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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 25 फरवरी, 2022 02:22 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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अमित शाह (Amit Shah) ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में बीएसपी की प्रासंगिकता स्वीकार कर मायावती (Mayawati) पर कोई एहसान नहीं किया है - ये वो भी जानती हैं, तभी तो बीएसपी नेता ने बीजेपी नेता की बातों को 'महानता' से जोड़ कर कटाक्ष भी किया है.

हो सकता है अमित शाह के बयान और उस पर मायावती के रिस्पॉन्स के बाद कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा भी अपने नजरिये में थोड़ा संशोधन कर लें. मायावती को बीजेपी का अघोषित प्रवक्ता बता चुकीं प्रियंका गांधी अब चाहें तो अपने समर्थकों को ऐसे भी समझा सकती हैं कि अमित शाह के बयान को अब नयी घोषणा या औपचारिक तौर पर बीजेपी के प्रति बीएसपी का स्टैंड समझ लेना चाहिये.

लेकिन क्या अमित शाह ने मायावती की यूं ही तारीफ की होगी? राजनीति में तो ऐसा होने से रहा - और वो भी अमित शाह जैसे नेता की तरफ से तो कुछ ऐसे वैसा का सवाल भी पैदा नहीं होता.

यूपी चुनाव (UP Election 2022) की मतदान प्रक्रिया के मध्य काल में पहुंच जाने के बाद आखिर अमित शाह को बीएसपी को लेकर ऐसा बयान देने की जरूरत क्यों पड़ी होगी - सबसे बड़ा सवाल यही है और फिलहाल इसी को समझना सबसे जरूरी है?

ये अमित शाह ही हैं, जब बीजेपी की रैलियों में या जब भी मीडिया के सामने होते, पूछते रहे - बहनजी बाहर क्यों नहीं आ रही हैं? ये बीजेपी वाले ही हैं जो मायावती पर वर्क फ्रॉम हो पॉलिटिक्स का इल्जाम भी लगा चुके हैं.

मायावती की चुनावी राजनीति को लेकर प्रियंका गांधी ने भी अमित शाह जैसे ही सवाल खड़े किये थे, लेकिन अखिलेश यादव तो कभी नहीं. बल्कि, अखिलेश यादव तो जयंत चौधरी के साथ बैठ कर जगह जगह जोर देकर कहते रहे कि अंबेडकरवादियों को भी समाजवादियों के साथ आकर - मिल कर बीजेपी के खिलाफ लड़ाई को मजबूत बनानी चाहिये.

ये तो साफ साफ समझ आ रहा है कि बीएसपी को लेकर अमित शाह का बयान मायावती के लिए फायदेमंद, और जाहिर है, अखिलेश यादव के लिए नुकसानदेह है - लेकिन अब ये समझना और भी जरूरी है कि क्या बीजेपी को समाजवादी पार्टी कोई टेंशन देने लगी है - जिसे लेकर अमित शाह यूपी में पश्चिम बंगाल की तरह मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण रोकना चाहते हैं?

बीजेपी को मुस्लिम वोट की टेंशन क्यों?

यूपी चुनाव के दौरान अलग अलग मौकों पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुस्लिमों को लेकर उनका नजरिया जानने की कोशिश की गयी - और जाहिर है दोनों ही नेताओं ने मिलता जुलता ही जवाब दिया.

amit shah, mayawati, akhilesh yadavअखिलेश यादव के मुकाबले प्रियंका गांधी वाड्रा के बाद अब अमित शाह ने मायावती को उतार दिया है - और निशाने पर मुस्लिम वोटर हैं.

बीजेपी को लेकर एक सवाल ये भी रहा है कि यूपी चुनाव में पिछली बार की तरह इस बार भी किसी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया गया है. दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान यही सवाल जब बीजेपी सांसद मनोज तिवारी से पूछा गया तो बोले, 'भाजपा उन्हीं मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दे सकती है, जहां मुस्लिम इलाके हैं, लेकिन हम टिकट दे देते हैं तो वे जीतते ही नहीं हैं... हम दूसरा ऑप्शन चुनते हैं.'

मनोज तिवारी ने अपनी दलील के सपोर्ट में कुछ उदाहरण भी दिये, रामपुर में मुख्तार अब्बास नकवी को भी नहीं जिताया. हम उन्हें राज्य सभा से लाकर मंत्री बनाते हैं... मोहसिन भाई को एमएलसी बनाकर लाये हैं... वे यूपी में मिनिस्टर हैं.'

मुस्लिम उम्मीदवारों को लेकर केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने एक बार कहा था, ‘...जहां तक टिकटों का सवाल है, ये अच्छा होता अगर मुसलमानों को टिकट दिया जाता,’ लेकिन 2017 के विधानसभा चुनावों को लेकर नकवी का कहना था कि कोई जिताऊ उम्मीदवार मिला ही नहीं.

ये रिश्ता क्या कहलाता है, जैसे के साथ तैसा: यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अक्सर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्लोगन 'सबका साथ, सबका विकास...' का हवाला देते रहते हैं.

लेकिन जब उनके ऐसे बयानों को लेकर पूछा जाता है - बीजेपी ने किसी भी मुसलमान को टिकट क्यों नहीं दिया और आपका मुसलमानों से क्या रिश्ता है?

नेटवर्ट 18 के साथ इंटरव्यू में ये पूछे जाने पर योगी आदित्यनाथ कहते हैं, 'मेरा वही रिश्ता उनके साथ है... जो उनका रिश्ता मुझसे है.' मनोज तिवारी की ही तरह योगी आदित्यनाथ भी मुस्लिम चेहरे गिनाने शुरू कर देते हैं, उत्तर प्रदेश सरकार में एक मुस्लिम मंत्री हैं. केंद्र सरकार में मंत्री हैं, नकवी जी... और भी इस प्रकार के चेहरे हैं... आरिफ मोहम्मद खान जी केरल के राज्यपाल के रूप में सेवाएं दे रहे हैं... 'शठे शाठ्यम् समाचरेत्' - यानी जैसे को तैसा, आखिर योगी आदित्यनाथ यही कहना चाह रहे हैं या कुछ और?

योगी आदित्यनाथ के कहने का मतलब तो यही हुआ कि जितना पसंद मुस्लिम उनको करते हैं, वो भी मुस्मिल समुदाय को उतना ही पसंद करते हैं - और अगर मुस्लिम समुदाय योगी आदित्यनाथ को पसंद नहीं करता तो उनके बारे में भी लोगों को कोई गलतफहमी नहीं रहनी चाहिये.

क्या नसों में बहते खून का धर्म राजनीतिक होता है: डुमरियागंज के विधायक राघवेंद्र प्रताप सिंह हिंदू युवा वाहिनी के भी प्रभारी हैं, जिसके संस्थापक योगी आदित्यनाथ ही हैं.

बीजेपी एमएलए का एक वीडियो खासा चर्चित है और खास बात ये है कि वायरल वीडियो के फर्जी होने को लेकर भी संशय खत्म हो चुके हैं. राघवेंद्र प्रताप सिंह ये तो मानते हैं कि बयान उनका ही है, लेकिन समझाने की कोशिश है कि संदर्भ अलग रहा - और इरादा तो कतई किसी को धमकाना नहीं था.

जिस वीडियो ने बवाल मचा रखा है, उसमें राघवेंद्र प्रताप सिंह कह रहे हैं, 'आप बताइये... क्या मुझे कोई मुसलमान वोट करेगा? अगर कोई हिंदू दूसरे पक्ष को वोट करेगा तो उसकी नसों में मुस्लिम खून होगा... वे गद्दार हैं... अगर एक हिंदू उस पक्ष में जाता है तो उसे सार्वजनिक तौर पर अपना चेहरा दिखाने का कोई हक नहीं है.'

अमित शाह: मुस्लिम समुदाय को लेकर अमित शाह का बयान योगी आदित्यनाथ से थोड़ा अलग है. अमित शाह ने मुस्लिमों को लेकर राजनीतिक बयान दिया है - जहां वो सबकी बराबरी की बात करते हैं.

अमित शाह का कहना है, 'भारतीय जनता पार्टी का मुसलमानों से वही रिश्ता है, जो भारत के एक नागरिक से होना चाहिये.'

जिस सवाल पर मनोज तिवारी और मुख्तार अब्बास नकवी बीजेपी में मुस्लिम समुदाय की उम्मीदवारी को हार-जीत के तराजू पर तौलते हैं, अमित शाह दार्शनिक अंदाज में जवाब देते हैं.

सवाल होता है, क्या मुसलमानों को टिकट नहीं देना राजनीति मजबूरी है?

अमित शाह जवाब देते हैं, 'मजबूरी नहीं है बल्कि राजनीतिक शिष्टाचार है.'

और फिर अमित शाह वो बयान देते हैं जिसमें वो अपनी बात भी कह लेते हैं, मनोज तिवारी और मुख्तार अब्बास नकवी के बयानों का बचाव भी हो जाता है, 'चुनाव जीतना निश्चित तौर से जरूरी है, लेकिन जीत के बाद भेदभाव का आरोप हो, तब पूछना चाहिये... सरकार संविधान के आधार पर चलती है और सरकार को जनता चुनती है. राजनीतिक प्रकृति तो इसी से जुड़ी है.'

महानता या सच्चाई: 2019 के आम चुनाव के बाद से ही, खास कर अखिलेश यादव के साथ हुआ सपा-बसपा गठबंधन तोड़ने के बाद से मायावती के निशाने पर लगातार कांग्रेस रही है - और यूपी चुनाव के करीब आने के साथ ही मायावती ने अखिलेश यादव को नये ऑब्जेक्ट के तौर पर टारगेट पर जोड़ लिया है.

विपक्षी नेता होने की वजह से माना जाता रहा कि मायावती को आक्रामक सत्ताधारी बीजेपी के खिलाफ होना चाहिये, लेकिन ज्यादा हमलावर वो कांग्रेस नेताओं प्रियंका गांधी वाड्रा और राहुल गांधी के खिलाफ देखी गयीं. जब भी मायावती सीएए विरोध प्रदर्शनों के दौरान लोगों के घर पहुंचतीं मायावती सीधे हमला बोल देतीं. यहां तक कि जब राहुल गांधी दिल्ली के एक फ्लाईओवर पर घर लौट रहे प्रवासी मजदूरों से मिलने गये, मायावती आग बबूला हो गयी थीं.

एक दिन मायावती ने एक ट्वीट किया था और उसी को रिट्वीट करते हुए प्रियंका गांधी वाड्रा न बीएसपी नेता को बीजेपी का अघोषित प्रवक्ता बता डाला. अमित शाह के बयान पर मायावती प्रतिक्रिया देते वक्त काफी अलर्ट देखी जा सकती हैं.

मायावती का रिएक्शन कुछ ऐसा रहा है, 'मैं समझती हूं कि ये उनकी महानता है कि उन्होंने सच्चाई को स्वीकार किया है... लेकिन मैं उनको ये भी बताना चाहती हूं कि पूरे उत्तर प्रदेश में बीएसपी को अकेले दलितों और मुसलमानों का ही नहीं, बल्कि अति पिछड़े और सवर्ण समाज यानी सर्व समाज का वोट बहुजन समाज पार्टी को मिल रहा है.'

मुस्लिम वोटर पर अमित शाह के बयान के मायने

अब ये समझना जरूरी है कि क्या बीजेपी को समाजवादी पार्टी किसी तरह का कोई टेंशन देने लगी है, जिसे लेकर अमित शाह यूपी में पश्चिम बंगाल की तरह मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण रोकना चाहते हैं?

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव नतीजों की समीक्षा के लिए बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा की बुलायी मीटिंग से खबर आयी थी, बीजेपी नेतृत्व ने महसूस किया कि मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण की वजह से बंगाल में बीजेपी चुनाव हार गयी.

यूपी में चुनावी माहौल जोर पकड़ने से पहले ही सलमान खुर्शीद की किताब आई और उसके बाद राहुल गांधी ने हिंदू, हिंदुत्व और हिंदुत्वाद की थ्योरी के साथ संघ और बीजेपी नेताओं को हिंदुत्ववादी कहना शुरू किया था - लेकिन फिर दूसरे मसलों में उलझ कर शांत हो गये.

जब से लगने लगा कि यूपी में बीजेपी को टक्कर न तो मायावती दे पा रही हैं न कांग्रेस, मुस्लिम वोटर के बीच ये मैसेज जाने लगा कि ये अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की जोड़ी ही है जो बीजेपी को चैलेंज करने में सक्षम नजर आ रही है - जाहिर है वोट किसे देना है, मुस्लिम समुदाय के लिए ये फैसला करने में ये सबसे निर्णायक फैक्टर समझा जाता है.

ये भी देखने में आया कि मायावती और असदुद्दीन ओवैसी में मची होड़ मुस्लिम वोट के बंटवारे की वजह बन रही है, लेकिन ऐसी कोशिशों का बहुत ज्यादा असर नहीं देखने को मिला. बिहार विधानसभा चुनाव 2020 को छोड़ कर देखें तो.

मुस्लिम वोट बीजेपी के लिए ज्यादा खतरनाक मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में ज्यादा नहीं होता - वहां तो मायावती और ओवैसी के पॉलिटिकल इंटरेस्ट की वजह से बीजेपी को फायदा ही होता है.

बीजेपी के लिए मुश्किल वहां होता है जहां हिंदू वोटर का कोई एक भी तबका नाराज हो - और मुस्लिम वोट एकजुट होकर बीजेपी के खिलाफ पड़ जाये. पश्चिम उत्तर प्रदेश में ये खतरा था और बीजेपी इसी बात को लेकर ज्यादा परेशान रही है.

किसान आंदोलन के चलते जाटों की नाराजगी को दूर करने की अमित शाह की तरफ से काफी कोशिशें हुईं. जयंत चौधरी को लेकर बीजेपी नेतृत्व की तरफ से कन्फ्यूज करने की कोशिश की गयी कि जयंत चौधरी तो चुनाव बाद बीजेपी में ही मिल जाएंगे - मतलब, अगर वे जयंत को अखिलेश का साथी मान कर बीजेपी के खिलाफ वोट करते हैं तो भी कोई फायदा नहीं होने वाला. वैसे जयंत चौधरी काफी अलर्ट रहे और वैसे ही रिएक्ट भी करते रहे - बड़े नेताओं की फिक्र देख कर लगता है कि मैं सब ठीक ही कर रहा हूं.

मायावती की तारीफ करने का अमित शाह का मकसद जयंत चौधरी से मिलता जुलता हो सकता है - लेकिन ये बीजेपी की तरफ से कांग्रेस को दी जाने वाली अहमियत जैसा ज्यादा लगता है.

योगी आदित्यनाथ की आधी पारी पूरी हो जाने के बाद से समझा जाने लगा था कि अखिलेश यादव को डाउनप्ले करने के लिए प्रियंका गांधी वाड्रा की एक्टिविटी और बयानों पर बीजेपी का रिएक्शन ज्यादा महत्व देने वाला होता था.

ये असल में अखिलेश यादव के योगी आदित्यनाथ को चैलेंज देने के लोगों तक पहुंचने वाले मैसेज से गुमराह करने की कोशिश हुआ करती थी. बीजेपी ये बताने की कोशिश करती थी कि समाजवादी पार्टी मुकाबले में कहीं है ही नहीं.

अब अमित शाह ने मायावती को वैसा ही महत्व देकर लोगों को नये सिरे से अखिलेश यादव से ध्यान बंटाने की कोशिश की है - और साथ में मुस्लिम वोटर को भी, ताकि वो सिर्फ अखिलेश यादव के भ्रम में ही न फंसा रहे, बल्कि ओवैसी के साथ साथ मायावती के बारे में भी एक बार सोचे जरूर - और ऐसा हो गया तो समझ लीजिये अमित शाह ने 'खेला' कर दिया.

मुद्दे की बात ये है कि अखिलेश यादव को लेकर यूपी चुनाव में जो अंडर करेंट महसूस कराया जाने लगा है, बीजेपी की चिंता बढ़ना स्वाभाविक ही है. हकीकत जरूरी नहीं कि बिलकुल वैसी ही हो, लेकिन मुस्लिम वोट और मायावती के बहाने सामने आयी अमित शाह की फिक्र उस पर मुहर लगाने जैसी ही है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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