अखिलेश का करहल में मुलायम को उतारना योगी आदित्यनाथ के कश्मीर-केरल करने जैसा ही!
मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) के करहल में चुनाव प्रचार के बाद लगता नहीं कि अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) को भी उतना ही भरोसा जितना योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) को गोरखपुर के लोगों पर - हां, यूपी की जंग का मिजाज अलग हो सकता है.
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यूपी चुनाव में करहल विधानसभा सीट उतनी ही अहम है जितनी गोरखपुर सदर - जैसे गोरखपुर से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ चुनाव मैदान में हैं, करहल से अखिलेश यादव चुनाव लड़ रहे हैं.
गोरखपुर सदर सीट की लड़ाई में जहां पूरे यूपी चुनाव की लड़ाई का मिजाज समझा जा सकता है, करहल में समाजवादी पार्टी के खिलाफ बीजेपी की बड़ी रणनीति का नमूना देखा जा सकता है.
गोरखपुर सदर सीट पर पूरे यूपी चुनाव के मिजाज को समझने के लिए उम्मीदवारों के चयन को ध्यान से देखिये. अखिलेश यादव ने पूरे यूपी में ठाकुरवाद के आरोपों से घिरे योगी आदित्यनाथ के खिलाफ अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी वाड्रा दोनों ने ही ब्राह्मण उम्मीदवार को टिकट दिया है. प्रियंका वाड्रा ने तो अपने महिला कोटा का भी पूरा ख्याल रखा है - और चंद्रशेखर आजाद की राजनीति को ठिकाने लगाने के लिए मायावती ने मुस्लिम कैंडीडेट उतार दिया है. बिलकुल वैसे ही जैसे पूरे उत्तर प्रदेश में बीएसपी को बीजेपी की मदद में खड़े देखा जा सकता है.
जैसे बीजेपी गैर-यादव ओबीसी वोट हथियाने के लिए पूरे उत्तर प्रदेश में जुटी हुई है, करहल सीट पर केंद्रीय मंत्री एसपी सिंह बघेल को उतार कर वही चाल चली गयी है. वैसे केंद्रीय मंत्री को विधानसभा चुनाव लड़ाने का प्रयोग बीजेपी पश्चिम बंगाल में भी कर चुकी है और असफल भी रही है.
समझा तो यही जाता है कि अखिलेश यादव को विधानसभा चुनाव भी बीजेपी के दबाव में लड़ना पड़ रहा है. जब बीजेपी ने योगी आदित्यनाथ को गोरखपुर सदर सीट से उम्मीदवार घोषित कर दिया तो अखिलेश यादव से जगह जगह सवाल पूछा जाने लगा - ये सवाल तो प्रियंका गांधी वाड्रा के लिए भी रहा, लेकिन वो ये सोच कर परवाह नहीं की होंगी क्योंकि मौजूदा चुनाव में तो कांग्रेस यूपी में चर्चा में बने रहने के लिए ही उतरी है.
सवालों के जवाब में अखिलेश यादव ने यही कहा था कि वो आजमगढ़ के लोगों से अनुमति लेकर ही चुनाव लड़ने का फैसला करेंगे - और ऐसा कहने के 24 घंटे बाद ही समाजवादी पार्टी की तरफ से अखिलेश यादव के करहल सीट से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी गयी. थोड़ी हैरानी भी हुई कि आजमगढ़ के लोगों ने बड़ी जल्दी अनुमति दे डाली. वो भी तब जबकि समाजवादी कार्यकर्ता अखिलेश यादव के आजमगढ़ की ही अलग अलग सीटों से चुनाव लड़ने की उम्मीद कर रहे थे.
और जैसे बीजेपी ने योगी आदित्यनाथ के लिए सबसे सुरक्षित सीट खोजी थी, समाजवादी पार्टी ने भी अखिलेश यादव के लिए करहल को वैसे ही खोज निकाला. ये तो साफ है कि दोनों ही राजनीतिक दलों ने अपने अपने नेताओं के लिए ऐसी सीटें खोजी थी ताकि वे अपना इलाका छोड़ कर पूरे राज्य में चुनाव कैंपेन करते रहें - लेकिन क्या हुआ भी ऐसा ही है?
करहल और गोरखपुर सदर को जरा ध्यान से देखें तो दोनों सीटों की लड़ाई में थोड़ा फर्क नजर आ रहा है. गोरखपुर में अब भी लड़ाई जहां एकतरफा नजर आ रही है, करहल में मामला ठीक वैसा ही तो नहीं लगता.
गोरखपुर सदर सीट पर मुकाबला एकतरफा लगता है, लेकिन करहल में ऐसा क्यों नहीं लगता?
करहल सीट पर अखिलेश यादव की स्थिति को लेकर संशय की स्थिति भी किसी और ने नहीं, बल्कि खुद समाजवादी पार्टी के नेता ने ही पैदा की है - अव्वल तो करहल में चुनाव प्रचार के लिए मुलायम सिंह यादव को बुलाकर और फिर मंच से मुलायम सिंह यादव के वोट मांगने का अंदाज देख कर.
करहल में अखिलेश बनाम योगी का हाल
नामांकन की बात और होती है लेकिन चुनाव प्रचार की और बात. अगर मुलायम सिंह यादव भी अखिलेश यादव के नामांकन में वैसे ही गये होते जैसे योगी आदित्यनाथ के नॉमिनेशन में अमित शाह तो कुछ भी अजीब नहीं लगता - ऐसा लगता जैसे समाजवादी नेता बेटे को आशीर्वाद देने या हौसलाअफजाई के लिए गये - शक्ति प्रदर्शन के तौर पर भी समझा जा सकता था और उसमें भी किसी को कोई हैरानी नहीं होती.
फायदा जो भी, चर्चा तो खूब हो रही है: पांच साल पहले मुलायम सिंह यादव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कान में जो कहा था वो तो तभी मालूम हो सकेगा जब दोनों में कोई भी बताये, लेकिन करहल में मंच पर पर्ची देकर धर्मेंद्र यादव ने मुलायम के कान में जो कहा - लगा सीधे रैली में मौजूद हर किसी के कान तक पहुंच रहा हो.
करहल की रैली में भीड़ देखकर मुलायम सिंह यादव काफी खुश लग रहे थे. किसानों और नौजवानों से लेकर कारोबारी तबके तक की बातें कर डाली - और बोलने को तो यहां तक बोल गये कि अमेरिका की भी निगाहें समाजवादी पार्टी पर है - लेकिन बस यही नहीं याद रहा कि चुनावी रैली में पहुंचने का असली मकसद क्या रहा?
2019 के आम चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने लोगों से खुल कर अपने लिए वोट मांगा था, लेकिन करहल में अखिलेश यादव का तो नाम लेना ही भूल गये. मैनपुरी का वो मौका भी ऐतिहासिक रहा जब मुलायम सिंह के लिए वोट मांगने बीएसपी नेता मायावती भी मंच पर मौजूद थी. मायावती को देखकर वो भी खासे अभिभूत नजर आ रहे थे. बार बार ऐसे जता रहे थे जैसे मायावती बहुत बड़ा एहसान कर रही हों.
तब मुलायम सिंह ने लोगों से साफ शब्दों में कहा था कि जिता देना और कारण भी मौके पर ही बता दिया था - आखिरी बार चुनाव लड़ रहा हूं. लोगों ने मुलायम सिंह की बात मानी भी और चुनाव जीत कर वो लोकसभा भी पहुंचे. लोकसभा पहुंच कर अपना आशीर्वाद भी फलते फूलते देखा. नरेंद्र मोदी के दोबारा प्रधानमंत्री बनने के तौर पर.
करहल में मुलायम सिंह अपनी तरफ से अपना भाषण खत्म कर चुके, लेकिन आखिर तक अखिलेश यादव का नाम लेकर वोट नहीं मांगे तो सब सकते में पड़ गये. फिर परिवार और पार्टी के ही सांसद धर्मेंद्र यादव ने एक पर्ची पकड़ायी, लेकिन लगा होगा कि फिर भी समझ में नहीं आया तो क्या होगा - धर्मेंद्र सिंह ने कहा तो मुलायम सिंह के कान में ही, लेकिन रैली की आखिरी छोर पर खड़े लोगों ने भी समझ ही लिया, जैसे कह रहे हों - टीपू भैया के लिए वोट भी मांग लीजिये.
कान में कही जाने वाली बात का ज्यादा असर हुआ. मुलायम सिंह ने भीड़ से अपील की कि करहल से अखिलेश यादव को भारी मतों से विजयी बनायें.
मुलायम के मुकाबले करहल पहुंचे अमित शाह: जिस दिन मुलायम सिंह यादव करहल पहुंचे थे, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी बीजेपी उम्मीदवार एसपी सिंह बघेल के लिए वोट मांगने गये थे. अमित शाह ने मुलायम सिंह यादव से चुनाव प्रचार कराने को लेकर अखिलेश यादव को निशाना बनाया - बोले, मुकाबला मुश्किल देखते हुए अखिलेश यादव को इस उम्र में पिता को मैदान में उतारना पड़ा.
करहल में अखिलेश यादव के खिलाफ चुनाव लड़ रहे केंद्रीय मंत्री एसपी बघेल कह रहे हैं, 'सपा अध्यक्ष चुनाव नहीं जीत पा रहे हैं तो वो अपने पिता को लेकर आये... हार कबूल ली है... स्वास्थ्य खराब होने के बावजूद करहल में चुनाव प्रचार के लिए मुलायम को लाया गया... रामगोपाल यादव, अक्षय यादव, धर्मेंद्र यादव को लाया गया है... ये अपना पूरा कुनबा चुनाव जीतने में लगा रहे हैं.'
अखिलेश यादव को घेरने के लिए अमित शाह ने ये भी कहा कि सूबे में समाजवादी पार्टी के शासन में सैफई परिवार के 45 लोग अलग-अलग पदों पर हुआ करते थे.
मुलायम सिंह यादव को सिर्फ करहल में अखिलेश यादव के लिए वोट मांगना भूले, लेकिन ऐसा लगा जैसे अमित शाह कैराना और मेरठ की रैलियों की तरह करहल में भी योगी आदित्यनाथ को भुला दिया और वहां भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांग डाले, 'मैं करहल वालों से मन से पूछना चाहता हूं... आप चाहते हैं कि मोदी जी के नेतृत्व में 300 से ज्यादा सीट के साथ भाजपा की सरकार बने... 300 सीट का काम एक ही सीट से हो सकता है - आप करहल में कमल खिला दीजिये, पूरे यूपी से सपा का सूपड़ा साफ हो जाएगा.'
क्या करहल में बीजेपी की जगह अखिलेश की मददगार बनीं मायावती?
करहल के लोगों पर अमित शाह की अपील का जो भी असर हो, लेकिन वहां होने वाला वोटिंग पैटर्न पूरे सूबे में बने जातीय समीकरणों का प्रतिनिधित्व करता है. बीजेपी के एसपी सिंह बघेल को अखिलेश यादव के खिलाफ चुनाव मैदान में उतारने को सरप्राइज के तौर पर देखा गया.
एसपी सिंह बघेल आगरा से सांसद हैं - और यूपी चुनाव को ध्यान में रख कर ही उनको मोदी कैबिनेट का हिस्सा बनाया गया. जैसे एसपी सिंह बघेल को गैर-यादव ओबीसी वोट बैंक के हिसाब से, बिलकुल वैसे ही लखीमपुर खीरी वाले अजय मिश्रा टेनी को ब्राह्मण वोट बैंक को ध्यान में रख कर. अगर लखीमपुर खीरी हिंसा का मामला नहीं होता और केंद्रीय मंत्री का बेटा आशीष मिश्रा मुख्य आरोपी नहीं होता तो, संभव था टेनी महाराज भी बघेल की ही तरह कहीं न कहीं बीजेपी का मजबूत मोहरा बने होते.
एसपी सिंह बघेल पुलिस सेवा में थे और मुलायम सिंह यादव के सुरक्षा अधिकारी थे. सेवा के दौरान ही बघेल ने पहले कांग्रेसी मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी और फिर मुलायम सिंह यादव के बेहद करीबी बन गये. मुलायम ने ही सबसे पहले बघेल को राजनीति में एंट्री देते हुए विधानसभा पहुंचाया. फिर स्वामी प्रसाद मौर्य उनको बीएसपी में ले गये, लेकिन वो वहां भी नहीं रुके और फिर भविष्य का अपने हिसाब से आकलन कर बीजेपी में पहुंच गये. बघेल का फैसला भी सही साबित हुआ है.
अखिलेश यादव के खिलाफ कांग्रेस ने आम चुनावों के एहसानों के बदले में कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा किया है. ये अखिलेश यादव ही थे जो भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद से प्रियंका गांधी वाड्रा की मुलाकात के बाद आपे से बाहर हो चुकीं मायावती को गठबंधन की तरफ से छोड़ दी गयी सीटों अमेठी और रायबरेली में उम्मीदवार न उतारने के लिए मनाये थे. वैसे इस बार भी उन्नाव सीट से कांग्रेस उम्मीदवार आशा सिंह के खिलाफ समाजवादी पार्टी ने अपना प्रत्याशी न उतारने का फैसला किया है.
मायावती ने अखिलेश यादव के खिलाफ दलित उम्मीदवार खड़ा किया है. बीएसपी के टिकट पर करहल से कुलदीप नारायण चुनाव लड़ रहे हैं. मायावती का ये कदम भी काफी सोचा समझा लगता है. वैसे जसवंत नगर में शिवपाल यादव के खिलाफ भी मायावती ने दलित समुदाय से ही उम्मीदवार बनाया है.
मायावती करहल में भी सपा के यादव-मुस्लिम समीकरण का प्रभाव कम करने के लिए मुस्लिम कैंडीडेट उतार सकती थीं, लेकिन वोटर के नंबर के कारण ऐसा नहीं किया होगा. करहल क्षेत्र में मुस्लिम वोट 14 हजार हैं, जबकि जाटव दलित वोट 34 हजार हैं.
करहल में कुल 3 लाख 71 हजार वोटर हैं, जिनमें सबसे ज्यादा 1 लाख 44 हजार यादव वोटर हैं. सपा के M-Y समीकरण से इतर देखें तो गैर मुस्लिम और गैर-यादव वोटर की तादाद यादव वोट से ज्यादा हो जाती है - डेढ़ लाख से भी ज्यादा.
करहल सीट यूपी की उन चुनिंदा सीटों में से लगती है जहां मायावती ने अपने मन का फैसला लिया है, ऐसा लगता है. जो सीटें बीएसपी अपने हिसाब से जीत रही होगी, उनकी ही तरह मायावती ने करहल में भी दलित उम्मीदवार खड़ा किया है - लेकिन मुश्किल ये है कि करहल में जो गैर-यादव और गैर-मुस्लिम वोट बैंक है, मायावती का उम्मीदवार उसमें भी हिस्सेदार हो सकता है और ये सीधे सीधे बीजेपी के खिलाफ जा सकता है.
अगर मायावती किसी मुस्लिम को बीएसपी का कैंडीडेट बनातीं तो योगी आदित्यनाथ की गोरखपुर सदर सीट जैसा हाल होता, करहल में मायावती की रणनीति थोड़ी अलग नजर आ रही है - और ऐसा लगता है जैसे मायावती ने यूपी के बाकी हिस्सों की तरह अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा किया है.
ऐसा लगता है जैसे मायावती ने दलित उम्मीदवार उतार कर मुस्लिम वोट को डिस्टर्ब न करने का फैसला किया हो. कांग्रेस ने कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया है और बीएसपी उम्मीदवार भी मुस्लिम नहीं है, लिहाजा पूरा मुस्लिम वोट सीधे सीधे अखिलेश यादव को मिलने की संभावना है.
ये तो लगता है कि अपना वोट शेयर बरकरार रखने और अखिलेश यादव की मदद करने जैसा कोई गलत संदेश न जाये, इसलिए मायावती ने कांग्रेस से अलग फैसला लिया है - लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि करहल में मायावती ने बीजेपी की जगह अखिलेश यादव की मदद करने की कोशिश की है.
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