अहमद पटेल को हारते कौन-कौन देखना चाहता है - अमित शाह, वाघेला या और भी...
कुछ मीडिया रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र है कि पटेल राज्य सभा का चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे. कहा तो यहां तक जा रहा है कि पटेल अपनी सीट वाघेला को ऑफर कर रहे थे, लेकिन भी कांग्रेस के कुछ नेताओं ने उन्हें चुनाव के लिए राजी कर लिया.
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अहमद पटेल के पांचवीं बार राज्य सभा के लिए चुने जाने में घोर संशय व्याप्त है. 8 अगस्त को होने जा रहे चुनाव में उन पर हार का खतरा मंडरा रहा है. ये तो साफ है कि अमित शाह ने अहमद पटेल को हराने के लिए बिसात पर सारी चालें चल दी हैं - और भविष्य की चालों के लिए भी एडवांस प्लानिंग कर रखा है. शंकर सिंह वाघेला भी पटेल की हार का मुकम्मल इंतजाम कर चुके हैं - और कुछ आगे के लिए भी छोड़ रखा है. लेकिन क्या सिर्फ शाह और बघेला ही ऐसे हैं जो पटेल को हारते देखना चाहते हैं, या कांग्रेस में ही और भी नेता ऐसे हैं?
वाघेला को कांग्रेस ने गवां दिया
वाघेला ने अभी सिर्फ कांग्रेस छोड़ने की घोषणा की है. उन्होंने ये नहीं बताया है कि वो बीजेपी में जाएंगे या फिर कोई नयी पार्टी बनाएंगे. शायद उन्हें भी राज्य सभा के चुनाव को इंतजार होगा. चुनाव होने पर उनकी स्थिति भी स्पष्ट हो जाएगी.
बापू कभी रिटायर नहीं होते...
वाघेला गुजरात में कितने अहम हैं ये समझने की बात है. वाघेला को पार्टी में लाकर बीजेपी को उतना फायदा नहीं होने वाला जितना उनके कांग्रेस में रहने से नुकसान हो सकता था. बीजेपी को ये बात पहले ही समझ में आ गयी - जो बाद में भी शायद कांग्रेस के पल्ले न पड़े. देखा जाय तो कांग्रेस ने वाघेला को गवां दिया है - और विधानसभा चुनाव से बहुत पहले ही अपने को गुजरात से मुक्त करने का भी इंतजाम कर लिया है.
कांग्रेस तीन दशक से गुजरात की सत्ता से बाहर है. आखिरी बार 1985 में कांग्रेस की सरकार बनी थी. बाद में सत्ता में हिस्सेदारी की कांग्रेस की ओर से कोशिशें तो हुईं लेकिन कामयाबी नहीं मिल पायी.
इस साल हुए विधानसभा चुनावों के बाद वाघेला खासे सक्रिय नजर आ रहे थे. दरअसल, वो गुजरात में अपने लिए वही रोल चाहते थे जैसा कांग्रेस ने पंजाब में कैप्टन अमिरंदर सिंह की भूमिका तय की थी. अंदरूनी कलह के मामले में भी दोनों सूबों में स्थिति तकरीबन ऐक जैसी ही है. वाघेला ने अपनी ओर से हर तरह से पहल की थी जिसमें पंजाब की तरह गुजरात में भी प्रशांत किशोर को हायर करने की बात शामिल थी. बाद में मालूम हुआ कि इन सब के बारे में आखिरी फैसला दिल्ली में होगा.
माना जाता है कि वाघेला की राह में अहमद पटेल भी बड़ा रोड़ा बने हुए थे. फिर तो वाघेला अपनी ओर से जो भी कोशिशें करते होंगे पटेल जैसे ताकतवर नेता के कारण सब नाकाम हो जाती होंगी.
अहमद पटेल की उम्मीदवारी
जिस तरह कुछ दिन पहले लालू प्रसाद ने मायावती को ऑफर दिया था, ममता बनर्जी ने भी अहमद पटेल को पश्चिम बंगाल से वैसी ही पेशकश की थी, लेकिन कांग्रेस ने ये कहते हुए ठुकरा दिया कि इससे गलत मैसेज जाएगा. ऐसा लगता है कांग्रेस के नेताओं को भी पटेल के जीतने का भरोसा नहीं है, फिर भी वो चाहते हैं कि पटेल मैदान में डटे रहें. ये नेता मान कर चल रहे हैं कि पटेल से बदला लेने का यही माकूल मौका है.
सोनिया से पटेल अलग कैसे...
कुछ मीडिया रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र है कि पटेल राज्य सभा का चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे. कहा तो यहां तक जा रहा है कि पटेल अपनी सीट वाघेला को ऑफर कर रहे थे, लेकिन भी कांग्रेस के कुछ नेताओं ने उन्हें चुनाव के लिए राजी कर लिया.
वाघेला के कांग्रेस छोड़ने की घोषणा भी एक तरह से पटेल को शह देने का बिगुल था. ये बिगुल सुनते ही कांग्रेस के पांच विधायकों ने इस्तीफा दे डाला. कांग्रेस के गुजरात में 54 विधायक थे जिनमें से वाघेला समेत सात साथ छोड़ चुके हैं. इनमें से भी ज्यादातर बेंगलुरू के रिजॉर्ट में हैं - और उनमें भी खलबली मची हुई है.
कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद कह रहे हैं कि पटेल की उम्मीदवारी को सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिेये. लगता है है पटेल की जीत को लेकर कांग्रेस का भी विश्वास डोल चुका है.
वैसे तो पटेल को चुनाव जीतने के लिए 46 वोटों की ही जरूरत है, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में 11 विधायकों की क्रॉस वोटिंग सारे गणित फेल कर दे रही है. वाघेला को अपने समर्थक विधायकों पर तो अमित शाह को अपनी रणनीति पर पक्का यकीन है.
तो मामला सिर्फ सियासी नहीं है!
केंद्र में मोदी सरकार बनने और अमित शाह के बीजेपी अध्यक्ष बनने के बाद भी एक बार गुजरात में राज्यसभा का चुनाव हो चुका है और कांग्रेस का सदस्य आसानी से जीता भी है - लेकिन उसका नाम अहमद पटेल नहीं था.
जिस तरह की गतिविधियां चल रही हैं उनसे लगता तो यही है कि मामला सिर्फ सियासी तो नहीं है. फिर सवाल उठता है कि आखिर अमित शाह और अहमद पटेल के बीच वो कौन सी कड़ी है कि सियासी लड़ाई हद पार करते हुए निजी दुश्मनी का रूप ले चुकी है.
कांग्रेस मुक्त गुजरात...
शाह के करीबियों के हवाले से आई मीडिया रिपोर्ट से पता चलता है कि जब भी वो अपने बीते मुश्किल दौर को याद करते हैं उन्हें अक्सर अहमद पटेल का ही चेहरा नजर आता है. ये वो दौर था जब सोहराबुद्दीन एनकाउंटर या फिर इशरत जहां के मामले में कानूनी शिकंजे में फंसे हुए थे. उन्हें काफी वक्त जेल में गुजारने पड़े और छूटे भी तो उनके गुजरात जाने पर पाबंदी लग गयी. ये सारी बातें सीबीआई के तोता काल की ही हैं.
खुद अहमद पटेल को भी कहते सुना गया है कि ये निजी लड़ाई है और शाह निजी वहजों से ही उनके खिलाफ हैं.
सिर्फ इतना भर नहीं है कि शाह और वाघेला की ही पटेल से रार है, कांग्रेस में और भी कई नेता हैं जो मानते हैं कि उनके राजनीतिक जीवन को पटेल ने पॉवर में रहते काफी चोट पहुंचायी. खैर कांग्रेस को भी पटेल को लेकर नतीजों का अहसास हो चुका है, लेकिन लगता है सोनिया गांधी के अलावा कोई भी उनके साथ नहीं है. गुलाम नबी आजाद का तो कहना है कि पटेल के चुनाव को उनके सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव होने के हिसाब से नहीं देखा जाना चाहिये. भला इस बयान का मतलब क्या समझा जाना चाहिये?
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