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Updated: 05 मार्च, 2022 05:24 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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आदर्श आचार संहिता लागू होने से पहले ही अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) भी यूपी में जगह जगह रथयात्रा कर चुके थे. फिर भी चुनाव तारीखों की घोषणा के साथ आयोग ने जब सिर्फ वर्चुअल रैलियों की ही छूट दी तो नाखुश दिखे. गुहार भी लगायी थी कि चुनाव आयोग को संसाधन की कमी वाले छोटे दलों की मदद में कुछ इंतजाम जरूर करना चाहिये.

अखिलेश यादव ने आजादी के आंदोलन में जिन्ना के योगदान का जिक्र करके बहस तो करायी ही, योगी आदित्यनाथ ने भी मौका देख कर मुलायम सिंह यादव को अब्बाजान कह कर समाजवादी पार्टी को निशाना बनाया - और बार बार जोर देकर जिक्र भी किया.

पूरे चुनाव (UP Election 2022) कैंपेन के दौरान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) को बाबा-बाबा बोल कर चिढ़ाने की कोशिश करते रहे - प्रतिक्रिया में योगी आदित्यनाथ भी तमंचावादी पार्टी और गुंडों की पार्टी जैसे तमगों से नवाज रहे थे.

समाजवादी पार्टी नेता ने छवि बचाने के लिए ओमप्रकाश राजभर को कुछ चीजों के लिए बायपास की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश जरूर की, लेकिन बदले में अखिलेश यादव को जो मिला वो भी बेमिसाल रहा - मऊ में राजभर की पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे अब्बास अंसारी ने सरेआम जो ऐलान कर दिया वो कुछ और नहीं बल्कि योगी आदित्यनाथ के दावों पर मुहर लगाने जैसा ही रहा.

ये तो 10 मार्च को ही मालूम होगा कि ममता बनर्जी को बनारस की रैली में बुलाना अखिलेश यादव को छप्परफाड़ कामयाबी दिलाता है या बैकफायर करता है, लेकिन एक बात तो समझ लेनी चाहिये - अखिलेश यादव ने अपने हिस्से के चुनाव नतीजों की पूरी स्क्रिप्ट पहले ही लिख डाली है.

1. उफ, ये गर्मी!

यूपी चुनाव में वोटिंग की शुरुआत पश्चिम से हुई थी - और किसान आंदोलन के चलते बीजेपी नेतृत्व भी अलर्ट मोड में रहा. पश्चिम यूपी की कमान संभाल रहे अमित शाह के नेतृत्व में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ शुरू से ही आक्रामक मूड में देखे गये - और कैराना में पलायन के मुद्दे पर भी अखिलेश यादव से अच्छी खासी तकरार हो गयी थी.

akhilesh yadavयूपी चुनाव के नजीते जो भी आयें, अपने हिस्से की जिम्मेदारी तो अखिलेश यादव को लेनी ही होगी - EVM पर ठीकरा फोड़ने से कुछ नहीं होने वाला है.

जैसे जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आती गयी, योगी आदित्यनाथ पूरे फॉर्म में आ चुके थे. रैलियों में योगी के बयान और ट्विटर पर चुन चुन कर लिखे गये शब्द एक से बढ़ कर एक तीखे हो रहे थे. तभी एक दिन योगी आदित्यनाथ ने ट्विटर पर लिखा 10 मार्च के बाद गर्मी शांत हो जाएगी. अपने ट्वीट में योगी आदित्यनाथ ने तमंचावादी पार्टी का जिक्र किया था, जिसका आशय समाजवादी पार्टी से रहा.

योगी आदित्यनाथ के ट्वीट पर अखिलेश यादव को तो रिएक्ट करना ही था, बोले - 'वो मुख्यमंत्री हैं, कंप्रेसर नहीं.' फिर दोनों तरफ से बयानबाजी शुरू हो गयी. अखिलेश यादव ने अपनी बात को फिर से सामने रखा. थोड़ा समझाते हुए. बोले, 'जब हमने उनको कम्प्रेसर कहा... तो वो समझे कम-प्रेशर … बाबा जी गलत समझ रहे हैं… सच तो ये है कि ऐतिहासिक हार के डर से वो बहुत प्रेशर में हैं.'

आरोप-प्रत्यारोप के दौरान ये महज चुनावी माहौल की राजनीतिक बयानबाजी लगी, लेकिन चुनाव का आखिरी दौर आते आते मऊ विधानसभा क्षेत्र से सपा गठबंधन के उम्मीदवार अब्बास अंसारी ने तो योगी आदित्यनाथ की बातों को जैसे सही साबित करने की ठान ली हो.

माफिया डॉन मुख्तार अंसारी के बेटे अब्बास को टिकट देने के लांछन से बचने के लिए अखिलेश यादव ने गठबंधन साथी ओमप्रकाश राजभर के कंधे का इस्तेमाल किया है - ताकि तकनीकी आधार पर छवि को बचाये रखने की गुंजाइश बची रहे - लेकिन अब्बास है तो मुख्तार का ही बेटा, मन की बात सरेआम कर दी.

एक वायरल वीडियो में अब्बास ये कहते सुना जा रहा है, 'समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव जी से कहकर आया हूं... छह महीने तक किसी की ट्रांसफर-पोस्टिंग नहीं होगी भइया... जो यहां है, यहीं रहेगा... पहले हिसाब किताब होगा, उसके बाद उनके जाने के सर्टिफिकेट पर मुहर लगाया जाएगा.'

ये आलम तब है जब चुनाव के नतीजे भी नहीं आये हैं. वैसे भी समाजवादी पार्टी की सरकार के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए अब्बास की बातों पर यकीन न करने का कोई कारण भी नहीं बनता. जब मुलायम सिंह यादव यूपी के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, बनारस में डिप्टी एसपी रहे शैलेंद्र सिंह को मजबूर पुलिस सेवा से इस्तीफा तो देना ही पड़ा, तत्कालीन सरकार से टकराने के बदले जेल तक जाना पड़ा था. असल में एलएमजी खरीदने को लेकर शैलेंद्र सिंह, मुख्तार अंसारी पर पोटा लगाना चाहते थे.

2. रोड शो में भी 'हल्ला बोल'

यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोनों ही एक ही दिन वाराणसी में रोड शो किये. समय जरूर थोड़ा आगे पीछे रहा. दोनों रोड शो के इलाके भी टारगेट वोटर के हिसाब से तय किये गये थे - हालांकि, दोनों रोड शो में एक बड़ा फर्क भी महसूस किया गया.

मोदी की ही तरह अखिलेश यादव के रोड शो में भी काफी भीड़ दिखी और जम कर नारेबाजी भी हो रही थी, 'काशी की पुकार है, आ रही सपा सरकार है.'

कार्यकर्ताओं के जोश की बात करें तो एक से बढ़ कर एक नजर आ रहे थे, लेकिन एक तरफ मोदी के रोड शो में जहां अनुशासन पर जोर दिखा - अखिलेश यादव के साथ तो समाजवादी पार्टी कार्यकर्ता बिलकुल 'हल्ला बोल' वाले अंदाज में दिखे.

अपने पूरे रंग में दिखे समाजवादी कार्यकर्ताओं ने जगह जगह पुलिस की बैरिकेडिंग तोड़ दी और उनके उत्पात से किसी का मोबाइल टूटा तो किसी का कैमरा हाथ से छूट कर जमीन पर जा गिरा. हालत ये हो गयी थी कि समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता खूब मनमर्जी कर रहे थे और जिधर जी करता उछल कूद मचाते रहे - जिसे बचना था वो अपने सामान की स्वयं सुरक्षा वाले मोड में चला गया था. कोई चारा भी न था.

3. बोलो जिन्ना जिंदाबाद

चुनावों में मोहम्मद अली जिन्ना का नाम तो कहीं न कहीं से जिन्न की तरह निकल ही आता है, इस बार ये बीड़ा अखिलेश यादव ने ही उठाया था. अखिलेश यादव ने अपनी तरफ से बयान तो ऐसे दिया था जिसमें जिन्ना का जिक्र बड़े ही सजावटी तरीके से किया गया था.

अखिलेश यादव ने अपने बयान की रचना भी 'अश्वत्थामा मरौ नरो वा कुञ्जरो' वाली स्टाइल में किया था, लेकिन मकसद तो मुद्दा बनाना ही रहा. मकसद तो मैसेज अपने वोट बैंक तक पहुंचाने का ही रहा. मकसद तो वोटो का ध्रुवीकरण ही रहा - अखिलेश यादव को जो भी फायदा हुआ हो, योगी आदित्यनाथ और बीजेपी नेताओं ने भी जिन्ना के उछाले गये मुद्दे का भरपूर फायदा उठाया.

एक चुनावी रैली में अखिलेश यादव ने कहा, 'सरदार पटेल जी... राष्ट्रपिता महात्मा गांधी... जवाहर लाल नेहरू... जिन्ना एक ही संस्था में पढ़ कर के बैरिस्टर बनकर आये थे... एक ही जगह पर पढ़ाई लिखाई की उन्होंने... वो बैरिस्टर बने... उन्होंने आजादी दिलाई... संघर्ष करना पड़ा हो तो वो पीछे नहीं हटे.'

अखिलेश यादव के बयान पर जब बीजेपी ने शोर मचाना शुरू किया तो वो इतिहास पढ़ने की सलाह देने लगे, लेकिन रही सही कसर पूरी कर दी उनके चुनावी गठबंधन साथी, ओमप्रकाश राजभर ने, 'अगर जिन्ना को भारत का पहला प्रधानमंत्री बनाया गया होता तो देश का विभाजन नहीं होता.'

4. ममता को दे डाला अपने हिस्से का मंच

जैसे मुलायम सिंह यावद शुरू से आखिर तक 2017 में समाजवादी पार्टी के कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन के खिलाफ थे, ममता बनर्जी को अखिलेश यादव के साथ बनारस ले जाने का भी विरोध ही करते - लेकिन उनकी तो कोई सुनता नहीं. बेटा भले न सुने लेकिन अखिलेश यादव के लिए वोट मांगने मुलायम सिंह करहल के चुनावी मैदान में भी पहुंच गये थे.

देखने में तो यही आया कि ममता बनर्जी ने समाजवादी पार्टी के मंच का तृणमूल कांग्रेस के प्रचार प्रसार में भरपूर इस्तेमाल कर लिया. अखिलेश के लिए वोट जरूर मांगा लेकिन ये याद दिलाना नहीं भूलीं कि समाजवादी पार्टी को वोट देने का फायदा होगा कि 2024 में बीजेपी यूपी से बाहर हो जाएगी - और यूपी से बाहर होने का मतलब केंद्र की सत्ता से भी.

5. बाबा बोले तो...

अखिलेश यादव और योगी आदित्यनाथ में पूरे चुनाव के दौरान वार और पलटवार होते रहे - बीजेपी नेता जहां अखिलेश यादव के शासन में आतंकवादियों को छोड़ने और कार्यकर्ताओं की गुड़ई के किस्से गढ़ गढ़ कर सुनाते रहे, समाजवादी पार्टी नेता योगी आदित्यनाथ को अनाड़ी साबित करने में लगे रहे.

अखिलेश यादव करीब करीब हर रैली में लोगों को बताते रहे, बाबा को कंप्यूटर चलाने नहीं आता - और फिर सवाल पूछते, 'योगी चाहिये या योग्य मुख्यमंत्री चाहिये?'

हमेशा ही देखा गया है कि निजी हमले निशाने पर आये नेता के समर्थकों में सहानुभूति की लहर पैदा कर देते हैं और वोटों का ध्रुवीकरण सांप्रदायिकता को भी मात दे देता है. जाहिर है अखिलेश यादव ने सब सोच समझ कर ही किया होगा.

6. मायावती पर मुलायम अखिलेश

योगी आदित्यनाथ की ही तरह मायावती भी चुनाव के दौरान अखिलेश यादव के खिलाफ आक्रामक रुख अख्तियार किये रहीं, लेकिन अखिलेश यादव, मायवती के साथ योगी आदित्यनाथ से बिलकुल तरीके से पेश आये. तब भी जबकि सूबे की कई सीटों पर साफ साफ देखा गया कि कैसे मायावती ऐसे उम्मीदवार उतार रही हैं जो बीजेपी कैंडीडेट की जीत में मददगार साबित हो सकते हैं.

लेकिन अखिलेश यादव हमेशा ही मायावती को लेकर संयम बरतते देख गये. बल्कि वो तो जगह जगह मायावती से साथ आने की भी अपील करते रहे. कहते रहे, अंबेडकरवादियों को भी समाजावादियों के साथ आ जाना चाहिये ताकि मिल कर बीजेपी को हराया जा सके.

ऐसा करके अखिलेश यादव की कोशिश गैर-जाटव दलित वोटों को अपने पक्ष में करने की लगती है. साथ ही, गैर-यादव ओबीसी वोटों को भी अपनी तरफ खींचने की भी कोशिश हो सकती है - हालांकि, दोनों ही वोट बैंक पर बीजेपी की निगाह टिकी रही और अपने उम्मीदवार भी पार्टी ने उसी हिसाब से उतारे हैं.

7. जयंत का साथ पसंद आया

जैसे 2017 में अखिलेश यादव को चुनावों के नतीजे आने तक राहुल गांधी का साथ पसंद आया था, इस बार कांग्रेस नेता की जगह पहले से ही आरएलडी नेता जयंत चौधरी ने ले रखी थी. पश्चिम यूपी से लेकर बनारस तक चुनावी रैलियों के मंच पर दोनों साथ साथ नजर आये.

बस यही एक काम ऐसा लगता है जो पूरी तरह अखिलेश यादव के पक्ष में रहने वाला है - बाकी तो जनता मालिक है!

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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