क्या अखिलेश यादव, वीपी सिंह के 'जादुई लिफ़ाफ़े' जैसा करिश्मा 'लाल पोटली' से दोहरा पा रहे हैं?
अखिलेश यादव आजकल जेब में एक लाल पोटली रखकर चल रहे हैं. यह पश्चिम के लिए उनकी रणनीति है. वे इसके बहाने आंदोलन के वक्त किसानों के उत्पीड़न का मुद्दा जिंदा रखने की कोशिश में लगे हैं. यह बोफोर्स के वक्त वीपी सिंह के लिफाफा एपिसोड की तरह दिखता है.
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मुद्दों को जनता के दिमाग में बिठाए रखने के लिए नेता ना जाने क्या-क्या करते हैं. यूपी विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव एक लाल पोटली जेब में लेकर टहल रहे हैं. मौका मिलने पर उसे बाहर निकालकर दिखाना नहीं भूलते. हालांकि लाल पोटली में कोई रहस्य नहीं है. अखिलेश को भरोसा है कि इसके सहारे पश्चिम के अभेद्य दरवाजे को भेदकर लखनऊ की सत्ता पर काबिज होंगे. उधर, पश्चिम के किले को बचाने के लिए ऐन मौके पर अमित शाह की अगुआई में भाजपा की ओर से जाटों को लुभाने के लिए जिस मोहरे को आगे किया गया है उसने ना सिर्फ अखिलेश बल्कि जयंत चौधरी की भी चिंता बढ़ा दी है. यह मोहरा लाल टोपी के असर को कम करने वाला है. (भाजपा ने जाटों के बहाने चुनावी शतरंज में किस मोहरे को आगे बढ़ाया है यहां क्लिक कर पढ़ सकते हैं.)
बहरहाल, भाजपा खेमे की कोशिशों के असर को कम करने के लिए अखिलेश और जयंत को पश्चिम में साथ उतरना पड़ रहा है. दोनों ने एक पत्रकार वार्ता में सफाई दी है कि यह उनके गठबंधन को नुकसान पहुंचाने की भाजपाई साजिश है. इस दौरान अखिलेश ने जयंत के साथ अपनी किसान पहचान को प्रमुखता से रेखांकित किया और जेब से एक लाल पोटली निकालकर नुमाइश की. पूर्व मुख्यमंत्री ने मुजफ्फरनगर में कहा- "मैं सिर पर लाल टोपी और जेब में अन्न की लाल पोटली लेकर चलता हूं. यह अन्नदाता के पक्ष में भाजपा को हराने का संकल्प है."
चुनाव की घोषणा के बाद अखिलेश का अन्न संकल्प चर्चा है. दरअसल, जयंत के साथ अखिलेश की कोशिश जाटों और मुसलमान के बीच बंटवारे की भाजपाई कोशिशों को लंबे वक्त तक चले किसान आंदोलन से ढकने की है.
पश्चिम में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जयंत चौधरी के साथ अखिलेश यादव. फोटो- अखिलेश के ट्विटर हैंडल से साभार.
यह पहली बार नहीं है जब जनता के दिमाग में बैठे मुद्दों को जिंदा रखने के लिए नेताओं ने इस तरह के हथकंडे आजमाना पड़ रहे हैं. ऐसी कामयाब कोशिशें उत्तर की राजनीति में कई मर्तबा दिख चुकी हैं. पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने तो एक लिफ़ाफ़े से जनता के मन में बैठे भ्रष्टाचार के सवाल को इतना गहरा बना दिया कि उन्होंने अकेले दम सर्व संपन्न कांग्रेस की चूलें हिलाकर रख दीं. कांग्रेस की बुरी चुनाव हारना पड़ा. इस बात पर कोई बहस नहीं की जा सकती कि बीपी सिंह के नाम पर तब विपक्ष ने देशभर में वोट पाए थे. अपना दल (सोनेलाल) के राष्ट्रीय महासचिव राघवेन्द्र सिंह, बीपी सिंह के बेहद करीबी रहे हैं. मुलाकातों में वे 'राजा साहब' से जुड़े तमाम किस्से सुनाते हैं. इसी में से एक 'लिफाफा एपिसोड' भी है.
वीपी सिंह के रहस्यमयी लिफ़ाफ़े की काट नहीं खोज पाई थी कांग्रेस, गंवानी पड़ी सत्ता
बोफोर्स के मुद्दे पर ही राजा साहब का कांग्रेस से मोहभंग हुआ था. राजीव गांधी कैबिनेट में रक्षा मंत्री रहे राजा साहब ने पार्टी छोड़ दी. उस वक्त लोकसभा चुनाव में हालांकि वीपी सिंह जनता दल की तरफ से प्रधानमंत्री के घोषित दावेदार नहीं थे, बावजूद अगुआ वही नजर आ रहे थे. हकीकत में उन्होंने ही बोफोर्स के बहाने कांग्रेस के आगे भ्रष्टाचार के मुद्दे को चुनावों तक इस कदर जिंदा रखा कि राजीव गांधी को बुरी हार का सामना करना पड़ा. राजा साहब लगभग हर सभा और पार्टी मीटिंग में बोलने के के दौरान अपनी जेब से एक बंद लिफाफा निकालकर लहराते थे. लिफाफा दिखाते हुए वे भरोसे से बार-बार यही दोहराते थे कि इसमें उन सबके नाम और हिस्सेदारी का विवरण है जिन्होंने बोफोर्स में दलाली खाई.
चूंकि राजा साहब खुद रक्षा मंत्री थे, उनकी छवि बेदाग़ थी और संवाद कला में तो उनका कोई सानी ही नहीं था. वे जिस तरह से मंचों पर दावा करते, लोगों के बीच उनकी कही बातों का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता. 1989 के चुनाव में बोफोर्स निर्णायक साबित हुआ. आज भी राजनीति में उसका ताप कांग्रेस को यदा कदा झुलसा देती है. तब चुनाव के नतीजे इस बात की गवाही देते हैं कि राजा साहब की इस कोशिश ने कांग्रेस को कितना नुकसान पहुंचाया. हालांकि ये दूसरी बात है कि बीपी सिंह भाजपा के सहयोग से बनी सरकार में प्रधानमंत्री बने, मगर कभी उस रहस्यमयी लिफ़ाफ़े का संदर्भ नहीं दिखा.
पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह.
रहस्य आज तक बरकरार है. उसमें में क्या था, इस बारे में वीपी सिंह के करीबियों को भी कोई जानकारी नहीं. क्या वह लिफाफा सिर्फ जनता के बीच बोफोर्स के बहाने चुनाव तक भ्रष्टाचार के मुद्दे को जिंदा रखने की एक कोशिश भर थी? दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी कभी मुख्यमंत्री बनने से पहले तक चुनावों में इस तरह की लिस्ट लहराते दिखे और कॉरपोरेट भ्रष्टाचार का बड़ा मुद्दा बनाया. लेकिन चुनाव के बाद उनकी भी लिस्ट का कभी कोई अता-पता नहीं चला.
अखिलेश की लाल पोटली में वीपी सिंह और अरविंद केजरीवाल जैसा कोई रहस्य नहीं है. उन्होंने पहले ही साफ़ कर दिया है कि इसमें क्या है. अब अखिलेश को 'लाल पोटली' से राजा साहब जैसे करिश्मे की उम्मीद है. बीपी सिंह ने उस दौरान जो किया था वह अपने आप में एक तरह का राजनीतिक करिश्मा ही था. यूपी में भाजपा को सत्ता से हटाने में अगर अखिलेश के कामयाब होने को राजनीतिक जानकार करिश्में की तरह ही लेते दिख रहे. अगर उन्होंने ऐसा किया तो.
क्यों लाल पोटली लेकर चल रहे हैं अखिलेश?
अब यह समझना मुश्किल नहीं कि समाजवादी नेता लाल पोटली लेकर क्यों चल रहे हैं? उनकी कोशिश पश्चिम में भाजपा की किसान विरोधी छवि बनाए रखने की है. भाजपा की इसी छवि में समाजवादी गठबंधन को जमीन पर फायदा पहुंचाने का माद्दा है. पश्चिम में सपा की जीत के लिए एक सबसे जरूरी चीज. चूंकि किसान आंदोलन वापस हो चुका है और अब जमीन पर भाजपा संकेतों में गलतियां भी मान रही है. जाटों को पुचकार रही है. ऐसे में किसानों के मुद्दे पर भाजपा के खिलाफ गुस्सा जिंदा रखना जरूरी है. लाल पोटली का मकसद किसानों के उसी जख्म को कुरेदकर रखना है. अखिलेश बार बार जयंत के साथ खुद के किसान पुत्र होने की बात दोहरा रहे हैं. घोषणापत्र में प्रमुखता से सरकार बनने के बाद आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों को लाखों रुपये का मुआवजा देने और स्मारक बनाने का ऐलान कर चुके हैं.
हालांकि किसान क़ानून वापस होने, भाजपा की ओर से एक दायरे में गलतियों को मान लेने और ध्रुवीकरण की वजह से लाल पोटली का वैसा असर नहीं दिख रहा जैसा बीपी सिंह ने बोफोर्स पर डायरी के जरिए दिखाया था. मगर इस बात को भी खारिज नहीं किया जा सकता कि अखिलेश काफी हद तक भाजपा विरोधी किसान मतों को इसी प्रतीक के जरिए गठबंधन के साथ जोड़े रखने में कामयाब दिख रहे हैं. इसी मुद्दे ने उन्हें पश्चिम में एक मजबूत सहयोगी दिया. किसान आंदोलन के दौरान जयंत की तरह अगर अखिलेश ने सक्रियता दिखाई होती तो शायद लाल टोपी का जादू कम से कम पश्चिम में वैसा ही दिखता जैसे लिफ़ाफ़े से राजा साहब ने कभी दिखाया था.
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