बिलकिस बानो को न्याय तो मिला लेकिन अंधे कानून ने ख़त्म कर दिया!
कल न्याय की कसौटी पर खरा उतरा था कानून? बिलकिस ने भी स्वीकारा था, न्याय में विश्वास व्यक्त किया था. आज हिल गया है तो वजह दोषियों के 15-16 साल सजा काट लेने के बाद हुई रिहाई से ज्यादा राजनीति और सिस्टम जिम्मेदार है - पॉलिटिक्स >सिस्टम >रैमिशन !
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कल न्याय की कसौटी पर खरा उतरा था कानून. बिलकिस ने भी स्वीकारा था, न्याय में विश्वास व्यक्त किया था. आज हिल गया है तो वजह दोषियों के15-16 साल सजा काट लेने के बाद हुई रिहाई से ज्यादा राजनीति और सिस्टम जिम्मेदार है क्योंकि रिहाई का ड्राइविंग फ़ोर्स है - पॉलिटिक्स >सिस्टम >रैमिशन ! बेशक ड्राइविंग फ़ोर्स के पास कानून प्रदत्त नीति (पॉलिसी) होती है एक्सप्लॉइट करने के लिए. क्यों ना कहें अंधा कानून है. अस्सी के दशक में सुपर हीरो अमिताभ बच्चन की सुपर फिल्म 'अंधा कानून' आयी थी. एक गाना था उसमें. जो हुआ और जो हो रहा है, गाने में ही है - 'यह अंधा कानून है ... जाने कहां दगा दे दे जाने किसे सजा दे दे, साथ न दे कमजोरों का ये साथी है चोरों का, बातों और दलीलों का, ये है खेल वकीलों का, ये इंसाफ नहीं करता, किसी को माफ़ नहीं करता ; माफ़ इसे हर खून है, ये अंधा कानून है ...' पूरा गाना क्या है मानो बिलकिस बानो मामला ही है. कल(जो बीत गया) आज (जो हो रहा है ) और कल (जो होगा) तक.
न्याय के नामपर जो कुछ बिलकिस बानो के साथ हुआ वो पूरे सिस्टम पर सवालिया निशान लगाता है
अब तक घटना को बीस साल बीत चुके हैं और विक्टिम के असमंजस दुविधा, संदेह, द्वंद्व को विराम नहीं मिला है. और मामला फिर सर्वोच्च अदालत में है, टूटे विश्वास टूटी उम्मीद पर फाहा ही रह जाए. दोषियों को छोड़े जाने के खिलाफ पोलिटिकल पार्टियों के नेतागण सुप्रीम अदालत जो पहुंच गए हैं. वही सुप्रीम कोर्ट जिसने गुजरात सरकार से कहा था कि आप दो महीने के भीतर दोष सिद्धि के समय लागू रेमिशन पॉलिसी के अनुसार याचिकाकर्ता दोषी को छोड़ने पर विचार कर निर्णय करें.
सो है ना अंधा कानून. कालखंड बदल जाए तो कानून बदल जाता है, निर्भया ना होता तो शायद नहीं बदलता, अंधा क़ानून है. फिर भी विक्टिम को संतोष था कि तदनुसार देर ही सही सजा तो हुई. जब कोई अदालत किसी अपराध के लिए किसी को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाती है तो विधि के समक्ष इस सज़ा की अवधि का अर्थ सज़ा पाने वाले व्यक्ति की अंतिम सांस तक होता है.
अर्थात वह व्यक्ति अपने शेष जीवन के लिए जेल में रहेगा. यह आजीवन कारावास का अर्थ है जिसकी व्याख्या सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसलों में की है. परंतु कानून (दंड प्रक्रिया संहिता) यथोचित सरकार (appropriate government) को सजा कम करने का अधिकार देती है जिसके तहत वह आजीवन कारावास पाए दोषी को 14 साल की सजा काट लेने के पश्चात् रिहा कर सकती है. और राज्य का राज्यपाल तो मुख्यमंत्री की अगुवाई में बनी काउंसिल ऑफ़ मिनिस्टर्स की राय पर 14 साल से पहले भी छोड़ सकता है. तो अंधा कानून है ना.
सरकार की 'सद्भावना' हुई तो अपराधी छूट जाएगा, सरकार की ग्यारह सदस्यीय समिति का निर्णय बताया जाना तो सिर्फ और सिर्फ बहाना है, दिखाने भर के लिए है. सवाल उठाते रहिए. चुनाव सन्निकट हैं सो शायद दोषियों के प्रति 'सद्भावना' काम कर जाए. समिति के निर्णय की खिलाफत सत्ता की विरोधी पार्टियां इस बिना पर करें कि समिति में पांच सदस्य तो सत्ताधारी पार्टी के हैं, हास्यास्पद ही हैं.
कानून सरकार को अधिकार देता है, समिति सरकार की है, लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष सरकार के ही होंगे समिति में, और सत्ताधारी पार्टी ही सरकार होती है ना ! अंधा कानून है ! विडंबना ही है अभी तक विक्टिम ने गुहार नहीं लगाईं है. विश अन्यथा वो बात नहीं हो जो मन में एक बारी उठी. सरकार के पास लोकल स्टैन्डी इन लॉ की बिना लेने के लिए नामचीन वकीलों की फ़ौज जो है. अंधा कानून है.
बातों , दलीलों, ताकतों के दम पर फांसी दिया जाने वाला जघन्य अपराध आजीवन कारावास पर लटक गया या कहें तो लटका दिया गया. तब किसी नेता ने रिव्यू नहीं करवाया और आज उनके वकील का तर्क है कि दोषियों को पहले ही कमतर सजा मिली थी तो अब छूट क्यों ? राजनीति भारी है. और तो और, कल तक सर्वोच्च न्यायालय पर तमाम दोषारोपण कर रहे थे मसलन कैसे गुजरात सरकार के पाले में गेंद डाल दी ?
लेकिन आज कहने लगे मीलॉर्ड, आपका आर्डर तो ठीक था, गुजरात सरकार का रेमिशन ऑर्डर गलत है, समिति पक्षपातपूर्ण है, विक्टिम की सुरक्षा का सवाल है आदि आदि. लेकिन अफ़सोस. रेमिशन ऑर्डर किसी ने ना देखा ना पढ़ा. अंधा कानून है.
हां , पॉइंट ऑफ़ लॉ पूर्व प्रभाव से लागू नहीं हो सकता, बशर्ते कानून में मेंशन हो, लॉजिक भरपूर है. लेकिन दोषी को छोड़ना या नहीं छोड़ना आज की बात है तो आज की पॉलिसी स्पष्ट है रेप, मर्डर के दोषी नहीं छोड़े जा सकते. इसके विपरीत जबरन दोष सिद्धि के समय जारी नीति को आधार बनाया जाए, बात गले नहीं उतरती, न्यायोचित भी नहीं लगती.
उम्मीद है सुप्रीम कोर्ट इस पॉइंट से सहमत होगी, वरना तो अंधा कानून है ही. एक बात और, पॉइंट है टेक्निकल ही सही. सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को निर्देशित किया था किसी एक दोषी की याचिका पर.
गुजरात सरकार ने ग्यारहों पर कृपा क्यों बरसा दी? शायद वे अनभिज्ञ थे केंद्र सरकार के नारी सम्मान के ताज़ातरीन गाइडलाइन्स से. शायद कोई बात होती ही नहीं यदि इन दोषियों का सत्ता के करीबी संगठन द्वारा सार्वजनिक महिमा मंडन नहीं किया जाता. यूनिवर्सल मैसेज बहुत गलत चला गया. नेचुरल जस्टिस को धत्ता जो बता रहा है. और अंत में लार्जर सोशल इंटरेस्ट में उम्मीद तो रख ही सकते हैं सुप्रीम कोर्ट अंततः न्याय करेगी as an exception to 'Every sinner has future' वाले सामान्य नियम के. तब शान से कहेंगे 'न्याय की कसौटी पर खरा उतरा कानून !'
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