राहुल गांधी को चमकाने वाले युवा तुर्क 18 महीने में ही बिखर गए
ये अल्पेश ठाकोर, हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाणी की तिकड़ी ही रही जिनकी बदौलत राहुल गांधी की छवि निखर कर आयी. डेढ़ साल में ही इनका बिखर जाना कांग्रेस नेतृत्व पर ही सवाल उठाता है.
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राष्ट्रीय राजनीति में अपनी काबिलियत साबित करने के लिए राहुल गांधी ने लंबा संघर्ष किया है. 2018 में तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनवाने के बाद उनके कद में काफी इजाफा हुआ है. हालांकि, राहुल गांधी को गुजरात चुनाव में बीजेपी को 99 पर रोक देने के बाद गंभीरता से लिया जाना शुरू हो चुका था.
2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के चमकने की वजह बने अपने अपने इलाके में उभरते तीन युवा नेता - अल्पेश ठाकोर, हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाणी. ये तीनों अपने समर्थकों के सहारे बीजेपी को नाकों चने चबाने को मजबूर कर दिये थे. वक्त की मांग ऐसी थी कि राहुल गांधी और ये तीनों बीजेपी के खिलाफ हाथ मिला लिये - कुछ खुल्लम-खुल्ला तो कुछ पर्दे के पीछे से.
सिर्फ 18 महीने बीते होंगे और वो युवा तिकड़ी बिखर चुकी है - आखिर ऐसा क्यों हुआ?
मजह डेढ़ साल रहा अल्पेश का साथ
जिस दौर में पाटीदार आंदोलन गुजरात की सत्ता की राजनीति में हड़कंप मचा रहा था, उसी वक्त ठाकोर सेना का शराबबंदी को लेकर आंदोलन चल रहा था. अल्पेश ठाकोर ही उस आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे. अल्पेश का इल्जाम रहा कि गुजरात में शराबबंदी के बावजूद अरबों रुपये के शराब का कारोबार फल फूल रहा है. इस आंदोलन ने अल्पेश ठाकोर को रातोंरात शोहरत दिलायी - और हार्दिक पटेल के समकक्ष प्रतिरोध की एक नयी आवाज बन गये.
गुजरात चुनावों में कांग्रेस ने डोरे तो तीनों युवा नेताओं पर डाले - लेकिन सिर्फ अल्पेश ठाकोर ही राजी हुए और कांग्रेस ज्वाइन किया. कांग्रेस के टिकट पर चुनाव भी लड़े और अब साथ छोड़ भी चुके हैं.
अब वो साथ नहीं रहा...
अल्पेश ठाकोर का कहना है कि वो अपने समाज के लिए काम करते रहेंगे. मगर, ये सिर्फ आधा सच है. बाकी आधा सच ये है कि अल्पेश ठाकोर को भी बीजेपी ने वैसे ही मना लिया है जैसे गोरखपुर उपचुनाव में जीते समाजवादी पार्टी के सांसद प्रवीण निषाद भगवा धारण कर चुके हैं.
हार्दिक के लिए तो घाटे का ही सौदा रहा
सिर्फ गुजरात में ही नहीं बल्कि बाहर भी सत्ताधारी बीजेपी के खिलाफ विरोध की आवाज बन कर सबसे पहले हार्दिक पटेल का ही नाम सामने आया. गुजरात में आर्थिक तौर पर समृद्ध पाटीदार समुदाय के लिए आरक्षण की मांग को लेकर हार्दिक पटेल हीरो बन कर उभरे थे.
एक वक्त ऐसा भी आया जब गुजरात की आनंदी बेन सरकार हिल गयी और उसका प्रभाव दिल्ली तक पहुंचने लगा - और वही उनकी कुर्सी तक ले डूबा. तब हार्दिक इतने लोकप्रिय हो चुके थे कि उनकी गिरफ्तारी के बाद पाटीदार समुदाय सड़कों पर उतर आया और सरकार के लिए मुसीबतें खड़ी होने लगीं.
पाटीदार समाज के लिए आरक्षण की मांग तक तो आंदोलन और साथियों पर हार्दिक पटेल की पकड़ मजबूत बनी रही, लेकिन जैसे ही राजनीति ने एंट्री मारी वो कमजोर पड़ने लगे. एक तरफ कांग्रेस के साथ उनकी बात नहीं बन पा रही थी, दूसरी तरफ बीजेपी बागियों की ताक में बैठी रही और मौका मिलते ही तोड़ने लगती. कानूनी पचड़े से जूझते हुए हार्दिक पटेल साथियों के मुंह मोड़ लेने से कमजोर पड़ते गये - और वो दिन भी आ ही गया जब थक हार कर हार्दिक पटेल कांग्रेस में शामिल हो गये.
हार्दिक पटेल के सामने सबसे बड़ी मुश्किल तब खड़ी हो गयी जब सुप्रीम कोर्ट ने मेहसाणा में दंगा भड़काने के मामले में मिली सजा पर रोक लगाने से इंकार कर दिया. दो साल की सजा होने के कारण हार्दिक पटेल ये चुनाव तो नहीं ही लड़ सके - तात्कालिक भविष्य में भी तस्वीर धुंधली ही नजर आ रही है.
हार्दिक पटेल के लिए कांग्रेस ज्वाइन करना घाटे का सौदा रहा. पहले उनकी पाटीदार आंदोलन को लेकर जो छवि बनी थी उस पर कांग्रेस के हाथ का ठप्पा लग चुका है - और चुनावी राजनीति में अब उन्हें कोई फायदा नहीं मिलने वाला. कांग्रेस के लिए अगर प्रचार भी करते हैं तो फायदा तो सिर्फ कांग्रेस का ही होगा.
कांग्रेस से कोसों दूर हैं जिग्नेश
पेशे से वकील जिग्नेश मेवाणी का नाम सुर्खियों में ऊना कांड के बाद आया. ऊना में दलितों की पिटाई को लेकर जिग्नेश ने जब आंदोलन शुरू किया तो उसका असर दिल्ली सहित देश के कई कोनों में देखने को मिला.
ये सही है कि कांग्रेस ने जिग्नेश को मिले जनसमर्थन का पूरा फायदा उठाया तो उनके विधायक बनने में भी भरपूर सपोर्ट किया. कांग्रेस की तमाम पेशकश को ठुकराते हुए आखिर तक जिग्नेश पार्टी में नहीं ही शामिल हुए.
बाद के दिनों में भी जिग्नेश मेवाणी का पूरा जोर राष्ट्रीय स्तर पर दलित राजनीति को लेकर रहा. वो दिल्ली में भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद रावण के लिए भी आंदोलन कर चुके हैं. फिलहाल जिग्नेश मेवाणी बेगूसराय में डेरा डाले हुए हैं - और जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं.
कन्हैया कुमार सीपीआई के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं जिसे कांग्रेस की हिस्सेदारी वाले महागठबंधन में तेजस्वी यादव की वजह से जगह तक नहीं मिल सकी है.
अभी तो ऐसा बिलकुल नहीं लग रहा है कि जिग्नेश मेवाणी को कांग्रेस की राजनीति से कोई मतलब है. अल्पेश ठाकोर की तरह जिग्नेश ने तो कांग्रेस से जुड़े ने उसे छोड़े - पहले भी वो अपने को स्थापित करने में लगे रहे और अब भी राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका तलाश रहे हैं.
युवा तिकड़ी आखिर बिखरी क्यों?
तीनों युवा नेताओं तुलना करें तो सबसे ज्यादा नुकसान में हार्दिक पटेल ही रहे हैं - और सबसे ज्यादा फायदे में अल्पेश ठाकोर लगते हैं. जिग्नेश मेवाणी का मामला बीच का लगता है.
हार्दिक पटेल का कहना है कि वो अल्पेश ठाकोर को समझाने की कोशिश करेंगे. मगर लगता नहीं कि समझने और समझाने वाली कोई चीज रह गयी है. अल्पेश ठाकोर अपने हिसाब से राजनीति कर रहे हैं. गुजरात चुनाव से पहले भी अल्पेश ठाकोर ने राजनीतिक दलों से अच्छे से डील किया - जहां ज्यादा फायदा मिला फाइनल कर आगे बढ़ गये.
कांग्रेस में शामिल होने के बाद अल्पेश ठाकोर ने चुनाव कमेठी में भी जगह बना ली और साथियों को टिकट भी दिलवाया. पार्टी में राष्ट्रीय सचिव का पद भी मिल गया. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से करीबी के साथ साथ अपना कद भी बढ़ाते रहे और दूसरे दलों के साथ संपर्क भी. बात बढ़ती गयी और नयी डील तक पहुंच गयी.
चर्चा है कि अल्पेश ठाकोर ने एक बड़े गेम प्लान के तहत कांग्रेस छोड़ी है. बताते हैं कि इसके पीछे गुजरात की बनासकांठा लोक सभा सीट को लेकर एक बीजेपी नेता के साथ हुई उनकी डील है. अगर अल्पेश ठाकोर कांग्रेस में होते तो बीजेपी नहीं बल्कि वो सीट कांग्रेस के खाते में जा सकती थी. फिर तो यही समझ आता है कि जैसे एक डील करके अल्पेश ठाकोर कांग्रेस में आये थे, दूसरी डील करके उसे डेढ़ साल बाद छोड़ दिये.
सवाल उठता है कि ये युवा तिकड़ी इतनी जल्दी बिखर क्यों गयी?
जवाब खोजने से पहले ये समझना जरूरी है कि क्या ये तिकड़ी कभी एकजुट भी रही क्या? निश्चित तौर पर ये तीनों युवा नेता 2016 में गुजरात की राजनीति में धाक जमाने लगे थे और बाद में राष्ट्रीय स्तर पर भी इनकी बात गंभीरता से सुनी जाने लगी. ऐसा तो कभी नहीं रहा कि तीनों ने मिल कर कोई शुरुआत की हो और रणनीति के तहत सत्ता पक्ष को चुनौती देने एक साथ खड़े हुए हों. ये तीनों ही अलग अलग मुद्दों पर अपने अपने इलाके में विरोध की आवाज बने. तीनों मुद्दे बिलकुल अलग थे और समर्थक भी अलग अलग. कॉमन बात कोई थी तो वो रही सत्ताधारी बीजेपी का विरोध.
बीजेपी सरकार के विरोध में उठती इन आवाजों को लेकर कांग्रेस ने अपने तरीके से ताना बाना बुना और एक चुनौती देने वाला आभासी मंच खड़ा भी हो गया. कांग्रेस नेतृत्व चाहता तो तीनों की संयुक्त ऊर्जा का एक साथ सकारात्मक इस्तेमाल कर सकता था - लेकिन ये भी वैसे ही संभव नहीं हो पाया जैसे कांग्रेस के लिए अंदरूनी गुटबाजी पर काबू पाना मुश्किल होता है.
ये लगभग वैसे ही जैसे असम में हिमंत बिस्व सरमा को गंवाने के बाद कांग्रेस ने पूरे नॉर्थ ईस्ट में मुसीबतें खड़ी कर ली है. राहुल गांधी की राजनीति चमकाने वाले युवा तिकड़ी की समन्वित ऊर्जा के टूट कर बिखर जाने के बाद कांग्रेस का गुजरात में 2017 जैसा भी प्रदर्शन मुश्किल लगता है, बेहतर की तो उम्मीद ही बेमानी ही होगी.
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