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Updated: 05 जनवरी, 2017 09:07 PM
आलोक रंजन
आलोक रंजन
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"विकास पुरुष" इमेज की बेहतर ब्रांडिंग और मार्केटिंग करते हुए नरेंद्र मोदी 2014 में भारत के प्रधान मंत्री बने थे. उन्होंने लोगों के सामने जो मॉडल प्रस्तुत किया, वो था गुजरात का बेहद मजबूत बेहतर डेवलपमेंट हब. वो लोगों में ये भरोसा दिलाने में सफल रहे कि अगर वो भारत के प्रधानमंत्री बनते हैं तो भारत का विकास भी गुजरात की तर्ज पर ही होगा. प्रधानमंत्री बनने से पहले वो गुजरात के ही मुख्यमंत्री थे. उन्होंने जो विकास की परिभाषा लोगों के सामने रखी वो उनके पक्ष में रही और जिसके फलस्वरूप लोकसभा में बीजेपी भारी बहुमत से विजयी हुई थी. प्रधानमंत्री बनने के बाद भी मोदी का एजेंडा बदला नहीं है. वे जहां भी भाषण देते है वहां भारत के विकास से सम्बंधित बातें जरूर होती हैं.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अब सत्ता पाने के लिए नरेंद्र मोदी के राह पर ही चल पड़े है. जहां एक ओर वो कहते हैं कि समाजवादी पार्टी प्रदेश में समाज के सभी वर्ग, चाहे किसी भी धर्म का हो उनके उत्थान के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगी, वहीं दूसरी और इलेक्शन से पहले अपनी पार्टी का तमाम फोकस वो उत्तर प्रदेश की आधारिक संरचना का विकास और टेक्नोलॉजिकल उन्नति के लिए लगा दिया. छात्रों को लैपटॉप बांटना, लखनऊ में मेट्रो की स्थापना करना आदि कई कार्य उन्होंने किया और इसका मकसद ये था की युवाओं और नौजवानों को समाजवादी पार्टी के तरफ झुकाया जा सके. शायद इसमें वो कुछ हद तक सफल भी हो रहे हैं. 2014 लोकसभा चुनाव में युवाओं का मत मोदी को ही गया था.

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 नरेंद्र मोदी के राह पर अखिलेश

1992 में समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह यादव की लीडरशिप में उभरी थी तो इसके पीछे कहानी ये रची गयी थी की ये पार्टी दलितों और मुस्लिमों की जरूरतों का ख्याल रखेगी. बाबरी मस्जिद से ठीक पहले स्थापित की गयी इस पार्टी ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी अलग छवि बनाई है. लेकिन 2013 मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक दंगो के बाद मुस्लिम इस पार्टी से कटने लगे हैं. इस कम्युनिटी के लोगों ने तो अखिलेश पर ये आरोप तक लगाए हैं कि उन्होंने उनकी आवाज़ की अनसुनी की है. समाजवादी पार्टी की इमेज को इससे झटका तो लगा ही है. मोदी की ही भांति उन्होंने दंगो के दाग से आगे बढ़ते हुए अपना सारा ध्यान प्रदेश की आर्थिक प्रगति में लगा दिया. विकास की आंधी का उन्होंने ऐसा चोला थामा कि दंगो के बाद जिन्हें कमजोर मुख्यमंत्री की संज्ञा दी जाती थी आज उनके विकास के कार्यों की सराहना की जाती हैं.

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 अपना सारा ध्यान प्रदेश की आर्थिक प्रगति में लगाया

अपने पिता मुलायम सिंह यादव और चाचा शिवपाल यादव के साये से उभर कर अब वो अलग राह पर चल पड़े हैं. लोग अब उन्हें सीरियस राजनेता के रूप में लेने लगे हैं, जिनका एजेंडा बिलकुल अलग हैं. जहां विकास का पैमाना सर्वापरि है और जहां चाटुकारों और अपराधियों की कोई जगह नहीं हैं. एक तरह से मोदी की ही तरह उन्होंने पार्टी में अपनी मौजूदगी को मजबूत किया है. परिणाम सबके सामने है, समाजवादी पार्टी की टूट के बाद अधिकतर विधायक, सांसद और एमएलसी उन्हें ही सपोर्ट कर रहे हैं.

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 अधिकतर विधायक, सांसद और एमएलसी अखिलेश को ही सपोर्ट कर रहे हैं

मोदी की ही तरह अखिलेश यादव ने भी इलेक्शन डेट ऐलान होने से पहले अपने उपलब्धियों को गिनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इस पब्लिसिटी ड्राइव में उन्होंने अखबार, टेलीविज़न, सोशल मीडिया, विज्ञापन, रेडियो और बिलबोर्ड आदि सभी माध्यम का बखूबी इस्तेमाल किया है. मोदी जिस तरह ट्विटर का इस्तेमाल पब्लिक से इंटरैक्शन और सरकार के एजेंडा को बढ़ाने के लिए करते हैं, उसी तरह अखिलेश यादव भी फेसबुक में 'टॉक टू योर सीऍम' कैंपेन चलाते हैं.  

नरेंद्र मोदी और अखिलेश यादव दोनों का राजनीतिक और फॅमिली बैकग्राउंड अलग-अलग है. एक चाय विक्रेता का बेटा है तो दूसरा राजनीतिक घराने से सम्बन्ध रखता है. लेकिन दोनों को देश का नब्ज टटोलने में महारथ हासिल है. दोनों में युवाओं की पकड़ है, उनका पोलिटिकल एजेंडा का बेस विकास पर आधारित है, जिससे टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल अधिक से अधिक हो.

लेखक

आलोक रंजन आलोक रंजन @alok.ranjan.92754

लेखक आज तक में सीनियर प्रोड्यूसर हैं.

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