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Updated: 21 फरवरी, 2022 01:47 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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मौजूदा बीजेपी नेतृत्व भी लगता है फील गुड फैक्टर से संक्रमित हो चुका है - और बीजेपी को एक बार फिर इंडिया शाइनिंग वाले मोड में जाते हुए देखा जा सकता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी जोश और अमित शाह के चाणक्य मिशन के चालू रहते हुए भी, ऐसा लगता है बीजेपी इस बात से बेखबर है कि उसके खिलाफ क्या कुछ चल रहा है - जिस विपक्ष को बीजेपी बिखरा हुआ समझ रही है, वो चुपचाप परदे के पीछे से अपना काम कर रहा है.

तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (KCR) का मुंबई दौरा देश में बदलते राजनीतिक मिजाज की तरफ इशारा करने लगा है. मुंबई में केसीआर की मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) और एनसीपी नेता शरद पवार (Sharad Pawar) की मुलाकातों और दिल्ली में नीतीश कुमार और प्रशांत किशोर की मीटिंग में सीधे तौर पर कोई कनेक्शन हो न हो, लेकिन ये समझना मुश्किल नहीं है कि ये सब बीजेपी के खिलाफ साजिशों की कवायद ही है.

बीजेपी ने जांच एजेंसियों का हौव्वा खड़ा करके विरोधियों के बीच जो राजनीतिक आतंक का माहौल बनाया है - विपक्षी खेमे के लोग उससे मुकाबले का तरीका बहुत हद तक सीख चुके हैं. हर कोई ऐसी रणनीति पर काम कर रहा है कि बीजेपी को शिकस्त दी जा सके. हो सकता है जरूरत के हिसाब से अभी की तैयारियां नाकाफी हों - लेकिन कोई भी शुरुआत छोटी ही होती है.

विपक्ष जान चुका है कि अगर एकजुट होने की कोशिशें सरेआम हुईं तो नेताओं के घरों पर या फिर उनके करीबियों के ठिकानों पर ताबड़तोड़ छापे पड़ने शुरू हो जाएंगे. बीमारी की रोकथाम इलाज से बेहतर होता है. कोरोना काल में भी मेडिकल साइंस की ये थ्योरी फेल तो नहीं ही हुई है - विपक्ष भी ऐसे ही सबक के साथ आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है.

ऐसा लगता है बीजेपी को अंग्रेजों की तरह पूरे देश में अपना एक संभावित साम्राज्य नजर आने लगा है. जैसे अंग्रेजों के जमाने में उनके औपनिवेशिक साम्राज्य की सूर्योदय से सूर्यास्त तक फैले इलाके की संज्ञा दी जाती थी - बीजेपी भी कश्मीर से कन्याकुमार तक मन ही मन सपने को साकार होते देखने लगी है - लेकिन उसे मालूम नहीं है कि अंदर ही अंदर 'खेला' शुरू हो चुका है.

1. एजेंडा में क्या है?

ममता बनर्जी ने बंगाल में कभी 'पोरिबोर्तन' का नारा दिया था और बीजेपी पश्चिम बंगाल चुनाव में बार बार वही दोहरा रही थी, लेकिन फेल हो गयी. तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने मुंबई पहुंच कर कहा है, 'देश को परिवर्तन की जरूरत है.'

केसीआर का भी उद्धव ठाकरे और शरद पवार ने वैसे ही सपोर्ट किया है जैसे कुछ दिनों पहले ममता बनर्जी और उसके बाद सोनिया गांधी को किया था. केसीआर से मुलाकात के बाद बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस भी हुई है - और हाल फिलहाल विपक्ष की तरफ से ऐसी पहली कोशिश लगती है.

kcr, uddhav thackeray, sharad pawarबीजेपी, बामुलाहिजा होशियार... केसीआर विपक्ष का नया एजेंडा लेकर आ रहे हैं!

अब तक विपक्ष की मुलाकातें होती रहीं. कभी कांग्रेस को किनारे रख कर तो कभी कांग्रेस के बुलावे पर, लेकिन बाहर आकर गोलमोल बातें ही होती रहीं. ऐसा पहली बार हुआ है कि केसीआर और उद्धव ठाकरे एक साथ मीडिया के सामने आये हैं और कुछ ठोस आश्वासन भी दिया है.

''हम लोग एक बात पर सहमत हुए कि देश में बड़े परिवर्तन की ज़रूरत है... देश के माहौल को खराब नहीं करना चाहिये... ज़ुल्म के साथ हम लड़ना चाहते हैं. नाजायज काम से हम लड़ना चाहते हैं.''

केसीआर की बातों को उद्धव ठाकरे एनडोर्स भी करते हैं - और जो कहते हैं वो कहने भर को सांकेतिक होता है, बल्कि सब कुछ साफ और सटीक होता है, 'हमारा हिंदुत्व बदला लेने वाला नहीं है!'

2019 के आम चुनाव से पहले भी केसीआर खासे एक्टिव देखे गये थे. बल्कि, अपने नजदीकी पड़ोसी चंद्रबाबू नायडू के समानांतर भी. तब वो ममता बनर्जी से मिलने के लिए ऐसे ही कोलकाता तक गये थे, लेकिन ममता बनर्जी साथ में मीडिया के सामने आने को तैयार नहीं हुईं - उद्धव ठाकरे ने कोशिशों पर गंभीरता की मुहर लगा दी है.

तभी तो डंके की चोट पर केसीआर कह रहे हैं, 'जल्द ही देश के कुछ और नेताओं से बातचीत के बाद एजेंडा पेश किया जाएगा - ये एजेंडा किसके खिलाफ होगा ये तो मालूम है, लेकिन क्या होगा अभी ये साफ नहीं है.

2. विपक्ष ने सरवाइवल का तरीका खोज लिया गया है

जिन इलाकों में अपराधियों का दबदबा होता है, वहां के लोग सरवाइवल के तौर तरीके से धीरे धीरे सीख जाते हैं. चाहे वो नक्सल प्रभावित इलाका हो या फिर बिहार में जंगलराज का दौर रहा हो - बड़े बड़े डॉक्टरों और कारोबारियों ने अपहरण और फिरौती के दौर में उसके साथ जीना सीख लिया था. लाइफस्टाइल ऐसी बना ली थी जिससे लगे कि वो जैसे तैसे गुजारा कर रहा हों. सभी तो नहीं लेकिन ऐसे उपाय करके बहुतों ने जिंदगी जीने का तरीका निकाला और शिकारी को चकमा देते रहे. कॉनफ्लिक्ट जोन में रह चुके लोगों से बात करने पर ऐसे तमाम किस्से सुनने को मिल जाते हैं.

सपा-बसपा गठबंधन टूटने और यूपी चुनाव 2022 में प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन न होना सबसे बड़ा उदाहरण है. 2018 के चुनाव के समय जब अखिलेश यादव और मायावती के बीच मौखिक गठबंधन हुआ, तो बकौल योगी आदित्यनाथ, प्रयोग को बहुत हल्के में ले लिया गया था - और बीजेपी को शिकस्त झेलनी पड़ी थी, लेकिन फिर 2019 में शिद्दत से तैयारी हुई और भूल सुधार भी कर लिया गया.

बीजेपी की चुनावी तैयारियों का एक हिस्सा ये भी रहा कि उसने गोरखपुर से चुनाव जीतने वाले प्रवीण निषाद को हो तोड़ लिया - और गोरखपुर की योगी वाली सीट पर जीत का रास्ता साफ हो गया. इलाके के ब्राह्मणों की नाराजगी दूर करने का बीजेपी ने रविकिशन शुक्ला में कारगर नुस्खा खोज लिया और काम बन गया.

लेकिन लगता है बीजेपी विपक्ष की ताजा गतिविधियों से बेखबर है और परदे के पीछे कैसे बीजेपी के खिलाफ रणनीति पर काम चल रहा है, लगता है उसे मामलू भी नहीं है - क्योंकि बीजेपी को लगता है कि कांग्रेस के साथ साथ उसने विपक्ष मुक्त भारत का सपना साकार कर लिया है.

3. नीतीश और पीके भी यूं ही नहीं मिले हैं

मुंबई में केसीआर की ठाकरे और पवार के साथ हुई मुलाकातों जैसी ही नीतीश कुमार और प्रशांत किशोर की मुलाकात भी महत्वपूर्ण है. हो सकता है अभी दोनों आपसी जरूरतों के चलते मिले हों, लेकिन आगे चलकर ऐ़ड-ऑन फीचर तो बन ही सकते हैं.

ममता बनर्जी और प्रशांत किशोर के रिश्तों को अलग करके देखा जा रहा है, लेकिन ये भी तो हो सकता है दुश्मन को चकमा देने की रणनीति का ही हिस्सा हो. आखिर ममता बनर्जी ने अभिषेक बनर्जी की पोजीशन भी तो यथास्थिति में ला ही दी है.

और लालू प्रसाद को लेकर प्रियंका गांधी का बयान भी यूं ही नहीं लगता. लालू को लेकर प्रियंका गांधी ने जो कुछ कहा है, राहुल गांधी के मुंह से ऐसा कभी नहीं सुनने को मिला.

राहुल गांधी भले ही तेजस्वी यादव के साथ लंच कर लेते हों, लेकिन दागी नेताओं को बचाने वाले ऑर्डिनेंस की कॉपी फाड़े जाने के बाद से दोनों ही एक दूसरे से बचते रहे हैं - और कन्हैया के कांग्रेस में आने और बिहार उपचुनाव के दौरान महागठबंधन में जो किचकिच हुआ है, उसके बाद लालू और सोनिया गांधी की बातचीत के बाद बात भी खत्म सी हो गयी है - प्रियंका गांधी का ताजा रुख भी उसी का नतीजा लगता है.

2020 के विधानसभा चुनाव के लिए महागठबंधन की सीटें तय कराने में भी प्रियंका गांधी की महत्वपूर्ण भूमिका मानी गयी थी - ये तब की बात है जब लालू जेल में हुआ करते थे.

लालू यादव को लेकर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने वही बयान दिया है जो तेजस्वी ने ट्विटर पर पिन कर रखा है - 26 दिसंबर 2017 से.

3. ममता और पवार की दूरी को कैसे समझें?

यूपी चुनाव को लेकर शरद पवार और ममता बनर्जी दोनों के बयान आये हैं, लेकिन दोनों ही एक निश्चित दूरी बना कर चल रहे हैं. ममता बनर्जी ने जरूर लखनऊ का दौरा किया है और अखिलेश यादव के सपोर्ट में साथ बैठ कर प्रेस कांफ्रेस भी की है - लेकिन ये सब ऐसे पेश किया गया जैसे बीजेपी को गफलत में रखा जा सके.

एनसीपी का तो एक उम्मीदवार भी चुनाव मैदान में है, लेकिन ममता का कोई कैंडीडेट नहीं है. अनूप शहर से अखिलेश यादव ने गठबंधन के तहत एनसीपी के केके शर्मा को टिकट दे रखा है - और एनसीपी प्रवक्ता नवाब मलिक उनके लिए चुनाव प्रचार भी कर चुके हैं.

शरद पवार ने यूपी चुनावों से भी उतनी ही दूरी बनाये रखी, जितनी पश्चिम बंगाल के वक्त देखने को मिली थी - लेकिन ये भी बीजेपी नेतृत्व को झांसा देने की कवायद ही लगती है.

यूपी का उन्नाव सीट बेहतरीन नमूना है कि कैसे सपा और कांग्रेस अंडरस्टैंडिंग के साथ चुनाव लड़ रहे हैं - और करहल जहां से अखिलेश यादव खुद चुनाव मैदान में उतरे हैं.

4. मायावती किसके साथ हैं?

माना तो यही जा रहा है कि मायावती पूरी यूपी में जगह जगह बीजेपी की मदद कर रही हैं, लेकिन करहल का राजनीतिक समीकरण देखने पर पता चलता है कि कैसे बीएसपी अखिलेश यादव की जीत में बाधा नहीं बन रही है. मायावती ने गोरखपुर सदर या जहूराबाद की तरह करहल में मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया है.

ऐसा ही बिहार चुनाव में भी देखने को मिला था. चिराग पासवान भी वहां बीजेपी के लिए मायावती जैसे ही मिलते जुलते रोल में थे, लेकिन तेजस्वी यादव की सीट पर ऐसा उम्मीदवार खड़ा किया था कि जीत में कोई रुकावट न आये.

ऊपर से भले लग रहा हो कि मायावती किसी मजबूरी में बीजेपी के मनमाफिक काम कर रही हैं, लेकिन ये सब मन बहलाने वाले गालिब ख्याल ही लगते हैं.

और बीजेपी के फील गुड की ताजा मिसाल है अपने लिए एक और कंगना रनौत की खोज - कुमार विश्वास को Y कैटेगरी की सुरक्षा दिया जाना भी तो वैसा ही है. फर्क बस ये है कि कंगना ने खुशी खुशी स्वीकार कर लिया था - लेकिन कुमार विश्वास के मुंह से अभी अरविंद केजरीवाल का ही पुराना डायलॉग निकल रहा है - न कभी सुरक्षा की जरूरत समझी, न मांगी है.

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केजरीवाल तभी बेकसूर समझे जाएंगे जब वो कुमार विश्वास से माफी मंगवा लें!

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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