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Updated: 17 मार्च, 2016 04:11 PM
डा. दिलीप अग्निहोत्री
डा. दिलीप अग्निहोत्री
  @dileep.agnihotry
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भारत में नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ जिन मुद्दों को तूल दिया जा रहा है, उनकी एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट से समानता चौंकाने वाली है. ये वह मुद्दे हैं, जिनसे देश के जनसामान्य को खास मतलब नहीं होता. लेकिन कुछ लोग योजनाबद्ध ढंग से मुद्दा उठाते हैं, उसे तूल देने के लिए कई दिग्गज विपक्षी नेता सदैव तैयार रहते हैं. देखते ही देखते वह मुद्दा देश की बड़ी समस्या के रूप में दिखाई देने लगता है. कुछ दिन तक ऐसे मसले गर्म रहते हैं, फिर अपने आप सब कुछ सामान्य हो जाता है. ऐसा लगता है, जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. इसमें असहिष्णुता, अभिव्यक्ति की आजादी विदेशों से चंदा लेने वाले गैर सरकारी संगठनों पर निगरानी जैसे मुद्दे शामिल हैं.

पहले एमनेस्टी इंटरनेशनल मानवाधिकार की रिपोर्ट पर गौर कीजिए. इस वर्ष की जारी रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में आजादी पर जोरदार हमला हो रहा है, असहिष्णुता बढ़ रही है, बड़ी संख्या में कलाकारों, लेखकों और वैज्ञानिकों ने अपना राष्ट्रीय सम्मान लौटाया है. विदेशी चंदे पर प्रतिबन्ध बढ़ा दिया गया है. कट्टरपंथी हिन्दू समूहों की ओर से बोलने की आजादी पर अंकुश और हमला बढ़ रहा है. भारतीय अधिकारी धार्मिक हिंसा की घटनाओं पर रोक लगाने में विफल रहे हैं.

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इस रिपोर्ट से एमनेस्टी की मंशा पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है. वह चाहकर भी अपने पूर्वाग्रह को छिपा नहीं सका. रिपोर्ट में यह बात खुल कर सामने आ गयी. इसमें विदेश से चंदा लेने वाले भारत के गैर सरकारी संगठनों पर विशेष मेहरबानी दिखाई गयी है. संप्रग सरकार में ऐसे संगठनों पर जमकर मेहरबानी चल रही थी. उनसे यह पूछने वाला कोई नहीं था कि विदेशों से मिलने वाला धन कहां और किस प्रकार खर्च हो रहा है. राष्ट्रीय हितों के प्रति यह घोर लापरवाही थी. प्रत्येक देश को यह देखने का अधिकार है कि उसके यहां एनजीओ क्या कर रहे हैं. खासतौर पर विदेशों से बड़ी रकम लाने वाले एनजीओ की जानकारी देश को होनी चाहिए. वैश्वीकरण ने एक दूसरे देशों के यहां हस्तक्षेप की संभावना को बढ़ाया है. विश्व में ऐसे प्रमाणों की कमी नहीं जहां विकसित देशों से धन लाने वाले एनजीओ संदिग्ध भूमिका में लिप्त पाए गए. कई बार ये विकास येाजनाओं में अड़ंगा लगाते हैं, लोगों को बरगलाकर आन्दोलन करते हैं. इनके पास धन की कोई कमी नहीं होती. ऐसे कई संगठन वनवासी क्षेत्रों में धर्मान्तरण के लिए प्रलोभन भी देते हैं और धार्मिक तनाव बढ़ाने वाले कार्य भी करते हैं.

यह ठीक है कि विदेशों से सहायता लेने वाले सभी एनजीओ को दोषी नहीं कहा जा सकता, लेकिन जो उचित कार्य करते हैं, उन्हें निगरानी से डर नहीं होना चाहिए. निगरानी सरकार का दायित्व है. जो सरकार ऐसा नहीं करती, उसे दायित्व का समुचित निर्वाह करने वाला नहीं माना जा सकता. गुजरात दंगों के बाद ऐसे एनजीओ बहुत सक्रिय हुए थे. अनेक संगठन विकास योजनाओं में बाधा डालने के आरोपी थे. संप्रग सरकार इनके कार्यों पर निगरानी नही रखती थी. कई बार ये संगठन राजनीति में खुलकर भूमिका निभाते थे. ऐसी गतिविधियां संप्रग के घटक दलों को पसन्द थीं. सहायता देने वाले देश, अपरोक्ष रूप से हस्तक्षेप कर रहे थे. नरेन्द्र मोदी की सरकार ने इस ओर गंभीरता से ध्यान दिया. विदेशों से चंदा लेने वाले संगठनों पर एकदम प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया. वरन् सरकार ने राष्ट्रीय दायित्व के तहत उनकी निगरानी रखने पर ध्यान दिया. इससे चैंकाने वाले तथ्य सामने आने लगे. एनजीओ चलाने वाले विदेशी इशारों पर कई काम करते थे, जो राष्ट्रहित के प्रतिकूल थे. इतना ही नहीं एनजीओ चलाने वाले अपने व अपने परिजनों की मौज मस्ती और विदेश यात्राओं पर वह रकम खर्च करते थे, जबकि बाहर से वह दिखाने का प्रयास करते थे, जैसे वह गरीबों, पीडि़तों, अल्पसंख्यकों, वनवासियों के हित में लगे हैं. गरीबों की बात करने वाले चंदे की राशि का बड़ा हिस्सा निजी हित में लगा रहे थे, इसलिए ऐसे ही एनजीओ पर प्रतिबन्ध लगाया गया है. इससे भारत में अपरोक्ष हस्तक्षेप करने वाली विदेशी शक्तियों को निराशा हुई है. यहां धर्म परिवर्तन कराने वाले मायूस हैं. एमनेस्टी की रिपोर्ट में यही मानसिकता दिखाई दे रही है.

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विदेशों में बैठी भारत विरोधी शक्तियों से कोई शिकायत नहीं हो सकती. उनसे हम नेकनीयत की उम्मीद भी कैसे कर सकते हैं. शिकायत तो अपने ही लोगों से है. राजनीतिक विरोध का अधिकार तो संविधान ही देता है. उसमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती, लेकिन नरेन्द्र मोदी का विरोध इस हद तक भी नहीं होना चाहिए कि उससे राष्ट्रहित की अवहेलना होने लगे. विरोध में जिन मुद्दों को उठाया गया, उनसे यही साबित हुआ.

एमनेस्टी की अभी जारी रिपोर्ट में असहिष्णुता बढ़ने और पुरस्कार लौटाने की चर्चा है. क्या बिहार चुनाव के पहले चले इस अभियान को एमनेस्टी रिपोर्ट की पृष्ठभूमि में नहीं देखना चाहिए. बिसहड़ा की घटना निंदनीय थी, लेकिन यह भारत की वास्तविक तस्वीर नहीं थी. इसके बावजूद पुरस्कार लौटाने वालों ने देश को बदनाम किया. अब पुरस्कार लौटाने वाले सभी विद्वान पुनः गुमनामी में जा चुके हैं, लेकिन एमनेस्टी आज भी इसे जिन्दा रखे है. क्या पुरस्कार लौटाने वाले इस समानता पर कुछ बोलेंगे. इसके बाद हैदराबाद व जेएनयू के कुछ छात्रों ने अफजल, कसाब आदि पर आयोजन किए. इसका विरोध हुआ तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला अभियान शुरू हो गया. एमनेस्टी रिपोर्ट में इसका भी उल्लेख है. इसी प्रकार गुजरात व हरियाणा के आरक्षण आन्दोलन को हिंसक रूप दिया गया. सच्चाई सामने आ रही है. क्या यह कहना गलत होगा विदेशों से चंदा लेकर संदिग्ध गतिविधि चलाने पर प्रतिबन्ध क्या लगा, भारत को बदनाम करने की सुनियोजित साजिश चल पड़ी है. इससे सावधान रहना होगा.

लेखक

डा. दिलीप अग्निहोत्री डा. दिलीप अग्निहोत्री @dileep.agnihotry

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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