2019 चुनाव से जुड़ा बीजेपी का सपना लाठियों से चूर-चूर हो गया
अब दंगों की राजनीति और सोशल इंजीनियरिंग को 2 अप्रैल के बंद से मिलाकर देखें तो देश की एक ही दिन की घटनाओं ने सामाजिक ध्रुवीकरण को पूरी तरह तहस नहस कर दिया. हिंदू मुसलमान का बंटवारा सिर्फ 8 घंटे में दलित और सवर्म के विभाजन में बट गया.
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सोमवार से अब तक हर सड़क पर जब भी कोई लाठी चल रही है तो वो सीधे पीएम मोदी को चोट पहुंचा रही है, कोई घर जल रहा है तो अमित शाह का 2019 का सोशल इंजीनिरिंग का प्लान जल रहा है, कोई गोली लग रही है तो वो 2019 की बीजेपी की संभावनाओं को घायल कर रही है और कोई कत्ल हो रहा है तो वह मोदी के दोबारा प्रधानमंत्री बनने के सपने का कत्ल हो रहा है.
कोई माने या न माने लेकिन 2 अप्रैल की तारीख आने वाले कई सालों तक बीजेपी नहीं भूल सकेगी. कहने को तो ये तारीख एक ओर तारीख थी एक ओर भारत बंद था. इस बंद में वैसे भी सरकार का विरोध नहीं था लेकिन बंद के दिन जो हुआ उसने बीजेपी की पूरी योजना तहस नहस कर दी.
कहीं ये हिंसा 2019 के सपने का कत्ल तो नहीं
बीजेपी की 2019 की संभावनाओं और अमित शाह के गणित को समझे बगैर हम नहीं समझ सकते कि इस एक दिन के हादसों ने कैसे बीजेपी को नुकसान पहुंचाया. राजनीतिक पंडितों का कहना है कि बीजेपी 2019 के लिए हिंदुत्व कार्ड को बड़ी बारीकी से खेल रही थी. जानकारों का कहना है कि देश के हर हिस्से में छोटे बड़े दंगे उसकी 2019 की संभावनाओं को मजबूत कर रहे थे. सिर्फ बिहार के आंकड़े आपको बता सकते हैं कि देश में हिंदु मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण किस रफ्तार से हो रहा होगा. नितीश के एनडीए में आने के बाद के 9 महीने में अबतक वहां 200 दंगे रिपोर्ट हुए. जाहिर बात है जब तक बड़े दंगे न हों, मारकाट न हो मीडिया में खबर ही नहीं आती लेकिन दंगे अपना काम करते हैं. तनाव बढ़ता है और हिंदू और मुसलमान की दूरियां बढ़ती चली जातीं है.
खैर अब दंगों की राजनीति और सोशल इंजीनियरिंग को 2 अप्रैल के बंद से मिलाकर देखें तो देश की एक ही दिन की घटनाओं ने सामाजिक ध्रुवीकरण को पूरी तरह तहस नहस कर दिया. हिंदू मुसलमान का बंटवारा सिर्फ 8 घंटे में दलित और सवर्ण के विभाजन में बंट गया. 2 अप्रैल का दिन इसलिए भी अहम है क्योंकि इस दिन भारत के इतिहास में पहली बार वर्ण संघर्ष हुआ. दलितों ने बंद का आह्वान किया लेकिन उनके दमन के लिए सरकार के साथ-साथ सवर्ण भी कूद पड़े, ग्वालियर में दलितों पर गोलियां चलीं लेकिन पुलिस ने नहीं चलाई. रुद्रपुर में दलितों पर लाठियां चलीं लेकिन पुलिस ने नहीं चलाईं. जैसे-जैसे ये संघर्ष बढ़ा सरकार की समस्याएं बढ़ती चली गईं. बीजेपी की परेशानी बढ़ती गई.
2019 में संकट में आ सकती है बीजेपी
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि दलित मुस्लिम का तालमेल बीजेपी के लिए बेहद खतरनाक हो सकता है. अगर दलित और मुस्लिम बीजेपी के खिलाफ वोट देते हैं तो वो वापस 2 सीटों पर भी पहुंच सकती है. संघर्ष यहां तक होता तो भी सरकार किसी तरह उसे नियंत्रित कर लेती लेकिन मामला अब आगे जा चुका है. सरकार दलितों का गुस्सा शांत करने की कोशिश करे उससे पहले सोशल मीडिया पर बीजेपी का परंपरागत सवर्ण वोटबैंक कमर कसकर तैयार है. आरक्षण खत्म करने की मांग को लेकर माहौल बनने लगा है. सवर्ण तरह-तरह के तर्क और तथ्यों के साथ सरकार पर दबाव बना रहे हैं कि आरक्षण खत्म किया जाए. या फिर उसके आधार बदल दिए जाएं. एक तरफ बीजेपी का परंपरागत वोटर आरक्षण खत्म करने की मांग कर रहा है तो दूसरी तरफ बीजेपी दलितों को मनाने में लगी है.
रविशंकर प्रसाद बवाल के दूसरे दिन ही कहते नज़र आए कि बीजेपी ने सबसे ज्यादा दलित सांसद और विधायक दिए हैं. सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई. कहने लगी आदेश पर पुनर्विचार करो. बार-बार कहा जाने लगा कि सरकार आरक्षण और दलित उत्पीड़न के मामले पर गंभीर है. लेकिन इन बातों से दलितों को मनाना आसान नहीं है. बीजेपी की छवि सवर्णों की पार्टी वाली है, दलितों को मना नहीं पा रही. मनाने के लिए जाती है तो पहले ही जीएसटी से नाराज़ उसके सवर्ण समर्थक नाराज़ होते हैं. हालात ये हैं कि बीजेपी के अपने सांसद उसका साथ छोड़ने को तैयार हैं. उदित राज और सावित्री बाई फुले खुलकर पार्टी का विरोध कर चुके हैं.
कुल मिलाकर हालात बदल चुके हैं. हिंदू मुस्लिम विभाजन का कार्ड ढहता नज़र आ रहा है. दलितों को अपना बनाने की जितनी भी संभावनाएं थीं वो तो खत्म हुई हीं, अपने परंपरागत सवर्ण वोटर दूर हो रहे हैं. जैसे-जैसे दंगों या कहें बंद के दौरान हुई हिंसा में शामिल लोगों पर और एक्शन होगा पार्टी की मुसीबतें बढ़ती जाएंगीं नहीं होगा तो भी मुसीबत बढ़ेगी. 2019 एक झटके में बीजेपी से दूर हो गया है.
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