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Updated: 05 फरवरी, 2022 04:03 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने फिर से अंबेडकरवादियों का रुख किया है. चुनाव कैंपेन के दौरान वो जगह जगह लोहियावादियों और अंबेडकरवादियों को साथ आने की बात कर रहे हैं, ताकि यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सत्ता में लौटने से रोका जा सके - और ये बात खुल कर वो कह भी रहे हैं.

अखिलेश यादव ने जब से राजनीतिक-होश संभाला है, तभी से वो समाजवादी पार्टी और बीएसपी की ज्वाइंट पॉलिटिक्स यानी साथ मिल कर चुनाव लड़ने के पक्षधर रहे हैं. बीच में, 2017 में जरूर वो कहा करते थे कि एक बार साइकिल को हाथ का सपोर्ट मिल जाये तो रफ्तार पकड़ ले. साथ तो मिला, लेकिन रफ्तार पकड़ने की जगह चक्का ही जाम हो गया.

समाजवादी पार्टी नेता की अंबेडकरवादियों से साथ आने की अपील नये सिरे से ऐसे दौर में सुनने को मिल रही है, जब मायावती (Mayawati) गठबंधन तोड़ने के बाद ज्यादा ही आक्रामक हो गयी हैं - और भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद के साथ भी गठबंधन भी नहीं हो सका है.

गठबंधन की कोशिशें नाकाम हो जाने के बाद चंद्रशेखर आजाद ने अखिलेश यादव पर अपना अपमान करने का आरोप लगाया था - और कहने लगे थे कि समाजवादी पार्टी के नेता को दलितों की जरूरत नहीं लगती.

चंद्रशेखर के तीखे तेवरों के बावजूद अखिलेश यादव संयम बरतते देखे गये - बाद के चार-पांच दिनों में लगातार किसी न किसी बहाने चंद्रशेखर के साथ गठबंधन का जिक्र जरूर करते रहे. कोशिश ऐसी लगती जैसे सफाई दे रहे हों, गठबंधन न होने में उनकी कोई गलती नहीं है और ऐसा न हो पाने का अफसोस भी है.

दो विरोधी दलों का कॉमन एजेंडा दिलचस्प है: कभी खुद तो कभी प्रवक्ता टाइप उनके गठबंधन साथी ओम प्रकाश राजभर की तरफ से ये भी समझाने की कोशिश होती कि स्कोप खत्म नहीं हुआ है - और गठबंधन कभी भी हो सकता है, बशर्ते, पहले से लागू शर्तें चंद्रशेखर आजाद मानने को तैयार हों. अखिलेश और राजभर दोनों की तरफ से ये भी बताने की कोशिश हुई कि गठबंधन के तहत चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी के खाते में दो सीटें ट्रांसफर होने को थीं, तभी मामला रुक गया.

जब दलित विरोधी होने के चंद्रशेखर के इल्जाम को लेकर पूछा गया तो अखिलेश बोले, समाजवादी और अंबेडकरवादी साथ-साथ चलते हैं... दोनों कभी विरोधी नहीं हो सकते. फिर जोर देकर कहते, समाजवादी पार्टी हमेशा दलितों का सम्मान करती रही है और वो बाबा साहेब अंबेडकर के रास्ते पर चलती है.

फिर बीजेपी को लेकर बताते कि वो लोकतंत्र को, संविधान को खत्म करने का काम कर रही है, लिहाजा, 'मैं कह चुका हूं कि समाजवादी और अंबेडकरवादियों को साथ आकर ये चुनाव लड़ना चाहिये.

ये बातें अखिलेश यादव ने बुलंदशहर में गठबंधन साथी आरएलडी नेता जयंत चौधरी के साथ प्रेस कांफ्रेंस में भी दोहरायी, जब मीडिया ने मायावती के समाजवादी पार्टी के प्रति कड़े रुख को लेकर सवाल पूछा.

अखिलेश यादव का ये अंदाज कुछ कुछ वैसा ही लग रहा है जैसा हाल ही में बीजेपी नेता अमित शाह ने जयंत चौधरी को लेकर हाव भाव दिखाया था. तो क्या अखिलेश यादव भी मायावती के साथ वैसे ही पेश आ रहे हैं जैसा अमित शाह (Amit Shah) ने जयंत चौधरी लेकर बीजेपी के इरादे का इजहार किया है - और क्या दोनों ही नेताओं के बयानों एक जैसा ही डर और एक जैसा ही मकसद नजर आ रहा है?

अमित शाह के रास्ते पर अखिलेश यादव

दिल्ली में जाट नेताओं की बैठक में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था, 'जयंत चौधरी गलत संगत में चले गये हैं...' और चाहते थे कि जाट समुदाय के लोग आरएलडी नेता को अपनी तरफ से समझायें बुझायें और बतायें कि बीजेपी के साथ जाना समाज के लिए समाजवादी पार्टी के मुकाबले फायदेमंद रहेगा.

akhilesh, amit shahअखिलेश यादव को मायावती ने मजबूर किया है या अमित शाह की राजनीति पसंद आने लगी है?

जयंत चौधरी के बीजेपी के साथ होने से फर्क भले न पड़े, लेकिन अमित शाह यही चाह रहे थे कि कृषि कानूनों की वापसी के बाद बीजेपी के प्रति जाटों की बची खुची नाराजगी भी खत्म हो जाये. ये मान कर कि अब तो आरएलडी बीजेपी के साथ आने से रही, अमित शाह ने ये भी साफ साफ बोल दिया कि चुनाव बाद भी जयंत चौधरी के बीजेपी के साथ आने की संभावना भी खत्म नहीं हुई है.

जयंत चौधरी ने ऐसी संभावनाओं को तत्काल प्रभाव से खारिज करते हुए ट्विटर पर लिखा, देश के बड़े नेता मेरी फिक्र कर रहे हैं... इसका मतलब है मैं ठीक ही कर रहा हूं.

अंबेडकरवादियों से अखिलेश यादव का आशय मायावती से हो या फिर चंद्रशेखर आजाद से - लेकिन ये तो साफ है, अमित शाह की तरह उनकी भी कोशिश यही है कि कोई साथ आये या नहीं आये, लेकिन वोटर ऐसा न सोचे कि उनके नेता का अपमान हो रहा है.

मायावती के प्रति 'मुलायम' हैं अखिलेश: बुलंदशहर वाली प्रेस कांफ्रेंस में अखिलेश यादव का कहना था, अगर लोकतंत्र और संविधान नहीं बचेगा तो सोचो हमारे अधिकारों का क्या होगा?

पत्रकारों के सवालों पर अखिलेश यादव बोले, 'मैं फिर अपील करता हूं कि हम सब बहुरंगी लोग हैं... लाल रंग हमारे साथ है... हरा, सफेद, नीला... हम चाहते हैं कि अंबेडकरवादी भी साथ आयें और इस लड़ाई को मजबूत करें.'

जब यही सवाल एक टीवी चैनल के प्रोग्राम में मायावती का नाम लेकर पूछा गया तो अखिलेश यादव खुल कर कहने लगे, 'ये आशीर्वाद दें इस बार... पिछली बार पूरा सहयोग किया मैंने... जितना सहयोग हो सकता है समाजवादियों ने किया - और इस बार मैं अपील करता हूं कि अंबेडकरवादी और समाजवादी मिलकर बीजेपी का सफाया करें.'

मायावती बहुत पहले ही कह चुकीं हैं और बीएसपी के प्रवक्ता भी वही बात दोहरा रहे हैं - बसपा अकेले चुनाव लड़ रही है और उसमें कोई तब्दीली नहीं होने जा रही है. अखिलेश यादव की अपील को लेकर बीएसपी प्रवक्ता कह रहे हैं कि बैसाखी की तलाश उनको ही रहती है जो कमजोर होता है - जाहिर है ऐसा वे अखिलेश यादव के लिए ही कह रहे हैं.

टीवी कार्यक्रम में अखिलेश यादव के साफ साफ बोल देने के बाद भी समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता इस बात से इनकार कर रहे हैं कि उनके नेता के बयान का मायावती या बीएसपी से कोई कनेक्शन है. समाजवादी पार्टी नेता राजेंद्र चौधरी भी बीएसपी प्रवक्ता की ही तरह फिर से सपा-बसपा गठबंधन की किसी भी संभावना को खारिज करते हैं. अखिलेश यादव के बयान की व्याख्या करते हुए कहते हैं, जो लोग बाबा साहेब अंबेडकर को मानते हैं और बीएसपी को पसंद नहीं करते वे समाजवादी पार्टी के साथ जरूर जुड़ जायें.

मायावती का स्टैंड भी जयंत चौधरी जैसा है

अखिलेश यादव की अपीलों के बावजूद मायावती की सियासी सेहत पर उनकी बातों का कोई फर्क नहीं पड़ रहा है - 2 फरवरी को मायावती ने आगरा में रैली की थी, 3 फरवरी को गाजियाबाद और 4 फरवरी को अमरोहा के दौरे पर रहीं, लेकिन हर जगह बीएसपी नेता का तेवर एक जैसा ही देखने में आया.

आगरा की रैली में मायावती ने समाजवादी पार्टी को भी कांग्रेस की ही तरह दलित विरोधी राजनीतिक दल के रूप में पेश किया. अपने वोटर से मायावती का कहना था, 'याद रखना... मुजफ्फरनगर में दंगे इसीलिए हुए क्योंकि समाजवादी पार्टी की सरकार स्थिति को ठीक से संभाल न सकी.'

मायावती अलग अलग तरीके से समाजवादी पार्टी पर हमला बोल रही हैं. वो शिद्दत से समझाती हैं कि समाजवादी सरकार में दलितों और अति-पिछड़ों के साथ सौतेला व्यहार किया गया था.

अपने बिजनौर के सांसद होने के दौर का किस्सा सुनाते हुए मायावती कहती हैं कि उनके इलाके में 1989 में दंगे हुए तो भी वो नहीं जा सकीं. मायावती उसकी वजह भी समझाती हैं - साफ साफ शब्दों में समझाती हैं कि तब बिजनौर का कलेक्टर यादव समाज का था - और बीएसपी नेता को रास्ते में ही रोक दिया गया.

एक वाकया सुना कर मायावती अपने वोटर को बहुत कुछ समझा देती हैं. मतलब, समाजवादी पार्टी की सरकार होगी तो अफसर यादव होंगे. दबदबा यादवों का होगा. सरकार में ख्याल भी यादवों का ही रखा जाएगा - और गैर-यादव ओबीसी के साथ भी वैसा ही सलूक होगा जैसा दलितों के साथ स्वाभाविक तौर पर होता आया है.

लड़ाई तो वोट बैंक की ही है

अखिलेश यादव चाहते हैं, जहां कहीं भी संभव हो समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को दलितों का वोट जातीय आधार पर तो मिल ही जाये. अगर सपा उम्मीदवार भी दलित समुदाय से ही हो. बहुत ज्यादा न सही तो कम से कम गैर-जाटव दलित वोटर तो नाराज न रहे. नजर तो बीजेपी और कांग्रेस की भी उस वोटर पर है.

एक और लड़ाई मुस्लिम वोट बैंक को लेकर भी है. दावेदार तो और भी हैं, लेकिन अखिलेश यादव और मायावती आपस में ही मुस्लिम वोटों को लेकर जूझ रहे हैं. समाजवादी पार्टी तो मुस्लिम-यादव गठजोड़ की घोषित राजनीति करती ही है, मायावती के उम्मीदवारों की सूची देख कर भी ऐसा ही लगता है.

मायावती ने जिन 220 उम्मीदवारों की सूची अब तक जारी की है उनमें 85 मुस्लिम समुदाय से हैं - और असदुद्दीन ओवैसी ने भी 100 सीटों पर लड़ने की तैयारी कर रखी है. फिर तो AIMIM के उम्मीदवारों में भी कम से कम इतने मुस्लिम होंगे ही.

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी तो सीएए विरोध प्रदर्शनों के वक्त से ही मुस्लिम घरों का दौरा करती रही हैं. निश्चित तौर पर अखिलेश यादव को को लगता होगा कि मुस्लिम वोटों के चार चार दावेदार हुए तो वोट बैंक बंट जाएगा - और बीजेपी फायदे में रहेगी.

सर्वे में तो अभी तक बीएसपी को समाजवादी पार्टी से काफी पीछे ही पाया गया है, लेकिन अगर दलित और मुस्लिम वोटों के बूते मायावती जैसे तैसे ज्यादा सीटें हासिल करने में कामयाब रहती हैं तो मान कर चलना होगा नुकसान तो समाजवादी पार्टी का ही होगा - और फिर फायदे में बीजेपी ही रहेगी.

मायावती का के चुनाव कैंपेन में जोर भी उन्हीं इलाकों पर है जहां दलितों के साथ साथ मुस्लिम आबादी भी अच्छी खासी तादाद में हो. सिर्फ दलित और गैर यादव ओबीसी ही नहीं, ऐसा लगता है अखिलेश यादव के मन में मुस्लिम वोटों को लेकर भी उतना ही डर लग रहा है - तभी तो बीजेपी को शिकस्त देने के लिए अमित शाह की रणनीति की ही कॉपी कर रहे हैं.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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