राहुल गांधी के बारे में बराक ओबामा का आकलन पूरी तरह सही नहीं है
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को लेकर बराक ओबामा (Barak Obama) की अपने किताब (A Promised Land) में टिप्पणी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और राजनीति के सामान्य मानदंडों में भले ही ठीक है, लेकिन भारतीय राजनीति के योग्यता के पैमाने पर फिट नहीं बैठती!
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को लेकर बराक ओबामा (Barak Obama) की टिप्पणी ऐसे वक्त सामने आयी है, जब पहले से ही वो बिहार चुनाव और तमाम उपचुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन को लेकर निशाने पर हैं. महागठबंधन में भी अब कांग्रेस नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े किये जाने लगे हैं क्योंकि पार्टी ने अगर थोड़ा भी बेहतर प्रदर्शन किया होता तो 243 सदस्यों वाली विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा बहुत दूर नहीं था. महागठबंधन को बिहार चुनाव में 110 सीटें मिली हैं, जबकि एनडीए को 125.
2019 के आम चुनाव के बाद ये बिहार चुनाव ही रहा जिसमें राहुल गांधी शुरू से दिलचस्पी लेते देखे गये. महागठबंधन की सीटों के बंटवारे से लेकर चुनाव प्रचार तक - बिहार के मामले में राहुल गांधी ने हाल के दूसरे विधानसभा चुनावों के मुकाबले ज्यादा तत्परता दिखायी थी. 2015 में मिली 41 सीटों से आगे बढ़ कर दावेदारी जताते हुए राहुल गांधी ने इस बार महागठबंधन में कांग्रेस के लिए मोलभाव कर 70 सीटें ले ली थीं, लेकिन पिछली बार की 27 सीटों की तुलना में इस बार नंबर 19 से आगे नहीं बढ़ सका.
ऐसे में जबकि राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में फिर से ताजपोशी की तैयारी हो रही है, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की टिप्पणी नये सिरे से चर्चा और बहस का मुद्दा बन रही है - दरअसल, बराक ओबामा ने राहुल गांधी की 'योग्यता' पर अपना नजरिया पेश किया है.
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति या सियासत के सामान्य मापदंड़ों के हिसाब से बराक ओबामा का आकलन अपनी जगह ठीक हो सकता है, लेकिन भारत के राजनीतिक घराने वाले ढांचे में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति की किताब (A Promised Land) में कांग्रेस नेता का आकलन पूरी तरह सही नहीं लगता - राहुल गांधी के केस में 'योग्यता' की वो परिभाषा नहीं है जो बराक ओबामा सोच रहे हैं.
भारतीय राजनीति में योग्यता का पैमाना क्या है?
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की नयी किताब आ रही है - 'ए प्रॉमिस्ड लैंड'. किताब के 768 पन्नों में बराक ओबामा ने राजनीति में कदम रखने से लेकर अमेरिका के राष्ट्रपति बनने और अपने कार्यकाल की स्मृतियों को विस्तार से लिखा है. ओबामा की किताब की समीक्षा अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित हुई है.
बराक ओबामा ने अपनी किताब में अमेरिका के साथ साथ पूरी दुनिया की राजनीति और नेताओं के बारे में अपनी राय शेयर किया है - और राहुल गांधी के साथ साथ सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह पर टिप्पणी को लेकर ये किताब भारत में भी चर्चा का हिस्सा बन गयी है.
दुनिया भर की राजनीति पर बराक ओबामा के विस्तृत विचार तो किताब के मार्केट में आने के बाद मालूम होंगे, लेकिन न्यूयॉर्क टाइम्स ने की समीक्षा में राहुल गांधी का जिक्र सिर्फ एक पैरा में देखने को मिला है - और वो भी करीब करीब वैसा ही जैसा राहुल गांधी राजनीतिक विरोधी मानते, समझते या फिर तमाम मौकों पर समझाते रहते हैं. बराक ओबामा की राय से भी समझें तो, राहुल गांधी के बारे में उनकी भी राय 'पप्पू' के ही इर्द गिर्द घूमती नजर आती है.
बराक ओबामा ने एक पैरा में ही राहुल गांधी को नर्वस, तैयारी में लगा हुआ और अपने विषय में महारत हासिल करने में किसी नाकाम छात्र जैसा बताया है. बराक ओबामा की नजर में राहुल गांधी उस छात्र की तरह हैं जो हमेशा अपने टीचर को प्रभावित करने की कोशिश में लगा रहता है. किताब में तो टीचर की भूमिका में खुद बराक ओबामा ही लगते हैं, लेकिन राहुल गांधी जिस स्कूल में हैं वहां ये भूमिका देश की जनता के पास है. बराक ओबामा की ये राय काफी हद तक ठीक ही लगती है क्योंकि राहुल गांधी लगातार तमाम तरीके से लोगों को प्रभावित करने की कोशिश में तो लगे ही हुए हैं - और ये भी सच ही है कि बराक ओबामा की तरह कोई भी उनसे प्रभावित भी नहीं हो रहा है.
क्या राहुल गांधी को परखने में बराक ओबामा भी चूक गये?
ऐसा भी नहीं है कि राहुल गांधी का पूरा राजनीतिक जीवन वैसा ही रहा है जैसा बराक ओबामा ने अपनी संक्षिप्त मुलाकात में महसूस किया होगा. 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व में ही बीजेपी को 100 सीटों तक नहीं पहुंचने दिया था और उसके साल भर बाद ही 2018 में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बीजेपी को बेदखल कर कांग्रेस ने सत्ता हासिल की तो उसमें राहुल गांधी की बहुत बड़ी भूमिका रही.
ये ठीक है कि 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के आगे राहुल गांधी अमेठी की अपनी सीट भी गंवा बैठे, लेकिन 2009 के चुनाव में उसी उत्तर प्रदेश से कांग्रेस को लोक सभा की 21 सीटें मिली थीं और राहुल गांधी खूब वाहवाही बटोर रहे थे. 2004 में जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को केंद्र की सत्ता दूर हो गयी तब भी यूपी में कांग्रेस महज 9 सीटें ही मिली थीं.
2004 को छोड़े दें तो 2009 में तो राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन ही सकते थे, लेकिन वो शायद कुछ और करना चाहते थे. हो सकता है प्रधानमंत्री बनने के बाद वो वे काम अच्छे से कर भी सकते थे, लेकिन एरर ऑफ जजमेंट के नतीजे भी तो ऐसे ही होते हैं. राजनीति ही नहीं किसी भी फील्ड में मौके का फायदा उठाना बहुत जरूरी होता है - और राहुल गांधी उसी मामले में चूक गये हैं जिसकी कीमत आज भी कदम कदम पर उनको चुकानी पड़ रही है - हो सकता है राहुल गांधी की जिम्मेदारियां संभालने को लेकर वही झिझक बराक ओबामा की नजर में महारत हासिल करने में नाकामी और जुनून की कमी का ध्यान दिला रही हो.
बराक ओबामा लिखते हैं, 'राहुल गांधी नर्वस लगते हैं, एक ऐसे छात्र की तरह जिसने अपना कोर्स तो पूरा कर लिया है और उसमें अपने टीचर को प्रभावित करने की आतुरता भी है - लेकिन योग्यता और विषय में महारत हासिल करने का गहरा जुनून नहीं है.'
There’s no feeling like finishing a book, and I’m proud of this one. In A Promised Land, I try to provide an honest accounting of my presidency, the forces we grapple with as a nation, and how we can heal our divisions and make democracy work for everybody. pic.twitter.com/T1QSZVDvOm
— Barack Obama (@BarackObama) September 17, 2020
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ने राहुल गांधी के लिए अंग्रेजी के एप्टीट्यूड शब्द का प्रयोग किया है - मतलब, बराक ओबामा को राहुल गांधी में राजनीति में मुकाम हासिल करने या प्रासंगिक बने रहने की जरूरी योग्यता की कमी है - सवाल ये है कि भारतीय राजनीति में योग्यता का पैमाना क्या है?
राहुल के नाम में 'गांधी' होना ही सबसे बड़ी योग्यता है
राहुल गांधी ने बिहार में तेजस्वी यादव के साथ चुनावी गठबंधन किया था - और नतीजे आने के बाद 2017 में उनके अखिलेश यादव के साथ चुनावी गठबंधन के हुए हश्र की चर्चा शुरू हो गयी. यूपी विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के चुनावी गठबंधन का प्रदर्शन बिहार में आरजेडी के साथ के प्रदर्शन से भी बुरा रहा था.
राष्ट्रीय राजनीति में राहुल गांधी जिस पृष्ठभूमि से आते हैं, बिहार में तेजस्वी यादव और उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव भी उसी बैकग्राउंड से आते हैं. जिस तरीके से राहुल गांधी कांग्रेस की राजनीति विरासत को आगे बढ़ाने के लिए जूझ रहे हैं, ठीक वैसे ही तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव भी अपने अपने दलों को अपने अपने इलाके में खड़ा करने और खोया हुआ सम्मान दिलाने की कोशिश कर रहे हैं.
तेजस्वी यादव को हक है कि वो महागठबंधन की कम सीटों के लिए राहुल गांधी को जिम्मेदार बतायें और भविष्य के लिए रिश्तों की समीक्षा करें - लेकिन क्या तेजस्वी यादव की तुलना में पुष्पम प्रिया चौधरी की सक्रियता किसी भी मायने में कम रही है?
दो-तीन महीने की अवधि में ही तो तेजस्वी यादव और पुष्पम प्रिया चौधरी दोनों ही ने खुद को मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर प्रोजेक्ट किया और चुनाव प्रचार भी उसी हिसाब से किया. तेजस्वी यादव के पास पुरानी पार्टी होने के चलते सांगठनिक ढांचा पहले से तैयार था और पूरे राज्य में कार्यकर्ता भी थे, लेकिन बाकी प्रचार का तौर तरीका तो दोनों का एक जैसा ही था. पुष्पम प्रिया चौधरी भी राजनीति में अपने पिता की राजनीतिक विरासत को नयी ऊंचाई देने की कोशिश कर रही थीं, लेकिन उनके पिता का नाम लालू प्रसाद यादव नहीं था - क्या जिन सुविधायों के साथ तेजस्वी यादव चुनाव में कूदे थे, पुष्पम प्रिया के पास भी होतीं तो नतीजे अलग नहीं हो सकते थे?
ये ठीक है कि तेजस्वी यादव ने आरजेडी के पोस्टर बैनर पर सिर्फ अपनी ही तस्वीर डाली थी, लेकिन पुष्प प्रिया चौधरी और उनमें बुनियादी फर्क तो यही था न कि तेजस्वी यादव अपनी राजनीतिक विरासत को फिर से खड़ा करने की कोशिश कर रहे थे और पुष्पम प्रिया चौधरी पहली बार ऐसे प्रयास कर रही थीं. कांग्रेस, आरजेडी और समाजवादी पार्टी जैसे राजनीतिक दलों में नेतृत्व करने के लिए सबसे बड़ी योग्यता परिवार में पैदा होना ही होती है - वरना, जितना खून पसीना शिवपाल यादव ने समाजवादी पार्टी के लिए बहाया होगा, आरजेडी के लिए पप्पू यादव का भी योगदान कोई कम तो नहीं ही रहा है. दोनों ही इसलिए छंट गये क्योंकि वे योग्यता के उस पैमाने में फिट नहीं हो पा रहे थे. मुलायम सिंह यादव तो भाई होने के कारण शिवपाल के मामले में अलग दांवपेंच चलाये लेकिन लालू यादव ने तो पप्पू यादव को साफ साफ कह दिया था कि पार्टी का वारिस बेटा नहीं होगा तो क्या भैंस चराएगा?
और हां, पार्टी का वारिस बेटा होने का मतलब बेटा ही होता है, बेटी नहीं - वरना, मीसा भारती और प्रियंका गांधी को उनकी पार्टियों में पसंद करने वालों की लंबी कतार है, लेकिन पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उनकी सक्रियता की भी सीमाएं पहले से ही तय कर दी जाती हैं. सुप्रिया सुले को भी शरद पवार की राजनीतिक विरासत के लिए अजीत पवार से जूझना पड़ता है, जबकि वो बेटे नहीं बल्कि भतीजे हैं.
राहुल के नाम में 'गांधी' होना ही सबसे बड़ी योग्यता है - लगता है बराक ओबामा ने पारिवारिक राजनीति में सबसे बड़ी योग्यता पर ध्यान नहीं दिया है!
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