भूपेंद्र पटेल पाटीदारों की अदालत में भाजपा के भूल सुधार का हलफनामा हैं
भूपेंद्र पटेल (Bhupendra Patel) को गुजरात का नया मुख्यमंत्री बनाये जाने के पीछे उनका पाटीदार समुदाय (Patidar Community CM) से होना ही नहीं - और भी कई कारण हैं, जिन पर व्यापक विचार विमर्श के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने मंजूरी दी है.
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अच्छा है. बीजेपी नेतृत्व ने एक बार फिर लोगों को निराश नहीं किया. मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के जो नाम चल रहे थे, सारे के सारे खारिज कर दिये - और सात साल से स्थापित परंपरा का निर्वहन करते हुए सीधे एक बार फिर से सरप्राइज दे दिया.
भूपेंद्र पटेल (Bhupendra Patel) गुजरात के नये मुख्यमंत्री बने हैं. विजय रूपानी के इस्तीफे के बाद केंद्रीय मंत्री मनसुख मांडविया से लेकर डिप्टी सीएम नितिन पटेल और गुजरात बीजेपी के कई नेताओं के नाम पर कयास लगाये जा रहे थे. असल बात तो ये थी कि बीजेपी के अंदर से सूत्र बन कर जो भी नेता मीडिया को खबरें दे रहे थे, वे खुद भी अंधेरे में रहे होंगे.
ये फैसला तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को लेना था - और फैसले में नजर आ रही दूरदर्शिता बता रही है कि मोदी ने मामले पर गंभीरता के साथ विचार ही नहीं, बल्कि पूरे मन से मंजूरी भी दी है.
जिन नेताओं के नाम मीडिया में सूत्रों के हवाले से चल रहे थे वे तो सूत्रों को भी पूरे मन से कोस ही रहे होंगे. वैसे नितिन पटेल काफी गंभीर नजर आये. शायद इसलिए भी क्योंकि खुद को लेकर उनकी उम्मीदें भी ज्यादा होंगी - और जिक्र ज्यादा हो जाने का खामियाजा भी पहले से ही मालूम रहा होगा. फिर भी मीडिया ने सवाल किया तो बोलना ही पड़ा, 'मुख्यमंत्री ऐसा होना चाहिए जो लोकप्रिय, अनुभवी और सबको साथ लेकर चलने वाला हो... ऐसी अफवाह है कि मुझे मुख्यमंत्री... लेकिन सच्चाई ये है कि बीजेपी आलाकमान फैसला करेगा.'
लेकिन ये फैसला अब नितिन पटेल की कुर्सी के लिए भी खतरा लगता है - दो पटेल भला क्या करेंगे? एक पद तो किसी और समुदाय को दिया जा सकता है, जिसका वोट बैंक आने वाले चुनाव में काम आ सके.
पाटीदार समुदाय (Patidar Community CM) से होने के साथ ही जिस हिसाब से गुजरात के नये मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल को उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल का करीबी बताया जा रहा है, नितिन पटेल की उम्मीदें तो स्वाभाविक लगती हैं. हो सकता है भूपेंद्र पटेल उनके मुकाबले ज्यादा करीबी हों. मौका तो नितिन पटेल के पास भी आया था आनंदी बेन पटेल की उत्तराधिकारी बनने का, लेकिन किस्मत में नहीं रहा. हां, भूपेंद्र पटेल को जब 2017 में विधानसभा चुनाव हुए तो आनंदी बेन पटेल की विधानसभा सीट से ही टिकट मिला - घटलोडिया.
लेकिन सबसे बड़ी बात जो भूपेंद्र पटेल को लेकर आम राय के नाम पर लिये गये फैसले में निर्णायक बनी, वो है - भूपेंद्र पटेल का बहुत पहले से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भरोसेमंद कार्यकर्ता होना.
चुनावी रणनीति के हिसाब से देखें तो भारतीय जनता पार्टी ने अगले साल जनता की अदालत में जाने से पहले पाटीदार समुदाय के सामने माफीनामे के तौर पर भूपेंद्र पटेल के रूप में अपना हलफनामा पेश किया है. समझाइश ये कि आनंदीबेन पटेल को हटाने के बाद नितिन पटेल को मौका नहीं दिया गया, उसे दिल पर लिये रहने की जरूरत नहीं है - मतलब, बीजेपी में भी देर है, अंधेर नहीं है.
भूपेंद्र पटेल कौन हैं?
भूपेंद्र पटेल पहली बार 2017 में विधायक बने और विधानसभा के पांच साल पूरे होने से पहले ही गुजरात के मुख्यमंत्री बन गये. गुजरात की मुख्यमंत्री रहीं आनंदी बेन पटेल की सीट से पहले ही चुनाव में भूपेंद्र पटेल ने भारी जीत दर्ज की थी. ये तब की बात है जब तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय रूपानी के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव में बीजेपी को संघर्ष करना पड़ रहा था - क्योंकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी गुजरात के युवा नेताओं की तिकड़ी के साथ बीजेपी को कड़ी टक्कर दे रहे थे.
वैसी हालत में भी भूपेंद्र यादव ने कांग्रेस उम्मीदवार शशिकांत पटेल को 1,17,000 वोटों के अंतर से जबरदस्त शिकस्त दी थी. 2012 से 2017 तक आनंदीबेन पटेल ने घटलोडिया का गुजरात विधानसभा में प्रतिनिधित्व किया है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो भूपेंद्र पटेल को गुजरात का मुख्यमंत्री बना कर अपना काम कर दिया है - अब गुजरात के पाटीदारों पर है कि क्या पांच साल बाद बीजेपी के भूल सुधार को वों मान लेते हैं या खारिज कर देते हैं!
भूपेंद्र पटेल के नाम का प्रस्ताव विजय रूपानी ने रखा और फिर विधायकों ने अनुमोदन कर दिया. बाद में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने नये मुख्यमंत्री के तौर पर भूपेंद्र पटेल के नाम का ऐलान किया, लेकिन उससे पहले काफी माथापच्ची हुई. बीजेपी के संगठन मंत्री बीएल संतोष के साथ साथ केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव भी शुरू से ही मोर्चे पर डटे रहे. तभी बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने श्रीनगर गये नरेंद्र सिंह तोमर को अहमदाबाद पहुंचने को कहा. असम में भी नरेंद्र सिंह तोमर ने ही मुख्यमंत्री के नाम का ऐलान किया था. जेपी नड्डा ने प्रहलाद जोशी को भी अहमदाबाद भेजा ताकि विधायकों को ये न लगे कि आम राय बस बताने के लिए हो रही है. फैसला आम राय से जो लेना था.
मुख्यमंत्री रूपानी को बदलने का प्रमुख कारण!!अगस्त में आरएसएस और भाजपा का गुप्त सर्वे चौंकाने वाला था। कांग्रेस को 43% वोट और 96-100 सीट, भाजपा को 38% वोट और 80-84 सीट, आप को 3% वोट और 0 सीट, मीम को 1% वोट और 0 सीट और सभी निर्दलीय को 15% वोट और 4 सीट मिल रही थी।
— Hardik Patel (@HardikPatel_) September 11, 2021
भूपेंद्र पटेल की एक और बड़ी खासियत है कि उनके खिलाफ कोई आपराधिक केस नहीं है. वो पेशे से इंजीनियर रहे हैं और यही वो विशेषता है जिसकी बदौलत वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भी करीब पहु्ंचे और अपने काम की बदौलत जल्द ही भरोसेमंद भी बन गये.
भूपेंद्र पटेल ने बाजी क्यों मार ली?
जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री रहे, तभी भूपेंद्र पटेल AUDA यानी अहमदाबाद म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन की स्टैंडिंग कमेटी के चेयरमैन बने थे. चेयरमैन रहते भूपेंद्र पटेल ने मोदी के मिजाज को अच्छी तरह समझने की कोशिश की और फिर उसी हिसाब से अहमदाबाद शहर के सौन्दर्यीकरण से लेकर पुल बनाने तक बहुत सारे काम किये - और भला मोदी को चाहिये क्या था. भूपेंद्र पटेल जल्द ही पसंदीदा कार्यकर्ता बन गये.
गवर्नर बन जाने के बाद आनंदीबेन पटेल गुजरात से बाहर जरूर हो गयीं, लेकिन गुजरात की राजनीति को लेकर प्रधानमंत्री मोदी की नजर उनकी राय हमेशा ही महत्वपूर्ण बनी रही - भूपेंद्र पटेल के मुख्यमंत्री बनने में ही नहीं, बल्कि गुजरात के घटलोडिया सीट से विधानसभा के लिए उम्मीदवार बनवाने में भी आनंदीबेन पटेल की महत्वपूर्ण भूमिका रही है.
न्यूज वेबसाइट द प्रिंट की एक रिपोर्ट में एक बीजेपी नेता के हवाले से बताया गया है कि भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का है जो अमित शाह के करीबी रहे विजय रूपानी के पांच साल तक रायता फैलाये रहने के बाद लिया गया है.
बातचीत में एक अन्य बीजेपी नेता का कहना था, 'प्रधानमंत्री ने आनंदीबेन पटेल की सलाह से ही भूपेंद्र पटेल को सेलेक्ट किया है. अगर आनंदीबेन ने प्रधानमंत्री को समझाया नहीं होता तो नितिन पटेल या कोई और भी मुख्यमंत्री बन सकता था - प्रधानमंत्री अब भी आनंदीबेन की बातों को पूरी तवज्जो देते हैं.'
हालांकि, उसी बीजेपी नेता का यहां तक कहना रहा कि ये भी तात्कालिक इंतजाम ही है - आगे चल कर तो मनसुख मांडविया को ही मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालनी है.
अब से पहले भी गुजरात को लेकर मनसुख मांडविया का नाम लिया जाता रहा है. जब मनसुख मांडविया को स्वास्थ्य मंत्रालय की भी जिम्मेदारी दी गयी तो उसे भी उनके कोविड 19 संकट के दौरान किये गये काम का इनाम बताया गया. भूपेंद्र पटेल भी कोरोना संकट के दौरान जब बदइंतजामियों को लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय रूपानी गुजरात के लोगों के निशाने पर रहे, भूपेंद्र पटेल को रोनावायरस के शिकार मरीजों के लिए ऑक्सीजन सिलिंडर और अस्पतालों में बेड के इंतजाम करते देखा गया था.
बीजेपी नेता की बातों में इसलिए भी दम लग रहा है क्योंकि फर्ज कीजिये चुनाव बाद 2024 की जरूरतों के हिसाब से भूपेंद्र यादव नहीं चल पाये या अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर सके या ऐसी स्थिति में नहीं रहे कि बीजेपी की झोली में गुजरात की सभी सीटें भर दें, तो कोई प्लान बी भी तो होना चाहिये ना - अब अमित शाह जाकर गुजरात के मुख्यमंत्री पद की शपथ तो लेंगे नहीं. भले ही वो केंद्रीय मंत्री हों तो क्या हुआ. अब तो सर्वे में वो भी प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में शामिल होते हैं. भले ही योगी आदित्यनाथ उन पर भारी पड़ते हों.
जहां तक नितिन पटेल पर भूपेंद्र पटेल को तरजीह दिये जाने की बात है, उनकी राह में उम्र ही आड़े आयी होगी क्योंकि वो भी विजय रूपानी के बराबर उम्र के ही हैं - 65 साल. भूपेंद्र पटेल उनसे काफी छोटे हैं. रही बात मनसुख मांडविया की तो वो तो अभी 49 साल के ही हैं. योगी आदित्यनाथ के बराबर.
पांच साल पहले जो हुआ था सिर्फ अमित शाह के मन की हुई थी. विजय रूपानी अमित शाह के ही करीबी, भरोसेमंद रहे और चुनावों में जीत की गारंटी भी खुद अमित शाह ने ली थी. 2017 का चुनाव बीजेपी ने कैसे जीता था, बताने की जरूरत नहीं है.
2022 के चुनाव से पहले गुजरात की राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो फैसला लिया है, रिपोर्ट में बीजेपी नेता के बताये अनुसार, वो अमित शाह नहीं बल्कि आनंदीबेन पटेल की सलाह के अनुसार हुआ है. आनंदीबेन पटेल आज की तारीख में बेहद अहम उत्तर प्रदेश जैसे राज्य की गवर्नर हैं. चुनाव नतीजे आने के बाद राज्यों में किसी भी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत न मिल पाने की स्थिति में गवर्नर की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण हो जाती है, सबको पता है.
भूपेंद्र पटेल के सेलेक्शन एपिसोड में एक सहज और स्वाभाविक सवाल जैसे कचोट रहा है. पांच साल बाद ही सही, अमित शाह की जगह उन्हीं आनंदी बेन पटेल की सलाह पर अमल होना, जो तब नितिन पटेल के लिए लड़ पड़ी थीं - क्या ये किसी नयी राजनीतिक कवायद की तरफ इशारा है? और अगर वास्तव में ऐसा है तो जो कुछ चल रहा है वो बीजेपी के अंदर की ही बात है या पार्टी के पैतृक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी इसकी थोड़ी बहुत भनक है?
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