अब आइने में अपनी शक्ल देखे इस्लाम, डरावनी लगने लगी है!
आख़िर क्यों बराक ओबामा को यह कहना पड़ता है कि मुसलमान अपने बच्चों को आतंकवादी संगठनों के संक्रमण से बचाएं? आख़िर क्यों डोनाल्ड ट्रम्प को अमेरिका में मुसलमानों का प्रवेश रोकने की बात करनी पड़ती है?
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हमारे जम्मू-कश्मीर राज्य की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती और बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की इस बात के लिए तारीफ़ की जानी चाहिए कि उन्होंने उस सच्चाई को कबूल करने का साहस दिखाया है, जिसे तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले हमारे सुपर-सेक्युलर लोग समझते हुए भी स्वीकार करने को तैयार नहीं होते.
जब भी इस्लामिक आतंकवाद की चर्चा होती है, तो ये लोग फौरन यह कहना शुरू कर देते हैं कि आतंकवाद को धर्म से जोड़कर देखना ठीक नहीं. ऐसे लोग इसके पीछे अमेरिका, रूस, यूरोपीय मुल्कों और तेल के खेल से लेकर एक हज़ार अन्य वजहें तो गिना देते हैं, लेकिन इस सच्चाई से हमेशा मुंह मोड़ लेते हैं कि कट्टरता भरी धार्मिक शिक्षा और विचारों का भी इसके पीछे बड़ा रोल है.
बांग्लादेश की राजधानी ढाका में अभी जो आतंकवादी हमला हुआ है, उसमें, प्रत्यक्षदर्शियों और कई समाचार एजेंसियों के मुताबिक, आतंकवादियों ने अल्लाहू अकबर के नारे लगाए और बंधकों से कुरान की आयतें सुनाने के लिए कहा. इस तरह मुसलमानों और ग़ैर-मुसलमानों की पहचान की गई. मुसलमानों के साथ अच्छा व्यवहार किया गया और ग़ैर-मुसलमानों को चुन-चुनकर मार डाला गया.
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बांग्लादेश और पाकिस्तान में सिर्फ़ आतंकी हमलों के दौरान ही नहीं, आम दिनों में भी ग़ैर-मुसलमानों को चैन से जीने नहीं दिया जाता. वहां अल्पसंख्यकों, ख़ासकर हिन्दुओं की क्या स्थिति है, यह बात किसी से छिपी नहीं. पिछले 69 साल में या तो उन्हें ख़त्म कर दिया गया, या उनका धर्मांतरण करा दिया गया. जो बचे-खुचे हैं, उनकी ज़िंदगी जानवरों से भी बदतर है.
इन मुल्कों में अल्पसंख्यकों के ऐसे दयनीय हालात के लिए कट्टरपंथी इस्लामी शिक्षा और सोच को कसूरवार न ठहराएं, तो किसे ठहराएं? लगातार ढंकने-छिपाने से सच्चाई नहीं बदलती, इसलिए आतंकवाद और कट्टरता आज की तारीख में इस्लाम के माथे पर कलंक के बड़े धब्बे बन गये हैं और इस वजह से अन्य धर्मों के अनुयायियों में भी इसके प्रति नफ़रत पैदा हो रही है.
मजहब नहीं सिखाता... |
आख़िर क्यों बराक ओबामा को यह कहना पड़ता है कि मुसलमान अपने बच्चों को आतंकवादी संगठनों के संक्रमण से बचाएं? आख़िर क्यों डोनाल्ड ट्रम्प को अमेरिका में मुसलमानों का प्रवेश रोकने की बात करनी पड़ती है? आप ओबामा और ट्रम्प को मूढ़ समझें, मुस्लिम-विरोधी समझें, जो समझना हो समझें, लेकिन इसकी चिंता तो कीजिए कि दुनिया भर में मुसलमानों की छवि कितनी ख़राब हो गई है!
भारत में भी देखें, तो तथाकथित सेक्युलर-ब्रिगेड द्वारा आरएसएस और बीजेपी के ख़िलाफ़ तमाम नकारात्मक प्रचार-अभियानों के बावजूद इनकी ताकत बढ़ती ही क्यों चली गई? स्वभावतः सहिष्णु और धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं की जमात के एक बड़े हिस्से ने आख़िर क्यों “सांप्रदायिक” आरएसएस और बीजेपी को सिर-आँखों पर बिठा लिया है?
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क्या आरएसएस के इस सवाल का किसी के पास कोई जवाब है कि एक समय हिन्दू-बहुल रही कश्मीर घाटी में जब मुसलमानों की आबादी बढ़ी, तो वहां से हिन्दुओं को क्यों खदेड़ दिया गया? 1990 की शुरुआत में जो तीन लाख से ज्यादा पंडित वहां से विस्थापित हुए, आज 26 साल बाद भी किसी सरकार में इतनी हिम्मत क्यों नहीं हो पा रही कि उन्हें वापस वहां बसा दे?
इसी तरह, बांग्लादेशी घुसपैठियों के चलते जब असम की डेमोग्राफी में बदलाव आया और मुस्लिम आबादी बढ़ी, तो वहां के मूल निवासी क्यों परेशान हो उठे? क्यों वे अपने ऊपर इतना बड़ा ख़तरा महसूस करने लगे कि हालिया विधानसभा चुनावों में बांग्लादेशी घुसपैठ बड़ा मुद्दा बन गयी और लोगों ने “सेक्युलर-ब्रिगेड” को धूल चटाते हुए “सांप्रदायिक” ताकतों को चुन लिया?
इतना ही नहीं, जब बीजेपी के एक सांसद ने उत्तर प्रदेश के कैराना में मुसलमानों के ख़ौफ़ से हिन्दुओं के पलायन की बात कही, तो लोगों ने सहसा इसपर यकीन क्यों कर लिया? आपने इस घटना के झूठ-सच की तरह-तरह से समीक्षा की होगी, लेकिन क्या यह सोचा कि लोगों ने इसपर इतनी आसानी से यकीन इसलिए कर लिया, क्योंकि वे सचमुच मानने लगे हैं कि जहां कहीं भी मुसलमानों की आबादी अधिक होगी, वहां दूसरे संप्रदाय के लोग चैन से रह ही नहीं सकते?
यह मुसलमानों की विश्वसनीयता की कमी है, जो आज की तारीख़ में सिर्फ़ भारत में ही नहीं, समूची दुनिया में आ गई है। पेरिस हमले के बाद ओबामा ने कहा था कि मुस्लिम समाज के भीतर से आतंकवाद का जैसा विरोध होना चाहिए, वैसा नहीं हो रहा। ओबामा ने ऐसा इसलिए कहा था, क्योंकि आज दुनिया में बड़ी तादाद में लोग ऐसा ही महसूस कर रहे हैं.
यह अकारण नहीं है कि आज इराक, सीरिया, मिस्र, लीबिया, सूडान, यमन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश समेत दुनिया के कई मुस्लिम-बहुल देश घनघोर अशांति में जी रहे हैं. एक-दूसरे को मारते-काटते हुए जी रहे हैं. कहने को मुल्क हैं, पर कबीलाई सोच से निकल ही नहीं पाए हैं. बात-बात पर कुरान की सीख का हवाला है, लेकिन वह कौन-सी कुरान है, जिसे तमाम तरह के धत्कर्मों में लिप्त लोग भी अपनी ढाल के तौर पर इस्तेमाल कर लेते हैं?
इस बात से मैं हमेशा हैरान होता हूं कि हमारे देश के बेहतरीन दिमागों ने मिलकर जो संविधान बनाया, मात्र 66 साल में ही उसमें सौ से अधिक संशोधन करने पड़े, लेकिन वे कौन-से भले लोग हैं दुनिया के, जिनकी सोच डेढ़ हज़ार साल पुरानी एक किताब में ऐसी अटक गई है कि इसे लेकर वे दुनिया के किसी-न-किसी कोने में रोज़ ही कोई-न-कोई बखेड़ा खड़ा कर देते हैं.
इतना ही नहीं, यह पुस्तक मानवतावादियों से लेकर आतंकवादियों तक को एक साथ प्रेरित कर रही है. बदलते समय और बदलती दुनिया के हिसाब से वहां बदलाव अथवा संशोधन की कोई गुंजाइश नहीं. कुरान की आयतें सुन-सुनकर बेगुनाहों को मारने वाले लोग कुरान को चाहे समझ रहे हों या न समझ रहे हों, लेकिन उसके प्रति ऐसी अंध-आस्था रखकर क्या वे हैवान नहीं बन चुके हैं?
ख़ुद को श्रेष्ठतम मानना और अति-विस्तारवादी सोच इस्लाम की वह बड़ी बुराइयां हैं, जिनकी वजह से उसके धर्मावलंबी न सिर्फ़ स्वयं बेचैन रहते हैं, बल्कि बाकी दुनिया को भी हिंसा और अशांति के दोज़ख़ में ढकेले रखना चाहते हैं. इतनी हिंसा, मार-काट और मजहबी कट्टरता के बीच आप दुनिया से इस्लाम को समझने की अपील करेंगे, तो कौन समझेगा? और बाकी दुनिया ही क्यों समझती रहे आपको? आप ही क्यों न समझें बाकी दुनिया को?
आज दुनिया के दबाव में इस्लामी जगत आतकंवाद के ख़िलाफ़ थोड़ा-बहुत बोल तो रहा है, पर करता हुआ कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा. जो बोला जा रहा है, उस पर भी संदेह होता है कि मन से बोला जा रहा है या बेमन से? पाकिस्तान के फ़ौजी शासक रहे परवेज़ मुशर्रफ ने अमेरिका के हाथों मारे जा चुके कुख्यात आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को अपना “हीरो” करार दिया है. हाफ़िज सईद, मसूद अजहर, ज़कीउर्रहमान लखवी और दाऊद इब्राहिम तो पाकिस्तान में दामाद का दर्जा पाए हुए हैं.
इसी तरह, भारत में जब सैकड़ों बेगुनाहों की हत्या के दोषी आतंकवादी याकूब मेमन का जनाजा निकलता है, तो उसमें 20 हज़ार लोग शामिल हो जाते हैं. जब संसद पर हमले के दोषी अफ़ज़ल गुरु के महिमा-मंडन में नारे लगते हैं- “कितने अफ़ज़ल मारोगे, घर-घर से अफ़ज़ल निकलेगा”, तो ऐसे नारे लगाने वालों के विरोध में जितने लोग खड़े नहीं होते, घुमा-फिराकर उससे ज़्यादा उनके समर्थन में खड़े हो जाते हैं. क्या यही आतंकवाद की मुखालफ़त है?
ज़ाहिर है, इस्लाम के लिए यह बदनामी भरा वक्त है. उसके नाम पर दुनिया भर में सैकड़ों आतंकवादी संगठन हर रोज़ अनगिनत बेगुनाहों की हत्याएं कर रहे हैं। इस बुरे वक्त में अगर इस्लाम के भीतर से महबूबा मुफ्ती और शेख हसीना जैसे विचार बड़ी तादाद में मज़बूती से बाहर नहीं आएंगे और इस्लाम अपने भीतर के गुनहगारों से लड़ता हुआ दिखाई नहीं देगा, तो न सिर्फ़ उसकी छवि और बिगड़ती चली जाएगी, बल्कि उसपर हमले भी बढ़ते चले जाएंगे.
सत्य नहीं होता सुपाच्य, किंतु यही वाच्य. इक्कीसवीं सदी की दुनिया दकियानूसी और कट्टरपंथी विचारों के लिए नहीं है, इसलिए अब वह वक़्त आ गया है, जब इस्लाम अपनी शक्ल आइने में देखे.
डिस्क्लेमर - यह लेख इस्लाम के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि इस्लाम के हक़ में है. जिनमें इसे समझने की शक्ति है, उनका शुक्रिया. जो इसे नहीं समझ सकते, उनकी समझदारी के लिए हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं. जिन्होंने हिंसा और बदनामियों के ही रास्ते मजहबी विचारों के विस्तार का मंसूबा बांध रखा है, उन मूढ़ों को हमें कुछ नहीं समझाना.
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