राहुल गांधी न बदले हैं, न बदलने वाले हैं - ये सच स्वीकार कर लेना चाहिये
राहुल गांधी के आंख मारने का तीसरा वाकया सार्वजनिक तौर पर दर्ज किया जा चुका है. अब वक्त आ गया है कि राहुल गांधी खुद इस बात को साफगोई से स्पष्ट कर दें कि इसे किस रूप में लिया जाये?
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अब तक जो लोग ये मान कर चल रहे हैं कि राहुल गांधी बहुत बदल गये हैं, उन्हें निराशा हो सकती है. राहुल गांधी ओरिजिनल होने में यकीन रखते लगते हैं. ऐसे मामलों में बदलाव की कम ही गुंजाइश होती है. ऐसा भी नहीं कि राहुल गांधी किसी तरह के बदलाव में यकीन ही नहीं रखते. दरअसल, ये बदलाव वो खुद में नहीं बल्कि सिस्टम में जरूरी मानते हैं और उसके लिए लगातार संघर्षरत हैं.
भरी संसद में लाइव टीवी पर फिर से आंख मार कर राहुल गांधी ने साफ कर दिया है कि न तो वो बदले हुए हैं - और न ही बदलने वाले. वो जैसे हैं उसी स्वरूप में स्वीकार करना होगा.
राहुल गांधी ने फिर आंख मारी है
लोकसभा में राफेल डील पर नियम 193 के तहत हुई चर्चा में रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन ने कांग्रेस के आरोपों का जवाब दे रही थीं. रक्षा मंत्री इस दौरान राहुल गांधी की उस प्रेस कॉन्फ्रेंस का भी जिक्र किया जिसमें उन पर झूठ बोलने का आरोप लगाया गया था. साथ ही, निर्मला सीतारमन ने फ्रांस के राष्ट्रपति से राहुल गांधी की बातचीत के सबूत भी मांगे.
1. संसद में निर्मला सीतारमन के जवाब के दौरान AIADMK सांसद एम. थंबीदुरई जब कुछ काउंटर सवाल कर रहे थे, तो राहुल गांधी मेज थपथपाते हुए साथी सांसदों की ओर देखा और आंख मार दी. लाइव कैमरों के जरिये राहुल गांधी की ये तस्वीर देखते देखते वायरल हो गयी.
2. जुलाई, 2018 में भी अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान भी राहुल गांधी अपना भाषण पूरा कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सीट के पास पहुंच कर गले मिले. जब अपनी सीट पर आकर बैठे तो साथी सांसदों से इशारों में जो भी बात हुई हो - देखा तो सबने आंख मारते ही.
3. मई 2014 में चुनाव नतीजे आने के बाद सोनिया गांधी ने कांग्रेस की हार स्वीकार करते हुए बीजेपी को जीत के लिए बधाई दी. सोनिया से पहले राहुल गांधी अपनी बात कह चुके थे. सोनिया की बगल में खड़े राहुल गांधी को तब भी आंख मारते देखा गया था.
मुद्दा ये नहीं है कि आंख मारने को किस नजरिये से देखा जाता है? ये भी नहीं कि उसे सभ्य या असभ्यता के पैमाने में तौला जाये या नहीं?
मुद्दा ये है कि किसी गंभीर मसले पर आंख मारने को एनडोर्समेंट समझा जाये या माखौल उड़ाना? कॉम्प्लीमेंट समझा जाये या मजाक उड़ाना?
राहुल गांधी में साफगोई तो है
ऐसा माना गया कि सैम पित्रोदा के दिशानिर्देशन के चलते राहुल गांधी में काफी बदलाव देखने को मिला. वो लोगों से हंस हंस कर बात करते रहे. उनकी बातें सुनते रहे. किसानों, कारोबारियों, बेरोजगार नौजवानों और महिलाओं के बीच जाकर उनके साथ होने का यकीन दिलाते रहे. सत्ता के खिलाफ विरोध की बुलंद आवाज बनने के चक्कर में सीधे हमले और चोर कहने में भी गुरेज नहीं किये. पूरे विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान 'चौकीदार चोर है' जैसे नारे लगवाते रहे.
20 जुलाई, 2018 को अविश्वास प्रस्ताव के दौरान भी राहुल गांधी ने आंख मारी थी
जिस दिन संसद में पीएम मोदी से गले मिलने और आंख मारने वाली घटना हुई उसी दिन राहुल गांधी ने कहा था, "मैं बीजेपी के लिए पप्पू हो सकता हूं लेकिन मेरे दिल में उनके लिए हमेशा प्यार रहेगा... मैं बीजेपी और आरएसएस का आभारी हूं जिन्होंने मुझे धर्म सिखाया. इन लोगों ने मुझे हिन्दुस्तानी होने का मतलब समझाया. मैं इसी तरह उनसे प्यार करूंगा और उन्हें कांग्रेस की तरफ लाने की कोशिश करूंगा." निश्चित तौर पर राहुल गांधी में साफगोई है जो दाद के काबिल है - और इस बात का अंदर से एहसास भी कि 'मैं जैसा भी हूं, वैसा हूं.'
1. बहुत पहले एक प्रेस कांफ्रेंस में सीबीआई के दुरुपयोग को लेकर राहुल गांधी से सवाल पूछा गया था तो उन्होंने माना - हां, थोड़ा बहुत दुरुपयोग होता है. ऐसा सरेआम डंके की चोट पर कौन कह सकता है भला? ये स्वीकार करने के लिए साफगोई की जरूरत होती है.
2. 'मेरा भाषण कोई और लिखता है.' ये सरेआम कौन स्वीकार करता है? इसे भी स्वीकार करने के लिए हिम्मत चाहिये.
3. राहुल गांधी ने एक बार कहा था - मेरे ऑफिस में एक लड़का है. वही कहानियां सुनाता है. राहुल गांधी उन कहानियों की बात कर रहे थे जो उनके भाषणों में जब तक सुनने को मिलती रहती हैं. ऐसे कौन कह सकता है?
लेकिन ये सारी बातें तब हल्की लगने लगती हैं, जब किसी गंभीर बहस के बीच राहुल गांधी साथियों को देख कर आंख मार देते हैं.
राहुल के लिए राजनीति अब भी तफरीह तो नहीं?
2012 एक किताब आयी थी - 'डिकोडिंग राहुल गांधी'. आरती रामचंद्रन की इस किताब का हवाला देते हुए द इकोनॉमिस्ट ने जब एक लेख छापा तो तहलका मच गया.
'द राहुल प्रॉब्लम' शीर्षक से प्रकाशित लेख में कहा गया, "किताब के मुताबिक, ऐसा साफ लगता है कि ब्रांड राहुल पूरी तरह से कनफ्यूज्ड है. एक व्यक्ति जिसके पास हर तरह की सुविधाएं हैं, जो सिर्फ अपने परिवार की वजह से खड़ा है, वो अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिए जूझता दिखता है."
उसी दौरान बीबीसी से बातचीत में पत्रकार आरती रामचंद्रन ने कहा था, "उन्होंने किसी राज्य में अपना प्रभाव नहीं दिखाया है कि वो वहां चुनावों के नतीजों को बदल सकते हैं."
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनवाकर राहुल गांधी इस बात का जवाब दे चुके हैं. बावजूद इसके ऐसा क्यों लगता है कि राहुल गांधी वास्तव में राजनीति को तफरीह से ज्यादा अहमियत नहीं दे रहे हैं.
अब तो राहुल को ही समझाना होगा उनकी आंखों के इशारे को क्या समझा जाये
अमेरिका में बर्कले यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में राहुल गांधी ने कहा था कि भारत में वंशवाद की राजनीति ही सभी पार्टियों की समस्या है. देश में ज्यादातर ऐसा ही चल रहा है. राहुल गांधी का ये बयान खुद के लिए भी कबूलनामा ही रहा. राहुल गांधी के उस बयान को याद करने पर लगता है जैसे ये सब खानदानी बिजनेस है और उसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी भी है.
हाल के दिनों में राहुल गांधी कभी जनेऊधारी हिंदू, तो कभी शिव-भक्त के रूप में पेश किये जाते रहे हैं. राजनीति में ऐसी ड्रामेबाजी महती जरूरत हो सकती है, लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि राहुल गांधी इन सब के बीच महज किरदार बन कर रह गये हैं. उनके भाषण, भाषण के वक्त उनकी भाव-भंगिमा कैसी हो ये सब कोई और तय करता है. राजनीति में सलाहकारों की जरूरत तो होती है, लेकिन हर वक्त किसी डायरेक्टर का किरदार बन कर राजनीति नहीं हो सकती.
अगर राहुल गांधी ऐसे मामलों में भी साफगोई नहीं रखे तो लंबी पारी मुश्किल होगी. फिर तो हर राजनीतिक पड़ाव तफरीह का हिस्सा बन कर रह जाएगा. ओरिजिनल के नाम पर मौके-बे-मौके आंख मारना ही नजर आएगा.
वैसे अब वो वक्त भी आ गया है जब राहुल गांधी को पूरी साफगोई से आंखों के इस खेल के बारे में भी स्थिति स्पष्ट कर ही देने चाहिये. एक बार राहुल गांधी ने खुद इसके मायने समझा दिये तो बाकियों को अपने अपने तरीके से डिकोड करने की जरूरत नहीं रह जाएगी.
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