ममता बनर्जी के लिए अब चुनाव जीतना काफी नहीं रहा, चाहिए इतनी सीटें
पश्चिम बंगाल चुनाव (West Bengal Election 2021) में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के नेतृत्व में बीजेपी 200 सीटें जीतने का दावा कर रही है और ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की भी इतनी ही सीटों की दरकार है - क्योंकि चुनाव जीतने के बाद सरकार भी चलानी होती है.
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ममता बनर्जी (Narendra Modi) को भी पश्चिम बंगाल चुनाव (West Bengal Election 2021) में 200 सीटों की ही जरूरत है - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के नाम पर चुनाव लड़ रही बीजेपी के सीनियर नेता अमित शाह का भी दावा है कि वो 200 से कम सीटें नहीं जीतने वाले हैं. पश्चिम बंगाल की 294 सीटों वाली विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा 148 है, लेकिन ऐसी क्या वजह है कि अमित शाह और ममता बनर्जी दोनों ही कम से कम 50 सीटें ज्यादा जीतने के पीछे पड़े हुए हैं?
अमित शाह का मकसद तो कुछ ऐसे ही लगता है जैसे लक्ष्य बड़ा रखने से काम आसान हो जाता है. अगर 200 का लक्ष्य रखा है और 148 सीटें भी आ गयीं तो बीजेपी की सरकार बन जाएगी. अब अगर 148 सीटें जीत कर बहुमत हासिल करने का लक्ष्य रखे और कहीं किसी चूक की वजह से मामला थोड़ा गड़बड़ हो गया तो बहुमत के करीब पहुंच कर भी मन मसोस कर रह जाना पड़ेगा. अमित शाह बीजेपी की सीटों को लेकर सिंपल लॉजिक देते हैं और बड़े गंभीर होकर ऐसे किसी भी सवाल का छोटा सा जवाब देकर चुप हो जाते हैं - जो बोला है बस मान लो. चाहो तो अगला सवाल पूछ सकते हो. जवाब मिल जाएगा.
लेकिन तृणमूल कांग्रेस नेता के 200 सीटें जीतने की कोशिश के अलग कारण लगते हैं. बाकियों को छोड़ भी दें तो कम से कम दो कारण तो साफ तौर पर नजर आते हैं - पहली वजह तो यही लगती है कि ऐसा होने पर ममता बनर्जी के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर उर्फ पीके को चुनावी मुहिम का धंधा नहीं छोड़ना पड़ेगा - अगर टीएमसी को 200 सीटें मिल जाएंगी तो बची हुई 94 सीटों का ही विरोधियों में बंटवारा होगा - और बीजेपी 100 सीटों का आंकड़ा पार नहीं कर पाएगी.
और दूसरी वजह ये हो सकती है कि ममता बनर्जी के सामने चुनाव जीत कर सरकार बना लेने के बाद भी हर वक्त ऑपरेशन लोटस का खतरा नहीं मंडरा रहा होगा. ममता बनर्जी इसके लिए तर्क दे रही हैं कि ऐसा हुआ तभी वो सरकार बनाने के साथ साथ योजनाओं को लागू भी कर पाएंगी.
ममता बनर्जी लोगों से ज्यादा से ज्यादा वोट देकर टीएमसी की झोली में 200 सीटें डालने की अपील तो कर ही रही हैं, चुनाव आयोग से भी उनकी डिमांड है कि बाकी बचे चारों चरणों के मतदान एक ही बार में करा दिये जायें.
एक ही बार में बाकी चुनाव कराने की डिमांड
चुनाव आयोग ने वैसे तो साफ कर दिया है कि पश्चिम बंगाल में बाकी बचे चार चरण के चुनाव एक साथ कराने का उसका कोई इरादा नहीं है. पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा 8 चरणों में चुनाव होने थे - और अब तक उनमें से चार फेज की वोटिंग हो चुकी है.
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की एक ही साथ बचे हुए चुनाव कराने की मांग वैसे तो कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप के चलते बतायी जा रही है, लेकिन उसकी राजनीतिक वजह अलग है - और कूच बेहार में फायरिंग की हुई घटना भी एक वजह लगती है.
तृणमूल कांग्रेस को पक्का यकीन है कि बाकी बचे चार फेज के चुनावों में उसे बीजेपी टक्कर तो दे सकती है, लेकिन अगर लोगों ने घर से निकल कर ज्यादा वोट किया तो वो भारी पड़ेगी. बाकी बचे सभी चुनाव एक साथ कराये जाने के पीछे भी तृणमूल कांग्रेस नेतृत्व की सोच यही है कि कहीं कोरोना के बढ़ते प्रकोप की वजह से लोग घरों से नहीं निकले तो बात बनते बनते बिगड़ भी सकती है.
अप्रैल के शुरू में ही कूच बेहार के दिनहाटा की एक रैली में ममता बनर्जी लोगों को समझा रही थीं, 'मैं नंदीग्राम में अच्छे मार्जिन से चुनाव जीतूंगी. लेकिन आपको सुनिश्चित करना होगा कि बाकी की 199 सीटें तृणमूल कांग्रेस के हिस्से में आयें ताकि लोकतंत्र को मजबूत किया जा सके. वरना, बीजेपी अपने लोगों के जरिये पैसे का खेला शुरू कर देगी.'
पश्चिम बंगाल में 200 सीटों की अलग अलग जरूरत है
ममता बनर्जी ये अपील उस इलाके में कर रही थीं जहां 2019 के आम चुनाव में बीजेपी ने अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन किया था, लेकिन चौथे चरण के मतदान के दौरान हुई फायरिंग और चार लोगों की बूथ पर मौत से तृणमूल कांग्रेस को लोगों की सहानुभूति मिलने के साथ साथ मुस्लिम वोटों के बिखराव रुकने की भी उम्मीद है. वैसे तृणमूल कांग्रेस को ये भी नहीं भूलना चाहिये कि क्रिया की प्रतिक्रिया स्वरूप जो फैक्टर मुस्लिम वोटों का बिखराव रोकेंगे वे ही वोटों के ध्रुवीकरण को भी बढ़ावा देंगे.
तब ममता बनर्जी ने ये भी दोहराया था कि खेल होगा और उसमें जीतना भी होगा. ममता बनर्जी ने लोगों से टीएमसी को वोट देने के साथ ही ये भी सलाह दी कि अगर फोन पर बातचीत होती है तो वे जय बांग्ला जरूर बोलें - उधर से फोन करने वाला चाहे जो भी हो. जाहिर है ममता बनर्जी बीजेपी की तरफ से वोट मांगने के लिए आने वाले फोन के लिए जवाब तैयार करा रही थीं.
साथ ही ममता बनर्जी ने ये वादा भी किया था कि जब उनका पांव ठीक हो जाएगा तो वो फिर से मिलने के लिए उनके बीच पहुंचेंगी. फायरिंग की घटना के बाद ममता बनर्जी के चुनाव प्रचार पर 24 घंटे की पाबंदी तो लगी, लेकिन जैसे ही मौका मिला वो फायरिंग के पीड़ितों से मिलने पहुंच गयीं.
ममता बनर्जी को अब कोरोना वायरस की वजह से कम वोटिंग का डर भी सता रहा है और उसी को वजह बताकर वो बचे हुए चुनाव एक साथ कराने के लिए दबाव बनाने की भी कोशिश कर रही हैं - लेकिन ऐसा हो पाने की दूर दूर तक कोई संभावना नजर नहीं आ रही है.
बहरहाल, अब तो चुनाव आयोग ने कोलकाता में सर्वदलीय बैठक बुलाने के बाद भी बोल दिया है कि मीटिंग में एक साथ चुनाव कराने पर कोई चर्चा नहीं हुई. ममता बनर्जी को अब कोई अलग तरकीब निकालनी होगी.
ऑपरेशन लोटस का खतरा अभी से क्यों
कोरोना वायरस के चलते बाकी चरणों में कम वोटिंग की आशंका के साथ साथ ममता बनर्जी को एक और डर सता रहा होगा - अगर बहुमत से ज्यादा सीटें नहीं आयीं तो चुनाव जीत कर सरकार बनाने के बाद भी उनके लिए खतरे की नयी तलवार ऊपर से लटक रही होगी.
ठीक वैसा ही जैसा कर्नाटक में हुआ, जैसा मध्य प्रदेश में हुआ, जैसा राजस्थान में होते होते रह गया - और अब महाराष्ट्र को लेकर जैसे आशंका के बादल लगातार छाये हुए हैं.
महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार के बिहार चुनाव के बाद ही गिर जाने की आशंका जतायी जाने लगी थी, लेकिन सुशांत सिंह राजपूत केस में सीबीआई जांच से कुछ हाथ नहीं लगने के कारण ऐसा नहीं हो सका. अब एनसीपी नेता और राज्य को पूर्व गृह मंत्री अनिल देशमुख के 100 करोड़ महीने की वसूली के आरोपों के बाद सीबीआई जांच के दायरे में आ गये हैं - ऐन उसी वक्त शरद पवार और उद्धव ठाकरे के बीच कुछ भी ठीक चल रहा हो ऐसा भी नहीं लगता. अब ये हालात जो इशारे कर रहे हैं उन चीजों को समझना मुश्किल तो है नहीं.
जुगाड़ की सरकार का क्या हाल होता है, उद्धव ठाकरे की सरकार फिलहाल तो सबसे बड़ी मिसाल है ही. ऐसी ही एक मिसाल पहले कर्नाटक में देखने को मिली थी जब जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी राज्य के मुख्यमंत्री रहे - और विपक्ष में ऑपरेशन लोटस के जनक बीजेपी नेता बीएस येदियुरप्पा - जो अपने राजनीतिक कौशल की बदौलत 75 पार होकर भी मुख्यमंत्री बने हुए हैं और केंद्रीय नेतृत्व से भी अपने विरोधियों को मैसेज दिलवाने में कामयाब रहे हैं - किसी भी सूरत में मुख्यमंत्री नहीं बदला जाएगा.
अगर बीजेपी और कांग्रेस के विधायकों की संख्या में अच्छा मार्जिन होता तो क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया मध्य प्रदेश में एक झटके में कमलनाथ सरकार गिरा पाने में सफल हो पाते? राजस्थान में भी आंकड़ों का फर्क कोई बड़ा नहीं है, लेकिन सचिन पायलट के मुकाबले अशोक गहलोत की नीचे और ऊपर की ताकत का दबाव ज्यादा है.
अशोक गहलोत की ताजा मुश्किल ये है कि सचिन पायलट खेमा नये सिरे से अंगड़ाई लेने लगा है. दो दिन पहले की ही तो बात है, अंबेडकर जयंती के मौके पर कांग्रेस दफ्तर पहुंचे सचिन पायलट ने बड़े ही साफ शब्दों में कह डाला कि सरकार उपचुनावों के बाद नियुक्तियों में घोटाले और AICC से जो बातचीत हुई थी उस पर अमल न करे. फिर क्या था सियासी गलियारे में सचिन पायलट के सख्त रुख को लेकर नये सिरे से उनके बागी तेवर की चर्चा जोरों पर है.
सचिन पायलट खेमे के विधायक अशोक गहलोत सरकार पर SC-ST के नाम पर खानापूर्ति के आरोप लगाने लगे हैं. कांग्रेस विधायक वेद प्रकाश सोलंकी कह रहे हैं कि सरकार को SC-ST के विधायकों को उचित सम्मान देना ही चाहिये - और उनके हिसाब से सम्मान देने का मतलब कुछ और नहीं बल्कि मंत्रिमंडल में शामिल किया जाना है.
मतलब साफ है जो काम बिहार विधानसभा चुनाव के बाद नहीं हो सके उनके लिए पश्चिम बंगाल सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के खत्म होने का इंतजार है. मतलब ये भी साफ है कि 2 मई के बाद कोरोना वायरस पर ही फैसला नहीं होगा, बल्कि ऑपरेशन लोटस की कारस्तानी भी तेज हो सकती है.
पश्चिम बंगाल चुनाव के बीचोंबीच ममता बनर्जी को गैर बीजेपी शासित ऐसी ही आशंकाएं डराने लगी हैं. ममता बनर्जी को लगता है कि अगर प्रशांत किशोर के भरोसे चुनावी वैतरणी पार हो भी गयी तो सरकार भी पांच साल चल पाएगी - लगातार इसकी आशंका बनी रह सकती है. जैसे सत्ता परिवर्तन तक बीजेपी कर्नाटक में नहीं बैठी, मध्य प्रदेश में अपनी सरकार बना कर ही दम ली या मध्य प्रदेश और राजस्थान को लेकर गिद्ध दृष्टि अपनाये हुए है - पश्चिम बगांल में भी हर पल 'खेला होबे' के खतरे बने रहेंगे!
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