित्य इसके लिये तैयार हैं. उन्हें पता है कि अब मैदान के बाहर रहकर जिम्मेदारी नहीं मिल पायेगी. आपको आगे आकर लड़ाई लड़नी होगी. लोग या मतदाता सरकार चलाने का अनुभव देखकर चुनते हैं.
राहुल गांधी को नाकाम राजनेता साबित करने के लिए भाजपाइयों ने इस बात का खूब प्रचार किया था कि उनके पास सरकार चलाने का अनुभव नहीं है. राहुल गांधी ने अपनी छवि को साफ दिखाने की कोशिश में अपनी ही सरकार का बनाया अध्यादेश फाड़ तो दिया, लेकिन सरकार पर आई चुनौती को आढ़ने में वो कामयाब नहीं हुए थे. आदित्य ठाकरे ने इस इतिहास को देखा है, वो नहीं चाहते कि अगर कल सत्ता पाने में उनकी भाजपा के साथ लड़ाई हो तो वो इस बात के लिये कमजोर माने जायें कि उन्हें सरकार मे रहकर सरकार चलाने का अनुभन नहीं है.
लगता है आदित्य ने इस बात को भी समझा है कि शिवसेना अकेली ऐसी क्षेत्रीय पार्टी है जो ताकतवर होने के बावजुद अपने बलबूते सत्ता पर नहीं आ पाई है. बाकी हर वो पार्टी, डीएमके से लेकर वाईएसआर कांग्रेस तक अपने सुप्रीमो को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताकर ही सत्ता में आयी है. उनके पास समय है.
बीजेपी की सहायता से क्यों ना हो, सत्ता में आने का और अनुभव पाने का मौका है उनके पास. जिसे वो हर हाल में लेना चाहते हैं. अपना स्पेशल स्टेटस गंवाकर एक आम विधायक की तरह काम करने की उनकी तैयारी लग रही है. जमाना बदल रहा है, ताकत दिखानी है तो कुश्ती तो खेलनी पड़ेगी और बिना अखाड़े में उतरे कुश्ती नहीं खेली जा सकती. उसके लिये शरीर को धूल-मिट्टी लेगे तो उसकी तैयारी रखनी पड़ेगी.
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