आतिशी-आशुतोष समझ लें, केजरीवाल जानते हैं उपनाम में क्या-क्या रखा है
नाम और जाति को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले आशुतोष भूल गए पार्टी सुप्रीमो खुद जातिवाद की राजनीति में महारथ हासिल करे हुए हैं.
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भारत की राजनीति कॉम्प्लिकेटेड है और इससे भी ज्यादा कॉम्प्लिकेटेड हैं हमारे नेता. यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक ऐसे समय में जब नेताओं को विकास, शिक्षा, बेरोजगारी, महंगाई, स्वास्थ्य जैसी चीजों को मुद्दा बनाकर राजनीति करनी चाहिए. हमारे नेता धर्म, जाति, नाम, उपनाम से आगे बढ़ ही नहीं पा रहे हैं. ताजा हालात में मुझे शेक्सपीयर याद आ रहे हैं. शेक्सपियर ने बहुत पहले कहा था 'नाम में क्या रखा है?' मगर बात जब भारत की राजनीति के सन्दर्भ में हो तो भले ही नाम में कुछ हो या न हो. राजनीति में उपनाम का गहरा महत्त्व होता है. यहां उपनाम में बहुत कुछ रखा है. सब कुछ है.
कैसे? ये सवाल जहन में आ सकता है. जवाब हमें बीते दिन घटित हुई एक घटना से जोड़कर देखने में मिल रहा है. आतिशी मार्लेना पूर्वी दिल्ली से आम आदमी पार्टी की उम्मीदवार हैं. खबर थी कि उन्होंने अपना उपनाम हटा दिया है. वजह बस इतनी की इससे उनके ईसाई होने की झलक मिलती है. मामला हाई प्रोफाइल था तो चर्चा में आ गया और खबर बन गई. आरोप-प्रत्यारोप और वाद विवाद का दौर शुरू हो गया.
आतिशी ने सिर्फ इसलिए अपना उपनाम हटाया था क्योंकि इससे उनके ईसाई होने की झलक मिलती है
बात आरोप प्रत्यारोप की चल रही है तो हम "आशुतोष गुप्ता" को नकार नहीं सकते. 'आशुतोष गुप्ता' को हम भले ही न जानते हों मगर 'आशुतोष' से हम सब परिचित हैं. जो आज के आशुतोष हैं, वहीं कल आशुतोष गुप्ता थे. आशुतोष ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के सामने एक अलग तरह की मुसीबत खड़ी कर दी है. आशुतोष की इस करनी के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लगातार आलोचना का शिकार हो रहे हैं.
नाम को लेकर आशुतोष ने अरविंद केजरीवाल को एक बड़ी मुसीबत में डाल दिया है
आशुतोष ने दिल्ली के सीएम पर निशाना साधा है. आशुतोष ने ट्वीट कर कहा कि मेरी 23 साल की पत्रकारिता में मुझसे किसी ने कभी नहीं पूछा कि मेरी जाति और सरनेम क्या है. मुझे मेरे नाम से जाना जाता था. लेकिन 2014 में लोकसभा चुनाव में मुझे पार्टी कार्यकर्ताओं से मिलाया गया तब मेरे विरोध के बावजूद मेरा सरनेम लिखा गया. इसके बाद मुझे कहा गया कि सर आप जीतोगे कैसे, आपकी जाति के यहां काफी वोट हैं.
In 23 years of my journalism, no one asked my caste, surname. Was known by my name. But as I was introduced to party workers as LOKSABHA candidate in 2014 my surname was promptly mentioned despite my protest. Later I was told - सर आप जीतोगे कैसे, आपकी जाति के यहाँ काफी वोट हैं ।
— ashutosh (@ashutosh83B) August 29, 2018
आशुतोष के इस ट्वीट पर अभी चर्चा शुरू ही हुई थी कि अपने को घिरता देख आशुतोष ने एक और ट्वीट किया और कहा कि वो आम आदमी पार्टी पर हमला नहीं बोल रहे थे. उन्होंने कहा, मीडिया के कुछ लोगों ने मेरे ट्वीट का गलत मतलब निकाला है. मैं अब आप के साथ नहीं हूं, मैं खुलकर अपने विचार रख सकता हूं. मुझे बख्श दें. मैं एंटी-आप ब्रिगेड का सदस्य नहीं हूं.
My tweet is misunderstood by TV HAWKS. I am no longer with AAP, not constrained by party discipline and free to express my views. It will be wrong to attribute my words as attack on AAP. It will be gross manipulation of media freedom. Spare me. I not member of anti-AAP BRIGADE.
— ashutosh (@ashutosh83B) August 29, 2018
दूध का जला छांछ भी फूंक-फूंककर पीता है. केजरीवाल को भी इस कहावत का पालन करना चाहिए. यदि कोई ये कहे कि ऐसा क्यों? तो उसको हमारे द्वारा ये बताना बेहद जरूरी है कि चुनाव पूर्व जो वादे और दावे केजरीवाल ने किये थे वो आज खोखले साबित हो रहे हैं. आज से करीब 6 साल पहले 26 नवंबर 2012 को अपनी राजनीति की शुरुआत करने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ये कहा था कि उनकी राजनीति औरों से अलग होगी. केजरीवाल ने ये कहकर लोगों के दिल में सॉफ्ट कॉर्नर हासिल करने का प्रयास किया था कि उनकी राजनीति मुद्दों की होगी.
केजरीवाल ने कहा था कि उनकी राजनीति में गरीब होगा, शोषित और पिछड़े होंगे, आम आदमी होगा और होगी उसकी समस्याएं. ऐसी राजनीति जिसमें धर्म और जाति जैसी चीजों की कोई जगह नहीं होगी. मगर जैसे जैसे वक़्त बीता केजरीवाल भी वैसे ही निकले जैसे अन्य राजनीतिक दल और उनके नेता होते हैं. नाम और उपनाम की राजनीति केजरीवाल के लिए नई नहीं है इसे वो लम्बे समय से करते आए हैं
हो सकता है कि ये कथन विचलित कर दे तो इस बात को हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं. राजनीति में प्रवेश करे हुए केजरीवाल को सिर्फ दो साल हुआ था मगर 29 दिसम्बर 2014 को दिल्ली में व्यापारियों से मिलते हुए केजरीवाल ने इस बात को बिना किसी संकोच के स्वीकार किया था कि वो बनिया हैं और धंधा समझते हैं. केजरीवाल ने ऐसा क्यों किया इसकी वजह भी खासी दिलचस्प थी. चूंकि दिल्ली के वोटरों का एक बड़ा वर्ग व्यापारी है अतः केजरीवाल को उनके इस हथकंडे का फायदा भी मिला और नतीजा आज हमारे सामने है.
आतिशी से लेकर आशुतोष तक आज जो भी नाम और उपनाम के कारण सुर्ख़ियों में हैं उन्हें ये बात माननी होगी कि वो जिस देश में अपनी राजनीतिक पारी खेल रहे हैं वहां नाम और उपमान हमेशा उस रेस को जीता है जिसमें उसके साथ मुद्दे भागे हैं. हमारे देश में राजनेता की पहचान इस बात से नहीं होती कि उसने क्या किया और क्या नहीं किया है. बल्कि वो इस बात से पहचाना जाता है कि उसका नाम क्या है नाम में उपमान क्या है? इन्हें ये भी समझना होगा कि जब पार्टी सुप्रीमो से लेकर अन्य दलों के नेता इसी मुद्दे पर राजनीति कर रहे हैं तो ये मुद्दा अपने आप में प्राथमिक हो जाता है और बाक़ी चीजों को पीछे छोड़ देता है.
आज भले ही आशुतोष अपनी बातों पर अफ़सोस जाता रहे हों. मगर जब वो धैर्य के साथ अपना ट्वीट पढ़ेंगे, अपने बयान के ऑडियो टेप सुनेंगे तो उन्हें मिलेगा कि जिस चीज को लेकर आज वो दुखी हैं वहीं उनकी पार्टी के सुप्रीमो का एक बड़ा हथियार रहा है. केजरीवाल नाम का महत्त्व तो जानते है हैं साथ ही उन्हें ये भी बता है कि नाम में उपनाम क्या कमाल कर सकता है और कैसे किसी को राज से रंक या फिर रंक से राजा बना सकता है.
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