क्या ED की पूछताछ से राहुल गांधी की विश्वसनीयता खत्म हो सकती है?
राहुल गांधी (Rahul Gandhi Credibility) से प्रवर्तन निदेशालय की पूछताछ (ED Questioning) को लेकर अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) का कहना है कि ये गांधी परिवार की विश्वसनीयता खत्म करने की कोशिश है - क्या वास्तव में कांग्रेस नेता की विश्वसनीयता पर ऐसा होने से कोई फर्क पड़ेगा?
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi Credibility) को भी प्रियंका गांधी वैसे ही प्रवर्तन निदेशालय के दफ्तर तक छोड़ रही हैं, जैसे 2019 के आम चुनाव से पहले पति रॉबर्ट वाड्रा को छोड़ा करती थीं - पूछताछ के लिए राहुल गांधी के ईडी दफ्तर में जाने से पहले अशोक गहलोत भी पहुंचे थे.
कांग्रेस ने तैयारी तो पहले से ही कर रखी थी और उसी के हिसाब से कार्यकर्ता जगह जगह विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. कांग्रेस कार्यकर्ताओं का कहना है कि जो बाहर से आना चाहते हैं, उनको दिल्ली में पुलिस नहीं घुसने दे रही है. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कह रहे हैं कार्यकर्ताओं को कांग्रेस मुख्यालय में भी नहीं जाने दिया जा रहा है.
कांग्रेस की प्रेस कांफ्रेंस में भूपेश बघेल ने कहा, 'पहले दिन दो सौ लोगों को अनुमति मिली थी, कल कुछ नेताओं को अनुमति दी गई - और आज तो हद हो गई कि हम अपने स्टाफ को भी नहीं ला सकते हैं... हमसे कहा गया कि केवल दो मुख्यमंत्री ही आ सकते हैं और लोग नहीं आ सकते हैं.'
भूपेश बघेल पूछते हैं, 'किस प्रकार से हम पार्टी कार्यालय में पहुंचें... ऐसी स्थिति पहले नहीं हुई थी... पहली बार किसी पार्टी के कार्यकर्ता अपनी ही पार्टी के कार्यालय नहीं जा सकते हैं - ये स्थिति बनी क्यों?' भूपेश बघेल का आरोप है कि राहुल गांधी के सवालों से परेशान मोदी सरकार ये सब करा रही है, 'पिछले आठ साल से देश में जो हो रहा है... उसे एक व्यक्ति लगातार केंद्र सरकार की नाकामियों को सबके सामने रख रहा है वो है राहुल गांधी.'
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (Ashok Gehlot), राहुल गांधी और सोनिया गांधी को ईडी के नोटिस को बीजेपी के कांग्रेस मुक्त भारत की मुहिम से जोड़ कर देखते हैं - कहते हैं, 'ये कार्रवाई गांधी परिवार की विश्वसनीयता को खत्म करने के लिए की जा रही है...'
ऐसे में जबकि बरसों बाद कांग्रेस कार्यकर्ता सड़कों पर उतरे और विरोध प्रदर्शन करते नजर आ रहे हैं, पी. चिदंबरम और दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेस नेताओं ने प्रवर्तन निदेशालय के हालिया एक्शन के पीछे की कानूनी प्रक्रिया पर सवाल उठा रहे हैं.
स्वामी ने तो चिदंबरम की डिग्री पर ही सवाल उठा दिया है: पूर्व केंद्रीय मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के वकील पी. चिदंबरम ने सवाल किया था कि मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट के तहत कौन सा अनुसूचित अपराध हुआ है जिसे लेकर ईडी की जांच शुरू की गयी है? चिदंबरम का कहना रहा, 'FIR की कॉपी दिखाएंगे? क्या आप जानते हैं कि अनुसूचित अपराध में अनुपस्थित रहने और एफआईआर न करने के कारण ईडी को पीएमएलए के तहत जांच शुरू करने का कोई अधिकार नहीं है?'
पी. चिदंबरम के सवालों का जवाब बीजेपी नेता सुब्रह्मण्यन स्वामी ने ट्विटर पर दिया है. ये स्वामी ही हैं जिनकी शिकायत पर मामला यहां तक पहुंचा है - और अदालत के आदेश पर ही जांच का ये सिलसिला आगे बढ़ा है. अब ये देखना होगा कि जांच की किस कड़ी को प्रवर्तन निदेशालय (ED Questioning) राहुल गांधी और सोनिया गांधी से जोड़ कर चीजों को समझना चाहता है?
बीजेपी सांसद सुब्रमण्यन स्वामी ने चिदंबरम को ट्विटर पर टैग तो नहीं किया है, लेकिन लिखा है, 'एफआईआर के बारे में पूछना ही बेवकूफी है... ये शिकायत का मामला है... उनकी कानूनी डिग्री ही रद्द की जानी चाहिये.'
How stupid of PC to ask for FIR. This is a Complaint case. His law degree should be quashed.
— Subramanian Swamy (@Swamy39) June 15, 2022
विश्वसनीयता पर सवाल कब उठता है?
विश्वसनीयता को चुनौती मिलना स्वाभाविक है. विश्वसनीयता वो चैलेंज है जिससे हर किसी को गुजरता पड़ता है. विश्वसनीयता खुद ही साबित करनी होती है - और इसे एक बार साबित कर देने के बाद विश्वसनीयता बढ़ भी जाती है.
राहुल गांधी को तो विश्वसनीयता की लड़ाई लड़नी ही पड़ेगी
ऐसा भी नहीं कि जो सार्वजनिक जीवन में हैं, सिर्फ उनके सामने ही विश्वसनीयता की चुनौती होती है. हर घर में. हर परिवार में. किसी की भी विश्वसनीयता पर सवाल उठ सकता है - कोई भी हो, अगर वो ऐसा कोई काम नहीं कर पाता जिसे लेकर उससे अपेक्षा होती है, तो उस शख्स की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आ जाती है.
ऐसा भी नहीं कि विश्वसनीयता की चुनौती सिर्फ राजनीति में ही है. सार्वजनिक जीवन में भी हर किसी की अपनी विश्वसनीयता होती है - एक नेता की भी, एक अभिनेता की भी.
विश्वसनीयता को ही एक ब्रांड की तरह समझ सकते हैं. जब भी किसी ब्रांड पर सवाल उठता है तो मुश्किलें बढ़ जाती है - जैसे एक बार नेस्ले की मैगी पर भी उठे थे, लेकिन जांच पड़ताल के बाद उसने दोबारा विश्वसनीयता हासिल कर ली.
अगर आपको ध्यान हो, जब मैगी की विश्वसनीयता पर सवाल उठे थे. जांच पड़ताल और छापेमारी चल रही थी, तभी नूडल्स का एक नया ब्रांड मार्केट में आया था. बाद में दोनों ब्रांड मार्केट में जम गये. मैगी पर सवाल उठाने के पीछे भी नये और पुराने ब्रांड के बीच भी बाजार की प्रतिद्वंद्विता ही समझ आयी - अगर राजनीति के मौजूदा दौर से तुलना करें तो हर बात आसानी से समझ आ जाएगी.
कांग्रेस के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत आज भले ही राहुल गांधी की विश्वसनीयता को खतरे में डालने का दूसरों पर इल्जाम लगा रहे हों, लेकिन देखा तो ये भी गया कि कैसे 2019 के आम चुनाव से पहले राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़ा कर दिया था - और आगे नतीजा क्या हुआ, सब इसके भी गवाह हैं.
राहुल गांधी ने ही उठाया था मोदी की विश्वसनीयता पर सवाल: शुरुआत तो राहुल गांधी ने पहले ही कर दी थी, लेकिन 2019 के आम चुनाव में अपने हर चुनाव कार्यक्रम में एक नारा खुद भी लगाते थे, लोगों से भी लगवाते थे - 'चौकीदार चोर है!'
राहुल गांधी के ये चुनावी स्लोगन गढ़ने के पीछे प्रधानमंत्री मोदी का ही एक बयान रहा, जिसमें वो खुद को देश का चौकीदार बताये थे. राहुल गांधी चुनावों से पहले राफेल डील का मुद्दा उठा रहे थे. हालांकि, एक बार सुप्रीम कोर्ट का नाम ले लेने के कारण राहुल गांधी को अवमानना से बचने के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत से भी माफी मांगनी पड़ी थी. क्योंकि बीजेपी नेता मीनाक्षी लेखी ने सुप्रीम कोर्ट में राहुल गांधी के खिलाफ शिकायत दर्ज करायी थी.
राहुल गांधी के स्लोगन का काउंटर करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को खुद आगे आना पड़ा. सबसे पहले मोदी ने ही अपने नाम से पहले ट्विटर पर चौकीदार जोड़ लिया, फिर देखा देखी आगे पीछे सभी बीजेपी नेता और समर्थकों ने भी अपने नाम से पहले चौकीदार लगा लिया.
मतलब, चुनावी मैदान में खड़े होकर मोदी कहने लगे थे - हां, मैं चौकीदार हूं. ऐसा करके लोगों के सामने मोदी ने खुद को पेश कर दिया कि वे जनादेश देकर बतायें कि चौकीदार को लेकर वे क्या सोचते हैं - क्या चौकीदार वास्तव में 'चोर' है?
आम चुनाव में देश की जनता ने पांच साल पहले से भी ज्यादा सीटें देकर सरेआम ऐलान कर दिया - नहीं, चौकीदार चोर नहीं है. हरगिज नहीं है.
फिर तो जनादेश से यही मालूम होता है कि लोगों ने राहुल गांधी के बजाये मोदी पर भरोसा किया. मोदी के प्रति लोगों की विश्वसनीयता बरकरार रही, लेकिन राहुल गांधी के प्रति लोगों ने अविश्वास जता दिया. जिस अमेठी की सीट को गांधी परिवार का बरसों से गढ़ माना जाता रहा, वहां से भी लोगों ने राहुल गांधी को पैदल करते हुए गुजरात से आकर चुनाव लड़ रहीं स्मृति ईरानी को तरजीह दी.
राहुल गांधी केरल के वायनाड से तो चुनाव जीत चुके थे, लेकिन कांग्रेस की हार की जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था. तबसे लेकर अब तक वो फिर से कांग्रेस अध्यक्ष बनने को तैयार नहीं लगते.
देखा जाये तो विश्वसनीयता की चुनौती तो मोदी भी झेल चुके हैं, लेकिन जब उससे उबर गये तो विश्वसनीयता बढ़ गयी. ऐसा भी नहीं कि 2019 में मोदी की विश्वसनीयता को पहली बार कांग्रेस की तरफ से चैलेंज किया गया था - 2002 के गुजरात दंगों को लेकर सोनिया गांधी और तमाम कांग्रेस नेता मोदी को बार बार ऐसे ही चैलेंज करते रहे.
लालू यादव की विश्वसनीयता मिसाल है: विश्वसनीयता का जिक्र होने पर चारा घोटाले में भ्रष्टाचार के लिए सजायाफ्ता लालू प्रसाद यादव भी एक सटीक उदाहरण हैं.
राहुल गांधी तो भ्रष्टाचार के केस में पहले से ही जमानत पर हैं और अभी तो सिर्फ पूछताछ हो रही है, लालू यादव तो सजा होने की वजह से लोक सभा की सदस्यता भी गंवा दिये थे - और आगे के लिए उनके चुनाव लड़ने पर भी रोक लग गयी. ये बात अलग है कि बीच बीच में जमानत पर छूट कर आने के बाद राजनीतिक अखाड़े में विरोधियों को ललकारते भी रहते हैं. कभी जातीय जनगणना के बहाने तो कभी किसी और बहाने.
लालू यादव भ्रष्टाचार के दोषसिद्ध अपराधी हैं और एक बार फिर जमानत पर जेल से बाहर हैं, लेकिन आज भी बिहार में लालू यादव के समर्थक मानते हैं कि उनके नेता के खिलाफ राजनीतिक विरोधियों ने साजिश रची - और जेल भेज दिया गया.
वस्तुस्थिति ये है कि कई साल की जांच पड़ताल और लंबे ट्रायल के बाद लालू यादव को दोषी पाया गया और फिर कोर्ट से सजा मुकर्रर हुई - लेकिन, आलम ये है कि लालू यादव के समर्थक मानते हैं कि साजिशों से न्यायपालिका भी दूर नहीं रह सकी.
आखिर ये लालू यादव की विश्वसनीयता नहीं है तो क्या है? क्या राहुल गांधी के साथ भी ऐसा ही है? अगर ऐसा है तो चिंता किस बात की - और अगर ऐसा नहीं है तो फिक्र करने क्या फायदा?
2015 ही नहीं, 2020 के भी बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे यही बता रहे हैं कि अदालत से दोषी साबित कर दिये जाने के बाद जेल की सजा काट रहे लालू यादव के प्रति लोगों की विश्वसनीयता घटने के बजाय बढ़ी ही है.
2014 के आम चुनाव के जरिये बीजेपी केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता तभी शिखर पर पहुंच गयी थी, लेकिन बिहार में लालू यादव ने बीजेपी के ही पुराने साथी नीतीश कुमार से हाथ मिलाया और डंके की चोट पर जीत हासिल की. प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की जोड़ी सब कुछ होते हुए भी हाथ मलती रह गयी.
2020 के चुनाव में लालू यादव जेल में थे, लेकिन बगैर उनके जिक्र के राजनीतिक विरोधियों का शायद ही कोई चुनावी कार्यक्रम पूरा हुआ होगा. तब तो लालू यादव के महागठबंधन के नेता रहे नीतीश कुमार भी बीजेपी के पाले में पहले से ही आ रखे थे, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के पूरा जोर लगाने और बीजेपी के चिराग पासवान जैसे चुनावी हथियार के इस्तेमाल के बावजूद पार्टी तब दूसरे नंबर पर ही आयी थी.
ये हाल तब का है जब तेजस्वी यादव ने अपने स्तर पर अभी तक अलग से कुछ भी नहीं किया है. अपनी कोई नयी पहचान नहीं बनायी है - जो भी है लालू यादव का ही है. 2020 में आरजेडी अगर बिहार में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी तो उसके पीछे लालू यादव की विश्वसनीयता का ही सबसे बड़ा योगदान रहा है.
राहुल गांधी की विश्वसनीयता का स्टेटस क्या है?
2014 के आम चुनाव में तो कांग्रेस मोदी लहर में बिखर गयी, लेकिन 2019 के चुनाव को तो राहुल गांधी की विश्वसनीयता से ही जोड़ कर देखा जाएगा - और उसके बाद के भी चुनावों में कांग्रेस की लगातार हार ने सवाल तो राहुल गांधी की विश्वसनीयता पर ही उठाया है.
2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के गठबंधन साथी रहे, समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव ने राहुल गांधी के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाई पर सवाल तो उठाया ही है, इसे मोदी सरकार के कामकाज से जोड़ दिया है.
ED का मतलब अब ‘Examination in Democracy’ बन गया है। राजनीति में विपक्ष को ये परीक्षा पास करनी होती है। जब सरकार स्वयं फ़ेल हो जाती है तब वो इस परीक्षा की घोषणा करती है। जिनकी तैयारी अच्छी होती है वो न तो लिखा-पढ़ी की परीक्षा से डरते हैं, न मौखिक से… और कभी डरना भी नहीं चाहिए।
— Akhilesh Yadav (@yadavakhilesh) June 15, 2022
2017 में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में से दो तो राहुल गांधी से सीधे सीधे जुड़े हुए थे - उत्तर प्रदेश और पंजाब चुनाव. ऐसे ही 2018 में हुए तीन राज्यों के चुनाव को भी राहुल गांधी की विश्वसनीयता से जोड़ कर समझा जाना चाहिये.
2018 में राजस्थान विधानसभा के चुनाव में निश्चित तौर पर राहुल गांधी शुरू से ही सक्रिय रहे, लेकिन तब अशोक गहलोत और सचिन पायलट को एकजुट रखना राहुल गांधी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी रही. वैसे ही मध्य प्रदेश में कमलनाथ और तब कांग्रेस में रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया - और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव को.
लेकिन तीनों में से कोई भी चुनाव राहुल गांधी की विश्वसनीयता के बजाये, कांग्रेस के क्षेत्रीय नेताओं की विश्वसनीयता पर लड़े गये थे - राजस्थान में अशोक गहलोत, मध्य प्रदेश में कमलनाथ और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के चेहरे पर ही चुनाव लड़ा गया.
2017 के यूपी चुनाव में बेशक राहुल गांधी की विश्वसनीयता को ही आगे किया गया था, लेकिन पंजाब में मोर्चे पर कैप्टन अमरिंदर सिंह का ही चेहरा रहा - और दोनों चुनावों के नतीजे राहुल गांधी की विश्वसनीयत के सवाल का जवाब हैं. पंजाब में कांग्रेस ने सरकार बनायी और यूपी में हवा हो गयी. अखिलेश यादव को भी सत्ता से बाहर हो जाना पड़ा.
राहुल गांधी की विश्वसनीयता बढ़ सकती है, बशर्ते... राहुल गांधी के खिलाफ ईडी की जांच पड़ताल और पूछताछ कानूनी मुश्किलों से भरी जरूर है, लेकिन ये कोई अंतिम चीज नहीं है.
प्रवर्तन निदेशालय भले ही राहुल गांधी को गिरफ्तार करके जेल भेज दे, लेकिन उससे भी राहुल गांधी को कुछ नहीं होने वाला - इसरो के वैज्ञानिक नंबी नारायण को 25 साल जरूर लगे, लेकिन आखिरकार वो बाइज्जत बरी होकर निकले और अदालत ने उनको हुई परेशानी के लिए सरकार से मुआवजा देने का भी आदेश पारित किया.
अगर राहुल गांधी भी एक बार अदालती प्रक्रिया से गुजर का पाक साफ आ जाते हैं, फिर तो विश्वसनीयता अपनेआप बढ़ जाएगी और किसी के पास बोलने का मौका भी नहीं रह जाएगा. ये तो खुद राहुल गांधी ही हैं जो कभी भूकंप लाने की बात करके तो कभी मोदी से गले मिल कर आंख मार देने की वजह से निशाने पर आ जाते हैं. बीजेपी नेता तो बात बात पर राहुल गांधी को 'पप्पू' बताने की कोशिश करते हैं और अपनी तरफ से लोगों को ऐसे समझाते हैं कि वे उनकी बात मान भी लें, लेकिन मौका तो राहुल गांधी ही मुहैया कराते हैं.
अगर अशोक गहलोत को पक्का यकीन है कि राहुल गांधी की विश्वसनीयता खत्म करने के लिए प्रवर्तन निदेशालय ये सब कर रहा है, तो सड़क पर विरोध प्रदर्शन के साथ साथ सीधे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना चाहिये. अदालत से गुजारिश करनी चाहिये कि अगर मुमकिन हो तो केस को प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई का इंतजाम हो. अगर राहुल गांधी और सोनिया गांधी दोषी हैं तो उनको सजा सुना दी जाये - और नहीं तो बाइज्जत बरी किया जाये, ताकि वो अपनी विश्वसनीयता बरकरार रख सकें.
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