'चंदा बंद, धंधा बंद' है मोदी विरोध की असल वजह
मोदी ने आते ही जो शुरुआती डंडा चलाया उसके तहत सीधा हमला उन तथाकथित गणमान्यों पर हुआ जो बिना हिसाब दिए विदेशी चंदे पर पल रहे थे. चंदा आ तो बेहिसाब रहा था लेकिन जा कहां रहा था इसका कोई लेखा-जोखा नहीं था. इसी नस पर मोदी ने ऊंगली क्या रख दी, मच गया चौतरफा कोहराम.
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पिछड़े डेढ़-दो साल से इस मुल्क में अघोषित एजेंडे के तहत अजीब सा माहौल दिखाने का मीडियाई मंचन चल रहा है. निर्देशन से लेकर पटकथा तक और मंचन से लेकर मुनादी तक, सबकुछ तय एजेंडे से हो रहा है. ऐसा करने वाले कोई और नहीं बल्कि वही लोग हैं जो कभी नरेंद्र मोदी पर फब्तियां कसते थे और देश की अस्मिता की परवाह किये बगैर उनके खिलाफ अमेरिका में वीजा रुकवाने का लेटर लिखते थे. सेक्युलर कबीले के ये लोग मोदी का नाम लेकर लोगों को डराते भी थे. लेकिन इनकी तमाम कोशिशों के बावजूद मोदी प्रचंड बहुमत से जीतकर आ गये. अमेरिका ने भी सर आँखों पर बिठा दिया. जिनको डराया गया वो आज पहले से ज्यादा सुरक्षित हैं. अब चूँकि सरकार तो बदल ही गयी थी लेकिन सरकार चलाने की संस्कृति भी बदल गयी है. सरकार चलाने की संस्कृति का यह बदलाव ही इस छटपटाहट की मूल वजह है. अब केंद्र में जो सरकार है वो 'मौन' सरकार नहीं है बल्कि 'बोलती' हुई सरकार है. मोदी ने आते ही जो शुरुआती डंडा चलाया उसके तहत सीधा हमला उन तथाकथित गणमान्यों पर हुआ जो बिना हिसाब दिए विदेशी चंदे पर पल रहे थे. चंदा आ तो बेहिसाब रहा था लेकिन जा कहां रहा था इसका कोई लेखा-जोखा नहीं था. इसी नस पर मोदी ने ऊंगली क्या रख दी, मच गया चौतरफा कोहराम!
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पिछले साल ही ये खबर आई थी कि मोदी सरकार ने विदेशी चंदे पर पल रहे उन 9000 से ज्यादा गैर-सरकारी संगठनों का पंजीकरण लाइसेंस निरस्त कर दिया है, जिन्होंने विदेशी चंदा अधिनियम कानून अर्थात एफसीआरए का उलंघन किया है. 16 अक्तूबर 2014 को गृहमंत्रालय द्वारा कुल 10343 गैर-सरकारी संगठनों को वर्ष 2009 से लेकर 2012 तक मिले विदेशी चंदे का ब्यौरा माँगा गया था. जवाब के लिए तय 1 महीने की समय सीमा बीत जाने के बाद तक मात्र 229 गैर-सरकारी संगठनों ने इसका जवाब दिया. बड़ा सवाल ये कि बाकी संस्थाओं ने हिसाब क्यों नहीं दिया? क्या दाल में कुछ काला था या कहीं पूरी दाल तो काली नहीं थी? चंदे के धंधे से फल-फूल रहे इस कारोबार पर लगाम लगाने की कवायदों में ही केंद्र सरकार ने अमेरिका के बहु-चर्चित फोर्ड फाउंडेशन द्वारा भारत में दिए चंदे को निगरानी में रखने का आदेश जारी किया था. अगर बारीकी से मामलों को देखा जाय तो फोर्ड फाउन्डेशन पर सरकार की सख्त निगरानी बहुत पहले रखी जाने चाहिए थी, लेकिन न जाने किस परस्पर हितों को साधने के लिए पिछली संप्रग सरकार ने फोर्ड फाउन्डेशन को भारत में बिना किसी निगरानी के काम करने और पैसा देने की खुली छूट दे रखी थी.
फोर्ड फाउंडेशन का 'तीस्ता' कनेक्शन
फोर्ड फाउंडेशन पर गुजरात सरकार की रिपोर्ट में यह कहा गया है कि, सबरंग ट्रस्ट और सबरंग कम्युनिकेशंस ऐंड पब्लिशिंग प्राइवेट लिमिटेड (एससीपीपीएल) फोर्ड फाउंडेशन के प्रतिनिधि कार्यालय हैं और फोर्ड फाउंडेशन लंबी अवधि की अपनी किसी योजना की वजह से इन्हें स्थापित करने के साथ ही इसका इस्तेमाल कर रहा है. फाउंडेशन ने सबरंग ट्रस्ट को 2,50,000 डॉलर और एससीपीपीएल को 2,90,000 डॉलर चंदे के तौर पर दिए हैं. बड़ा सवाल ये है कि गैर-सरकारी संगठनों का ताना-बाना बुनकर देश के समाजिक और राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप करने वाले किसी भी किस्म के विदेशी पैसों को निगरानी से बाहर क्यों रखा जाय? जिस सबरंग ट्रस्ट की बात यहां की जा रही है, उसका प्रत्यक्ष जुड़ाव तीस्ता सीतलवाड से है. लिहाजा फोर्ड और तीस्ता सीतलवाड़ के ट्रस्ट के बीच का यह चंदा कनेक्शन साफ समझा जा सकता है. अब चू्ंकि फोर्ड पर लगाम लगाई जा चुकी है तो इनसे सहानुभूति रखने वाले गिरोह की छटपटाहट भी स्वाभाविक है.
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कहाँ के फारवर्ड थे ये?
संप्रग काल में फारवर्ड प्रेस नाम की एक हिंदी-अंग्रेजी पत्रिका भी बेहद संदिग्ध ढंग से उलूल-जुलूल विमर्शों को समय-समय पर हवा देती रही है. चाहे महिषासुर को मनगढ़ंत ढंग से स्थापित करने की असफल कोशिश का मामला हो अथवा विलियम कैरी को अगस्त-2011 के अंक में आधुनिक भारत का पिता बताने की कोशिश हो, ये पत्रिका लागातार ऐसे एजेंडे पर काम करती रही. जिस विलियम कैरी को 'आधुनिक भारत का पिता' लिखा गया है, उसका योगदान भारत में महज बाइबिल का भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने से ज्यादा कुछ भी नहीं है. विलियम कैरी एक चर्च के पादरी भी रहे हैं. फारवर्ड प्रेस पत्रिका कांग्रेस-नीत सरकार के दौरान 2009 में शुरू होती है और दिल्ली के एक महंगे इलाके में सहजता से दफ्तर भी मिल जाता है. 2009 से अब तक इस पत्रिका की छपाई एवं कागज आदि की गुणवत्ता में कोई कमी नहीं आई थी, जबकि सही मायनों में इस पत्रिका के पास विज्ञापन न के बराबर थे. नाममात्र के विज्ञापनों को छोड़ दें तो यह पूरी पत्रिका बिना विज्ञापन के चल रही थी. इस पत्रिका से जुड़े ज्यादातर शीर्ष लोग क्रिश्चियन मिशनरीज से जुड़े हैं. लेकिन अब खबर है कि यह पत्रिका बंद हो रही है. जो पत्रिका संप्रग काल में बेबाक चल रही थी वो अचानक बंद क्यों हो गयी? क्या इसे 'चंदा बंद तो धंधा बंद' मान लिया जाए?
ऐसे में आज जब चारों तरफ नाटकीय ढंग से बुनावटी कोहराम का ढोंग रचा जा रहा है तो यह समझना बिलकुल भी मुश्किल नहीं है कि ये सब क्यों हो रहा है. सीधी सी बात है कि जो लोग बेरोक-टोक के विदेशी पैसों पर पल रहे थे अब उन्हें हिसाब देने के लिए कह दिया गया है. चूँकि हिसाब देने की आदत रही नहीं सो उनसे हिसाब मांगना 'असहिष्णुता' जैसा दिख रहा है. ऐसे में मोदी का विरोध करने के लिए मोदी विरोधी एका की स्थिति स्वभाविक है. चूँकि राजनीति में आने से पहले केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के एनजीओ भी करोड़ों का फंड फोर्ड से लेते रहे हैं, लिहाजा इस एका में उनकी भागीदारी भी कोई नई बात नहीं है. देश में असहिष्णुता सिर्फ उनके लिए है जिनकी अवैध खुराक मोदी ने रोक रखी है. चंदा पर चौकीदारी क्या लगी देश में तथाकथित असहिष्णुता ही आ गयी है.
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