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Updated: 03 जनवरी, 2020 05:30 PM
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पूरे पांच साल बीत गये, लेकिन दिल्ली BJP की जमीनी हकीकत बदली नहीं. 2020 में भी बीजेपी के सामने वही सवाल फिर से खड़ा है जो 2015 में था - AAP नेता अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) को कौन चैलेंज करे?

'पांच साल केजरीवाल' बोल कर दिल्ली में 67 सीटें जीतने वाले अरविंद केजरीवाल पर हमलावर बीजेपी की तरफ से वही चेहरे हैं जो तब थे. अपने अपने तरीके से सभी बीजेपी की तरफ से केजरीवाल को टारगेट करते रहे हैं - लेकिन चुनावों में भी कोई टिक पाये ऐसा नहीं लगता, सिवा ब्रांड मोदी (PM Narendra Modi) के.

ले देकर कहने भर को बीजेपी के पास दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी (Manoj Tiwari) हैं - लेकिन लगता नहीं कि पार्टी नेतृत्व को उन पर भरोसा है - अगर ऐसा होता तो भला उनकी मौजूदगी में अमित शाह मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा से बहस करने की चुनौती क्यों देते?

केजरीवाल के मुकाबले बीजेपी में है ही कौन?

दिल्ली में बीजेपी पांच साल का चक्कर लगाने के बाद फिर उसी मोड़ पर आ खड़ी हुई है, जहां उसे किरण बेदी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाना पड़ा था. ऐसा तब भी इसीलिए करना पड़ा क्योंकि बीजेपी को दिल्ली बीजेपी के किसी भी नेता पर भरोसा नहीं रहा कि वो अरविंद केजरीवाल को टक्कर दे पाएगा.

2015 में बीजेपी नेतृत्व के आकलन का जो भी तरीका हो, लेकिन 2013 ये डॉ. हर्षवर्धन ही रहे जिन्होंने दिल्ली में पार्टी को सबसे ज्यादा सीटें दिलायी थीं. वो भी तब जब अरविंद केजरीवाल रामलीला आंदोलन के बाद बेशुमार लोकप्रियता हासिल कर भ्रष्टाचार के खिलाफ एक योद्धा के रूप में उभरे थे. ये तभी की बात है जब अरविंद केजरीवाल ने 15 साल से दिल्ली में सरकार चला रहीं शीला दीक्षित को भी शिकस्त दे डाली थी.

फिर भी बीजेपी नेतृत्व ने हर्षवर्धन को किनारे कर किरण बेदी को आजमाया. किरण बेदी को आजमाने की एक वजह रामलीला आंदोलन में उनका केजरीवाल के साथ टीम अन्ना का हिस्सा होना भी रहा. सारी बातें एक तरफ और कार्यकर्ताओं की नाराजगी एक तरफ, बीजेपी को भले ही इस बात की खुशी रही हो कि उसने कांग्रेस की विधानसभा में एंट्री नहीं होने दी, लेकिन खुद भी तीन सीटों पर ही तो सिमट कर रह गयी.

हर्षवर्धन तो पहले ही हाशिये पर जा चुके थे, बीजेपी को मनोज तिवारी में ज्यादा संभावना नजर आयी और प्रदेश बीजेपी की कमान सौंप दी. ऐसा भी नहीं कि मनोज तिवारी केजरीवाल को चैलेंज नहीं करते या फिर दिल्ली के लोगों से कनेक्ट नहीं रहते - लेकिन ये तो है कि दिल्ली बीजेपी के भीतर ही उनके दुश्मन हजार हैं.

महीना भर हुआ होगा, केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी ने अचानक बोल दिया कि बीजेपी मनोज तिवारी के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी और सुनिश्चित करेगी की वो मुख्यमंत्री बनें - लेकिन बाद में पुरी को ट्विटर पर पलटी मारनी पड़ी. हरदीप पुरी ने सफाई दी कि वो सिर्फ चुनाव लड़ने की बात कर रहे थे.

वैसे अब तो केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने साफ साफ बोल दिया है कि बीजेपी ने मुख्यमंत्री चेहरे को लेकर अभी तक कोई फैसला नहीं लिया है. जावड़ेकर के साथ ही हरदीप पुरी दिल्ली के सह-प्रभारी हैं.

ऐसा लगता है मनोज तिवारी को भी बीजेपी वैसे ही लेती है जैसे मुख्यमंत्री बनने से पहले योगी आदित्यनाथ का हाल रहा. पांच बार सांसद बने थे लेकिन एक बार भी मंत्री नहीं. प्रशासनिक कार्यों में गोरखपुर मंदिर के महंत और हिंदू युवा वाहिनी के नेतृत्व के अलावा कोई अनुभव भी नहीं. मनोज तिवारी का भी अब तक यही हाल है. दिल्ली में संघ का काम देख रहे नेताओं की भी यही अवधारणा है कि गाने-बजाने से ऑर्केस्ट्रा तो चलाया जा सकता है, लेकिन चुनाव नहीं जीते जा सकते.

narendra modi, arvind kejriwalमोदी के खिलाफ बोलने के लिए केजरीवाल के पास बचा तो कुछ है नहीं!

दिल्ली एमसीडी के चुनाव बीजेपी ने जीते जरूर लेकिन वो अमित शाह की रणनीतियों के चलते. दिल्ली में लोक सभा की सातों सीटें बीजेपी को ही मिलीं, लेकिन वो मोदी लहर के कारण - फिर मनोज तिवारी को क्या हासिल हुआ?

मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष दुष्यंत कुमार गौतम कहते हैं, ‘उनके पास एक ही केजरीवाल का चेहरा है... हमारे पास ऐसे बहुत से लोग हैं... उनके पास एक चेहरा है, हमारे पास अनेक चेहरे हैं.’

दुष्यंत कुमार जो भी दावा करें, ये ठीक है कि दिल्ली के सातों सांसद बीजेपी के चेहरे ही हैं और मनोज तिवारी भी उन्हीं में से एक हैं - लेकिन केजरीवाल जैसा तो कोई नहीं है? या ऐसा भी नहीं जो केजरीवाल को कदम कदम पर चैलेंज कर सके और लोग मान लें कि वो AAP नेता का विकल्प हो सकता है.

मोदी के नाम पर BJP को ज्यादा फायदा होगा

बीजेपी अब भी दिल्ली में तमाम नफे-नुकसान की पैमाइश कर रही है. सवाल एक ही है मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के मुकाबले किसी एक उम्मीदवार को खड़ा कर जोखिम उठाये या सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़े. बीजेपी ये प्रयोग लगातार करती आयी है और मुख्यमंत्री का फैसला चुनाव नतीजे आने के बाद होता रहा है.

जब बीजेपी की ओर से कोई चेहरा नहीं होगा तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही मैदान में सामने होगें, लाजिमी है. मोदी और शाह दिल्ली में भी डबल इंजिन सरकार की थ्योरी दे सकते हैं - तरक्की सौ फीसदी तय है बशर्ते केंद्र और राज्य दोनों ही जगह एक ही पार्टी की सरकार हो. केजरीवाल सरकार से पहले भी तो ऐसा ही रहा.

बीजेपी को दिल्ली में एक ही सूरत में फायदा मिल सकता है - अगर लोग दिल्ली में बदलाव चाहते हों!

याद कीजिए लोक सभा चुनाव में शीला दीक्षित ने केजरीवाल के साथ कांग्रेस के गठबंधन के खिलाफ ये भी दलील दी थी - और ये कांग्रेस नेतृत्व को आसानी से समझ में भी आ गयी. जब चुनाव नतीजे आये तो शीला दीक्षित का आकलन सही भी साबित हो गया.

अगर लोक सभा चुनाव के नतीजे कोई संकेत हैं, बीजेपी के लिए मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने से बड़ा फायदा मिल सकता है. अगर बीजेपी दिल्ली से किसी नेता को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाती है तो हर कदम पर उसकी केजरीवाल से तुलना होगी. मीडिया में भी दोनों नेताओं के खासियतों पर तुलनात्मक स्टोरी बनेंगी.

सत्ता में वापसी की कोशिश में जुटे अरविंद केजरीवाल के पास बताने के लिए भी काफी बातें हैं. अगर बीजेपी की तरफ से मोदी के अलावा कोई और चेहरा होता है तो उसके बताने के लिए तो ले देकर मोदी सरकार की उपलब्धियों के अलावा तो कुछ होगा नहीं. मौका मिलते ही केजरीवाल एंड कंपनी भी हमले का कोई भी मौका नहीं चूकेगी और बीजेपी की तरफ से सिर्फ रिएक्शन देने की रस्म निभायी जानी लगेगी.

बाकी बातें तो ठीक है, लेकिन एक ही बात बीजेपी को असमंजस में डाले हुए है. तब क्या होगा अगर केजरीवाल पर मोदी का जादू असर नहीं कर पाया? फिर तो बात ब्रांड मोदी के खिलाफ चली जाएगी - और एक सूबे के लिए नेशनल ब्रांड को दांव पर लगाना भी कोई समझदारी तो है नहीं. मीडिया में आयी खबरें बताती हैं कि बीजेपी फिलहाल ऐसी ही बातों से जूझ रही है. केजरीवाल से बहस के लिए प्रवेश वर्मा का नाम आगे बढ़ाने के पीछे अमित शाह की भी एक ही सोच लगती है जिसमें ब्रांड मोदी के लिए सेफगार्ड हों.

लब्बोलुआब यही है कि बीजेपी के पास केजरीवाल के मुकाबले किसी नेता के अभाव में सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ना ही फायदेमंद रहेगा. केजरीवाल और उनकी टीम के पास बीजेपी के खिलाफ ये कहने का मौका जरूर होगा कि पार्टी के पास कोई नेता नहीं है - लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ उनके पास बोलने के लिए कोई नयी बात तो होगी नहीं. वैसे भी केजरीवाल अब मोदी या उनकी सरकार के मंत्रियों के खिलाफ कुछ कहां बोलते हैं. आर्थिक स्थिति में भी वो सुधार की ही उम्मीद करते हैं - वैसे भी केजरीवाल फिर से मोदी को 'कायर' या 'मनोरोगी' तो बोलेंगे नहीं - न ही सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत मांगेंगे.

अब तक अरविंद केजरीवाल दिल्ली के लोगों को समझाते रहे कि मोदी सरकार दिल्ली से जुड़े विकास के हर काम में बाधा डालती रहती है. अब वो तो नारा भी पुराना पड़ चुका है - 'वो परेशान करते रहे, हम काम करते रहे'. अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही बताने लगे हैं कि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सरकार केंद्रीय योजनाओं को लागू ही नहीं होने देती - और कुछ नहीं तो आयुष्मान योजना तो प्रत्यक्ष प्रमाण है.

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