अकाली दल के रूठ जाने से भाजपा चिंतित भी, संतुष्ट भी!
एनडीए (NDA) से अलग होकर शरोमणि अकाली दल (Shiromani Akali Dal) को क्या नफा नुकसान होगा यह तो वक्त तय करेगा. लेकिन इसका अंदेशा भाजपा (BJP) को काफी पहले ही हो गया था और भाजपा अपनी तैयारियों में पहले से ही व्यस्त है. मौजूदा वक्त में दोनों ही पार्टियों में चिंता है लेकिन किसान आंदोलन (Farmer Protest) ही दोंनो पार्टियों का भविष्य तय करेगा.
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एनडीए (NDA) का सबसे भरोसेमंद हिस्सेदार शिरोमणि अकाली दल (Shiromani Akali Dal) अब एऩडीए से दूर जाने का ऐलान कर चुका है. भाजपा (BJP) और अकाली दल की 23 बरस पुरानी यारी अब रूठ कर टूट चुकी है. हाल ही में संसद के दोनों सदनों में पास हुए किसान बिल (Farm Bill) को लेकर दोनों ही पार्टियों के बीच अनबन देखने को मिल रही थी. इसी नाराज़गी के चलते केन्द्र सरकार में अकाली दल के कोटे से मंत्री रही हरसिमरत कौर बादल (Harsimarat Kaur Badal) ने अपना इस्तीफा भी दे दिया था. अब शिरोमणि अकाली दल की कोर कमेटी ने एनडीए का दामन सार्वजनिक तौर पर छोड़ दिया है. हालांकि अकाली दल का अगला कदम क्या होगा यह तय नहीं है लेकिन भाजपा (BJP) का रुख एकदम साफ है. दरअसल भाजपा को पहले से ही इस बात का पूरा अंदाज़ा था कि अकाली दल कभी भी ऐसा कदम उठा सकती है इसलिए भाजपा ने इसकी तैयारी भी पहले ही कर ली थी. साल 2020 के शुरूआत में ही भाजपा ने अपने पूर्व विधायक अश्विनी शर्मा को पंजाब का प्रदेश अध्यक्ष बनाया था और तब से ही पार्टी का पूरा फोकस राज्य में शहर से लेकर ग्रामीण इलाके तक अपना संगठन मज़बूत करना था.
भाजपा के कई पूर्व विधायक पार्टी से लगातार मांग भी कर ही रहे हैं कि वह बिना गठबंधन के चुनावी मैदान में उतरना चाहते हैं. पार्टी में गठबंधन के खिलाफ एक नहीं बल्कि कई स्वर देखने को मिले और खासकर इसमें बढ़ोतरी तब हुई जब हालिया दिल्ली विधानसभा चुनाव में दोनों दलों के बीच गठबंधन टूटा था. भाजपा आलाकमान भी पंजाब में भाजपा को बिना अकाली दल के समर्थन के मज़बूत स्थिति में देखना चाहता है. इसके लिए हिन्दूवाद का सहारा लिया जा सकता है.
पंजाब में बड़ी संख्या में हिंदू वोटों पर कांग्रेस ने कब्ज़ा कर रखा है जिसको तोड़ने का प्रयास भाजपा शुरू ही कर चुकी है. सन् 1920 में गठित हुई अकाली दल मुख्य तौर पर सिखों की पार्टी मानी जाती है. यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि यह वही अकाली दल है जिसके कुछ सदस्यों ने 1980 के दशक में एक अलग देश खालिस्तान बनाने की मांग का समर्थन किया था.
शिरोमणि अकाली दल के एनडीए से बाहर जाने से भाजपा को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला
हालांकि सन् 1985 में पंजाब समझौते के बाद ये मांग छोड़ दी गई थी. अकाली दल का आधार सिर्फ पंजाब तक ही सीमित है. अकाली दल के साथ भाजपा का गठबंधन 1997 में हुआ था और 1999 के लोकसभा और 2002 के विधानसभा चुनावों में गठबंधन के ख़राब प्रदर्शन के बावजूद समझौता जारी था. सन् 2017 में एक बार फिर इस गठबंधन को हार का सामना करना पड़ा और यह अभी पंजाब विधानसभा में विपक्ष का किरदार अदा कर रहा है.
अब गठबंधन टूटने के बाद दोनों का पंजाब विधानसभा में क्या रोल होगा यह देखना भी दिलचस्प रहेगा. भाजपा और अकाली दल के बीच मतभेद हालिया दिनों में ज़्यादा देखने को मिले हैं. इसकी शुरूआत हुई. दिसंबर 2019 में दोनों दलों के बीच उस समय तनाव पैदा हो गया था जब अकाली दल के प्रमुख और लोकसभा सांसद सुखबीर सिंह बादल ने नागरिकता संशोधन बिल पर संसद में बहस के दौरान पहली बार सार्वजनिक तौर पर एनडीए सरकार पर हमला बोला था.
अकाली दल ने संसद में विधेयक पारित होने का समर्थन तो किया था लेकिन उन्होंने इस बिल में मुसलमानों को बाहर करने के लिए इस बिल की आलोचना की थी. अकाली दल के प्रमुख ने कई मंचों पर इस बात को दोहराया भी, यही वजह रही कि दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अकाली दल से अलग हट चुनाव लड़ा. हालांकि अकाली दल ने चुनाव में भाजपा को बिना शर्त समर्थन तो दिया लेकिन दोनों के बीच खटास तो पड़ ही गई थी.
अब अकाली दल के जाने से भाजपा एनडीए के पुराने साथी के साथ छोड़ने से चिंतित तो है लेकिन हताश नहीं है क्योंकि भाजपा की रणनीति पंजाब में पहले से ही अकेले चुनाव लड़ने की है, मौजूदा वक्त में भाजपा के पास महज तीन ही सीटें हैं लेकिन भाजपा केंद्र की सत्ता पर काबिज है. वह पंजाब में किसानों और हिंदू वोटों पर कब्ज़ा जमाने की पूरी कोशिश में है.
अगर भाजपा अपनी इस रणनीति में कामयाब हो गई तो सबसे गहरा नुकसान भी अकाली दल को ही उठाना पड़ेगा. हाल ही में जो किसान बिल संसद के दोनों सदनों से पास कराया गया है उसका नफा अगर भाजपा किसानों को ठीक तरीके से समझा दे और उसका फायदा अगले कृषि सीज़न में दिख भी जाए तो भाजपा को बहुत अधिक फायदा मिल सकता है.
लेकिन भाजपा को जो भी करना है उसे जल्द करना होगा. किसान आंदोलन को जल्द समाप्त करवाने की कोशिश करनी होगी. इसके लिए किसान संगठन के नेताओं से चर्चा जल्द करनी चाहिए वरना अगर ये आंदोलन पंजाब-हरियाणा से बाहर भी व्यापक तरीके से ज़ोर पकड़ लेगा तो भाजपा को दांव उल्टा भी पड़ सकता है.
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