अहमद पटेल के न होने से कांग्रेस पर कितना फर्क पड़ेगा
अहमद पटेल (Ahmed Patel) जैसा टिकाऊ और मजबूत नेता गांधी परिवार (Gandhi family) को अब तक कोई और नहीं मिल सका है - ऐसा नेता कांग्रेस (Congress) के हित में ऐसी सलाह दे जिसे नजरअंदाज करना संभव न हो!
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कांग्रेस (Congress) में अहमद पटेल (Ahmed Patel) की हालिया अहमियत सोनिया गांधी की वजह से रही. जो काम वो सोनिया गांधी का राजनीतिक सचिव बनने के बाद कर रहे थे, वैसे ही काम तब भी करते रहे जब कांग्रेस की कमान राजीव गांधी के हाथ में रही या फिर इंदिरा गांधी के हाथ में. हां, सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष का पद राहुल गांधी को सौंप देने के बाद अहमद पटेल खुद को भी काफी दिनों तक रिटायर होने जैसा ही महसूस करने लगे थे. यही वजह रही कि वो अपने घर पर वक्त गुजारने लगे थे.
सोनिया गांधी के अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर दोबारा काम संभालने के बाद वो फिर से एक्टिव हुए और फिर जल्दी ही अपनी रौ में आ गये थे. राहुल गांधी की ताजपोशी से पहले हुए गुजरात विधानसभा के चुनाव में सोनिया की हिदायत पर अहमद पटेल साये की तरह बने रहे, लेकिन सोनिया गांधी के आराम की मुद्रा में जाते ही वो हाशिये पर पहुंचने जैसा महसूस करने लगे थे. चूंकि सोनिया गांधी ने फिर से कामकाज संभाल लिया था, लिहाजा वो फिर से पुराने अंदाज में काम करने लगे थे.
सवाल खड़ा हो रहा है कि अहमद पटेल की जगह कोई ले पाएगा या नहीं, या फिर वो जगह खाली ही रहेगी. कोई किसी की जगह तो नहीं ले सकता, लेकिन किसी न किसी को ऐसा करना ही पड़ता है, फर्क ये होता है कि अगला उस काम को ठीक वैसे ही कर पाता है या नहीं? फिलहाल गांधी परिवार (Gandhi family) के सामने सबसे बड़ा चैलेंज यही हो गया है.
अहमद पटेल कांग्रेस के ऐसे एक मात्र नेता रहे जिनका दफ्तर सोनिया गांधी के आवास 10 जनपथ में भी था. जरूरी नहीं कि आगे भी ऐसा ही हो. वैसे भी अगर राहुल गांधी के मनमाफिक गांधी परिवार से बाहर का कोई कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर नहीं बैठता तो, जाहिर है वो भी थक हार कर सोनिया गांधी की ही तरह मजबूरी में कांग्रेस को संभालने के लिए दोबारा उस कुर्सी पर बैठ जायें - आगे कुर्सी संभाल पाते हैं या नहीं ये अलग बात है.
संभव था ऐसा होने पर सोनिया गांधी के पीछे हटते ही अहमद पटेल होते तो भी अपनेआप को समेट लेते - क्योंकि वो राहुल गांधी के पसंदीदा नेताओं में शुमार नहीं थे, लेकिन इसका मतलब ये तो बिलकुल नहीं कि अहमद पटेल वाली भूमिका में कोई होगा ही नहीं.
अहमद पटेल बहुत सारे काम कर लेते थे. हर इंसान की क्षमता और काबिलियत अलग होती है, ऐसा भी हो सकता है कि जो काम अकेले अहमद पटेल कर लेते थे उसके लिए कई लोगों को लगाना पड़े. राहुल गांधी ने कमान हाथ में लेने के बाद उनको कांग्रेस का कोषाध्यक्ष बनाया था और ये जिम्मेदारी उनको दोबारा मिली थी और आखिरी पल तक उनके पास ही रही. अब ये काम कौन संभालेगा ये सवाल जरूर खड़ा होगा.
1. कोषाध्यक्ष कौन बनेगा?
राजनीतिक दल के कोषाध्यक्ष का काम किसी अकाउंटेंट जैसा नहीं होता. हिसाब किताब दुरूस्त रहे और बाकी चीजों से कोई मतलब नहीं. कोषाध्यक्ष के कामकाज का दायरा दूसरी तमाम जिम्मेदारियों से अलग और कई मायनों में तो ज्यादा होती है. हिसाब किताब के लिए तो उसे अकाउंटेंट मिलता ही है. कोषाध्यक्ष तो पद का नाम होता है. असली काम तो फंड मैनेजर का होता है, बल्कि चीफ फंड मैनेजर वाला. फंड मैनेजर तो और भी होते हैं.
अहमद पटेल से जुड़े संस्मरणों में एक बात मीडिया में छायी हुई है जो लेखक और पत्रकार रशीद किदवई ने बतायी है. लॉकडाउन के बाद की बात है जब वो अहमद पटेल के आवास, 23, मदर टेरेसा क्रीसेंट मार्ग पर मिलने गये थे. बातचीत के दौरान रशीद किदवई ने सवालिया लहजे में अहमद पटेल को अपना संस्मरण लिखने की सलाद दी और जो जवाब मिला उसी से समझा जा सकता है कि कोषाध्यक्ष का प्रोफाइल क्या होता है. अहमद पटेल का कहना था, "राज मेरे साथ कब्र में दफन हो जाएंगे."
और हो भी गये. वैसे अहमद पटेल के पास जो राज थे वो महज कोषाध्यक्ष वाले ही नहीं थे कि कहां से फंड आया और कहां गया और जो बीच में ही रहा उसका क्या हुआ?
कांग्रेस नेता अश्विनी कुमार ने अपनी किताब के विमोचन के मौके की इस तस्वीर के साथ ही अहमद पटेल को श्रद्धांजलि थी है - अपनों के बीच ऐसे ही होते थे अहमद पटेल
कांग्रेस में अहमद पटेल की जगह लेने वालों की होड़ शुरू हो गयी है. जहां तक कांग्रेस अध्यक्ष के राजनीतिक सचिव का सवाल है, वो तो अपनी जगह है लेकिन कोषाध्यक्ष की जिम्मेदारियों का निर्वहन हर किसी के वश की बात नहीं है.
रेस में कमलनाथ और पी. चिदंबरम का नाम आगे समझा जा रहा है. कमलनाथ का खुद का भी लंबा चौड़ा कारोबार रहा है और उस कम्युनिटी में वो आसानी से फिट भी हो जाते हैं. कमलनाथ अपनी इसी काबिलियत से मध्य प्रदेश में चुनाव जीतने के साथ साथ मुख्यमंत्री बनने और कुछ दिन सरकार चलाने में भी सफल रहे. अब मौजूदा दौर की राजनीति में मोदी-शाह के खिलाफ चुनाव जीतना ही बहुत बड़ी बात है, सरकार चला पाना तो और भी मुश्किल है. ये राज भी कमलनाथ ही अच्छी तरह जानते और समझते होंगे.
कमलनाथ के अलावा जहां तक पी. चिदंबरम की बात है तो वो पेशे से वकील होने के साथ साथ आर्थिक मामलों के भी एक्सपर्ट हैं. पी. चिदंबरम के पक्ष में एक बाद जाती है वो ये कि उनको सोनिया गांधी की ही तरह राहुल गांधी भी पसंद करते हैं. याद कीजिये कोरोना काल में बनी कांग्रेस के 11 सदस्यों वाली कमेटी में अहमद पटेल को नहीं रखा गया था, लेकिन मनमोहन सिंह और राहुल गांधी के बाद उनका ही नाम था.
गांधी परिवार के करीबियों में वैसे तो लंबे समय तक कोषाध्यक्ष रहे मोतीलाल वोरा भी हैं लेकिन उनकी उम्र ज्यादा हो चुकी है. करीबियों में जनार्दन द्विवेदी और अंबिका सोनी का भी नाम है, लेकिन वे काफी दिनों से या कहें कि राहुल काल के प्रभाव के बाद से हाशिये पर भेजे जा चुके हैं.
पुरानी पीढ़ी से इतर देखें तो कनिष्क सिंह, मिलिंद देवड़ा, रणदीप सिंह और जितेंद्र सिंह जैसे नाम मिलते हैं - और उनकी भी कोशिश है कि कैसे गांधी परिवार के बाद समकालीन नेताओं को पछाड़ते हुए अपनी पोजीशन बनायी जाये. रणदीप सिंह सुरजेवाला हाल फिलहाल काफी तरक्की करते देखे गये हैं, लेकिन इसी वजह से उनके विरोधियों की भी तादाद बढ़ने लगी है.
तरक्की के लिए काबिलियत और करीबी होने के साथ साथ अपने नाम पर आम सहमति बनने देने लायक छवि और सहज स्वीकार्यता भी जरूरी होती है - अहमद पटेल अपनी इन्हीं खासियतों की बदौलत ही अपना अलग स्थान बना पाये थे.
2. राजनीतिक सलाहकार की भूमिका में कौन होगा?
अहमद पटेल की जगह लेने की होड़ में दर्जन भर कांग्रेस नेता जुटे हुए हैं. मीडिया रिपोर्ट बताती हैं, दिग्विजय सिंह, अशोक गहलोत और शशि थरूर के साथ साथ नयी पीढ़ी वाले कनिष्क सिंह, रणदीप सुरजेवाला और जितेंद्र सिंह जैसे नेता भी रेस का हिस्सा बने हुए हैं.
काफी दिनों से केसी वेणुगोपाल और अशोक गहलोत कई मामलों में आगे बढ़ कर हिस्सा लेते नजर आते हैं. केसी वेणुगोपाल, फिलहाल कांग्रेस के संगठन महासचिव हैं. ये पद किसी भी राजनीतिक दल में काफी ताकतवर माना जाता है. तमाम मुद्दों पर स्टैंड, नियुक्तियों और नीतियों से जुड़ी चीजें संगठन महासचिव के टेबल से होकर ही गुजरती हैं.
केसी वेणुगोपाल से ठीक पहले अशोक गहलोत ही ये काम संभालते थे. उनसे पहले ये काम जनार्दन द्विवेदी देखा करते थे. थोड़ा बहुत आम चुनाव और उसके बाद के दिनों में भी जनार्दन द्विवेदी को कुछ जिम्मेदारियों में शामिल किया गया था, लेकिन अभी वो पिछली कतार में ही हैं. अशोक गहलोत को राजस्थान की कुर्सी का मोह जयपुर लेकर चला गया है. ऐसा वो न करते तो कुर्सी सचिन पायलट के हाथ लग जाती - और खामियाजा उनके बेटे वैभव गहलोत को भुगतना पड़ता. अपनी ताकत और राजनीति से सचिन पायलट को तो वो ठिकाने लगा ही चुके हैं, लेकिन काम तब तक अधूरा समझा जाएगा जब तक वो अपने बेटे को सूबे की विरासत नहीं सौंप देते. एक बार ऐसा हो गया तो वो फिर से दिल्ली अपनी पुरानी भूमिका में ही शिफ्ट होना चाहेंगे.
2018 के चुनाव में दिग्विजय सिंह काफी सक्रिय रहे और एक तरीके से नर्मदा परिक्रमा के बाद उनकी मुख्यधारा की राजनीति में फिर से वापसी भी हो गयी. भोपाल का चुनाव वो जरूर हार गये लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया को धक्का देकर बीजेपी में पहुंचाने के बाद वो फिर से राज्य सभा पहु्ंच चुके हैं. दिल्ली में आधिकारिक राजनीतिक ठिकाना मिल जाने के बाद एक बार फिर उनको उस जैक की जरूरत है जो फिर से उनको राहुल गांधी का भरोसेमंद बना दे. यूपी के प्रभारी रहते दिग्विजय सिंह कई साल तक राहुल गांधी के सबसे बड़े सलाहकार रहे हैं - और राहुल काल की कांग्रेस में वापसी के साथ ही वो फिर से अपना खोया हुआ पोजीशन हासिल करने की जुगत में लग गये हैं.
केसी वेणुगोपाल फिलहाल राहुल गांधी के भरोसेमंद तो हैं, लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर अहमद पटेल की तरह कार्यकर्ताओं तक पहुंच उनके वश की बात नहीं लगती. ये ठीक है जब कहीं भी संकट आता है तो दिल्ली से भेजे जाने वालों में केसी वेणुगोपाल का नाम आगे रहता है, लेकिन वो कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ पाते. कनिष्क सिंह, राहुल गांधी के मिजाज वाले पढ़े लिखे प्रबंधक हैं और मीडिया में आग बढ़ कर चीजों को रणदीप सुरजेवाला भी काफी दिनों से मैनेज करते रहे हैं, लेकिन सभी की एक सीमा भी है.
रणदीप सुरजेवाला, हाल में बनी कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव को लेकर बनी छह कमेटियों में शामिल किये गये थे. बिहार में भी चुनाव से जुड़ी जिम्मेदारी उनको सौंपी गयी थी - लेकिन अभी तक कहीं भी वो अपनी छाप नहीं छोड़ पाये हैं, सिवा मीडिया में बयान देने के जो हर किसी के समझ में साफ साफ आ सके.
अशोक गहलोत के शब्दों में - अच्छा दिखने से कुछ नहीं होता. अच्छी अंग्रेजी बोलने से कुछ नहीं होता. ये बात अशोक गहलोत ने सचिन पायलट के बारे में कही थी जो उनके जैसे बाकी नेताओं पर स्वाभाविक तौर पर लागू होती है.
3. मोदी-शाह से मोर्चा कौन लेगा?
बहुत लोगों को लगता तो ऐसा ही होगा जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से सीधे सीधे मोर्चा राहुल गांधी ही लेते हैं - लेकिन हकीकत में सब कुछ अलग है. राहुल गांधी सिर्फ बयानबाजी करते हैं. वो भूकंप लाने का दावा करते हैं, लेकिन गले मिल कर आंख भी तो मार देते हैं.
बयानबाजी अपनी जगह है लेकिन असली काम राजनीतिक मोर्चेबंदी होती है. राजनीतिक विरोधी को सही मौके पर पटखनी देनी होती है. सूझ बूझ से और सही फैसले लेकर हर हाल में राजनीतिक हित साधना भी जरूरी होता है - जैसे 2017 में हुआ गुजरात में हुए राज्य सभा के चुनाव के दौरान हुआ. जैसे राजस्थान की उठापटक को हैंडल किया गया. सचिन पायलट को बीजेपी के पाले में जाने से रोक लेना और मध्य प्रदेश का हाल राजस्थान में न होने देना. जैसे राजस्थान में एनसीपी और शिवसेना से एक साथ डील करना और फिर सरकार में हिस्सेदार बन जाना. जैसे झारखंड में सत्ता में हिस्सेदार बनने के लिए पहले से ही गोटी फिट किये रहना. ऐसे बहुतेरे उदाहरण हैं जिनमें अहमद पटेल की सीधी और मुख्य भूमिका रही. गुजरात के राज्य सभा चुनाव में तो वो खुद उम्मीदवार ही थे.
अहमद पटेल की जगह लेने की जो कोई भी कोशिश में होगा उसे ऐसे तमाम मानदंडों पर खरा उतरना होगा - और तब भी वो अहमद पटेल तो नहीं बन पाएगा, लेकिन उनका कुछ न कुछ हिस्सा तो बन ही जाएगा. वैसे भी कांग्रेस को फिलहाल बहुत ज्यादा जरूरत भी नहीं लगती.
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