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Updated: 02 अगस्त, 2016 04:46 PM
राकेश उपाध्याय
राकेश उपाध्याय
  @rakesh.upadhyay.1840
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गुजरात की सीएम आनंदीबेन पटेल के इस्तीफे की स्क्रिप्ट पटेल आरक्षण से जुड़े अनामत आंदोलन के अनियंत्रित होते ही लिखी जा चुकी थी, बावजूद इसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से उन पर वरदहस्त कायम था.

भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने गुजरात के राजनीतिक हालात के बारे में वरिष्ठ केंद्रीय नेताओं के साथ बारीक जानकारियां साझा की थीं और दावा किया था कि गुजरात में पटेल आरक्षण आंदोलन को वो काबू कर लेंगी. एक वरिष्ठ नेता को उन्होंने साफ कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भरोसा उन पर कायम है और आंदोलन को नियंत्रित करने के लिए उनकी रणनीति पर आलाकमान सहमत है.

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इलाहाबाद कार्यकारिणी की बैठक के महीने भर के भीतर ही गुजरात के ऊना में दलित समुदाय के साथ बरती गई हिंसक घटना ने अचानक ही पटेल आंदोलन की तपिश से राहत महसूस कर रही आनंदीबेन के लिए मुश्किलों का नया दौर खड़ा कर दिया. इस दलित आक्रोश से निपट पाने की नाकामी ने आखिरकार उन्हें उस उम्र का अहसास करा दिया, जिसमें वो खुदबखुद ही वो इस्तीफा लेकर आगे बढ़ गईं, जिसकी बुनियाद अनामत आंदोलन के दौर में पड़ी थी हालांकि केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें इस्तीफा देने के लिए तब कोई संकेत नहीं भेजा था.

बीजेपी के वरिष्ठ नेताओँ में ये सवाल चर्चा का विषय है कि अचानक आनंदीबेन पटेल ने इस्तीफा क्यों दिया जबकि पार्टी ने उन्हें इस्तीफे के लिए कोई संकेत नहीं भेजा था. सूत्रों का कहना है कि उत्तर प्रदेश चुनाव नतीजों के बाद आनंदीबेन पटेल को इस्तीफे के लिए कहे जाने की बात तो चर्चा में थी लेकिन उन्होंने यूपी चुनाव नतीजों के पहले ही इस्तीफा देकर अचानक आलाकमान के सामने कई तरह की मुश्किलें पेश कर दीं.

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 अमित शाह

सूत्रों का कहना है कि यूपी चुनाव नतीजों के बाद गुजरात की कमान संभालने के लिए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को भी रवाना किया जा सकता था लेकिन अब चूंकि इस्तीफा चुनाव से काफी पहले हो गया है लिहाजा पार्टी के सामने अमित शाह को गुजरात का सीएम बनाने के मुद्दे पर अड़चनें खड़ी हो गई हैं. बीजेपी अमित शाह की अगुवाई में यूपी चुनाव की रणनीति बनाने में जुटी है, और ऐसे वक्त में उन्हें गुजरात भेजते ही यूपी की चुनावी तैयारियों पर जहां असर पड़ना तय है तो केंद्र में अमित शाह की गैरमौजूदगी में अंदुरुनी तौर पर सत्ता समीकरण पर भी नकारात्मक असर पड़ने की गुंजाइश कम नहीं है.

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सूत्रों का कहना है कि बीजेपी के वरिष्ठ नेता अमित शाह को गुजरात भेजने पर इसलिए भी तैयार नहीं है कि ‘गुजरात के सीएम की खोज के साथ बीजेपी के नए नेतृत्व की खोज का संकट पैदा करना चुनावी साल में बात बनाने की बजाए बिगाड़ सकता है.’ युद्ध का नियम भी कहता है कि जब सेनाओं के रण में उतरने का समय हो तो सर्वोच्च सेनापति को बदलने का जोखिम नहीं उठाया जाना चाहिए.

गुजरात की इस राजनीतिक परिस्थिति में बीजेपी आलाकमान की नजरें सबसे ज्यादा जिस नेता पर टिकीं हैं वो हैं नितिन पटेल. नितिन पटेल पाटीदार समुदाय से जुड़े नेता हैं, न सिर्फ पीएम मोदी और अमित शाह से उनके रिश्ते मधुर हैं बल्कि पाटीदारों के कद्दावर नेता रहे केशुभाई पटेल समेत मोदी-शाह विरोधी पटेल नेताओं के बीच भी उनकी छवि गैरविवादित नेता की बनी हुई है. 1990 से वो लगातार बीजेपी के विधायक हैं और केशुभाई पटेल की सरकार में भी वो मंत्री रहे. मेहसाणा के रास्ते में कल्लोल के पहले कड़ी के रहने वाले नितिन पटेल का ताल्लुक किसान परिवार से है और उनकी छवि बिल्कुल विनम्र नेता के साथ जनता के बीच घुले-मिले रहने वाले नेता की भी है। गुजरात में आरएसएस और वीएचपी के साथ उनका रिश्ता भी बाकी नेताओं की तुलना में बेहतर बताया जाता है. इस मामले में वो विजय रुपाणी, पुरुषोत्तम रुपाला और सौरभ पटेल से ज्यादा सक्षम नेता माने जाते हैं जिनकी बीजेपी विरोधी पटेल नेताओं की लॉबी में भी पकड़ मजबूत है. जाहिर तौर पर पटेल आंदोलन से निपटने में बीजेपी उनके अनुभव का लाभ उठा सकती है.

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बीजेपी में अंदुरुनी तौर पर मुख्यमंत्री पद के लिए लॉबिंग में पुरुषोत्तम रूपाला भी जुटे हुए हैं. वो गुजरात में नरेंद्र मोदी के दाहिने हाथ के रूप में भी जाने जाते रहे हैं, गुजरात बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके हैं लेकिन सबको साथ लेकर चलने की कसौटी पर उनका नाम बीजेपी और संघ के सामने खरा साबित नहीं हो सका है. सूत्रों का कहना है कि मौजूदा हालात में बीजेपी को अमित भाई शाह और नितिन भाई पटेल में नए मुख्यमंत्री का चुनाव करना है और दोनों के साथ अपने अपने समीकरण जुड़े हुए हैं. आनंदीबेन पटेल ने इस्तीफे का दांव ऐसे वक्त चला है जबकि अमित शाह के सामने यूपी फतह की चुनौती खड़ी थी, और अब सवाल ये भी खड़ा है कि अगर गुजरात के अपने घर में ही बीजेपी किसी वजह से चुनावी मोर्चे पर नाकाम हो गई तो फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केंद्रीय सत्ता के लिए भविष्य के रास्ते कितने दुर्गम होंगे, इसकी कल्पना भी बीजेपी के रणनीतिकारों को भीतर तक हिला रही है.

लेखक

राकेश उपाध्याय राकेश उपाध्याय @rakesh.upadhyay.1840

लेखक भारत अध्ययन केंद्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं

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