'भाजपा मुक्त भारत' स्लोगन अच्छा है - पहले ये तय हो कि मोदी को चैलेंज कौन करेगा?
2024 के मिशन पर निकले के. चंद्रेशखर राव (K. Chandrashekhar Rao) न तो नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को विपक्ष का नेता बता पा रहे हैं न राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को - वो समझते क्यों नहीं कि लोग जब तक नेता का नाम नहीं जान लेंगे किसी झुंड को घास नहीं डालने वाले हैं.
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नारेबाजी हमेशा भीड़ में जोश भर देती है, लेकिन जोश बनाये रखने के लिए हमेशा ही नेता की जरूरत होती है. नेता के अभाव में जोश ठंडा पड़ते देर भी नहीं लगती - 2024 के आम चुनाव को लेकर विपक्षी एकजुटता की सारी कवायदों में अगर कोई बात खटकती है तो वो है नेता की कमी.
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (K. Chandrashekhar Rao) ने पटना पहुंच कर 2024 के लिए विपक्ष का नारा दिया है - 'भाजपा मुक्त भारत'. सुनने में तो नये नारे के ध्वनि 'कांग्रेस मुक्त भारत' से भी ज्यादा अच्छी लगती है, लेकिन डुप्लीकेट के साथ जो संकट होता है, यहां भी वैसा ही है. ये नारा सुनते ही ओरिजिनल की प्रतिध्वनि कानों में गूंज उठती है.
नया नारा तभी असर डाल सकता है, जब पुरानी व्यवस्था से लोग ऊब चुके हों. अगर मौजूदा व्यवस्था से बहुमत को शिकायत नहीं है तो कुछ नया सोचना होगा. जरूरी नहीं की यूनीक आइडिया ही चलते हैं, लेकिन ताजगी का एहसास जरूर होना चाहिये. नयी उम्मीद जगनी चाहिये - जैसे, 'अच्छे दिन आएंगे'.
भाजपा मुक्त भारत का नारा देने के बावजूद केसीआर भी उसी संकट से जूझते लगते हैं, जो ममता बनर्जी के सामने रहा है - विपक्ष का नेता कौन होगा जो प्रधानमंत्री पद का दावेदार होगा? केसीआर के मन में दावेदारी तो अपने लिए भी होगी, लेकिन वो न तो नीतीश कुमार (Nitish Kumar) का नाम ले पा रहे हैं, न ही राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के नाम पर कुछ कह पाने की स्थिति में लगते हैं.
विपक्षी खेमे की हौसलाअफजाई के लिए केसीआर ने जो नारा दिया है वो अच्छा तो है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल वही है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? जब तक इस सवाल का जवाब केसीआर खोज नहीं लेते, कुछ दिन बाद थक हार कर वो भी बैठ जाएंगे.
पटना की वो प्रेस कांफ्रेंस बहुत कुछ कहती है!
केसीआर यानी के. चंद्रशेखर राव पटना भी वैसे ही पहुंचे थे जैसे चेन्नई या मुंबई के दौरे पर थे. पहले पटना में कोई स्कोप नहीं नजर आ रहा हो, लेकिन एनडीए छोड़ते ही नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन गये हैं.
और यही सवाल जब केसीआर से पूछ लिया जाता है तो वो हाथ खड़े कर देते हैं. तभी राहुल गांधी का नाम उछलता है - और बगल में बैठे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उठ कर खड़े हो जाते हैं.
क्योंकि जवाब किसी के पास नहीं है - और जब किसी के पास इस सवाल का जवाब नहीं हैं तो ये कैसे अपेक्षा कर रहे हैं कि लोग इनको सत्ता सौंप देंगे?
पहले ये तो पता चले कि नेता कौन है? कौन प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठेगा अगर विपक्षी गठबंधन को वोट दिया गया तो!
जिस तरीके से केसीआर ने नीतीश कुमार की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी पर रिएक्ट किया, नीतीश कुमार ने भी अपने तरीके से जवाब दे दिया है
ये भी कुछ कुछ वैसे ही है जैसे कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों में बीजेपी के पास जवाब नहीं होता. जहां किसी को नेता नहीं घोषित करती, वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चेहरा हो जाते हैं. कई जगह ये चल भी जाता है, कई जगह फेल भी हो जाता है.
क्या लोगों को ये समझ में नहीं आता होगा? वे अच्छी तरह समझते हैं कि बीजेपी के पास कोई एक नेता नहीं है कि वो पेश कर सके. वे ये भी जानते हैं कि बीजेपी इस बात से डरती है कि अगर एक नेता का नाम सामने ला देंगे तो बाकी नाराज होकर घर बैठ जाएंगे और चुनाव में हार पहले से ही तय हो जाएगी. ये टालने के लिए ही बीजेपी कई चुनावों में सीएम फेस की घोषणा नहीं करती.
लेकिन विपक्ष को ध्यान रहे, विधानसभा चुनावों को लेकर लोगों की अलग अपेक्षाएं और सोच होती है, और लोक सभा को लेकर अलग. विधानसभा चुनावों में बीजेपी की तरफ से कोई चेहरा न होकर भी एक चेहरा तो होता ही - प्रधानमंत्री मोदी का. एक चेहरा जिसके जरिये बीजेपी डबल इंजिन सरकार के फायदे गिनाती रहती है. लोग मान लेते हैं, कई बार नहीं भी मानते.
विपक्ष की भी वही समस्या है. जब लोक सभा चुनाव में वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने चेहरा तलाशते हैं तो कोई नजर नहीं आता. सब एक दूसरे का चेहरा देखते हैं - और जवाब टाल जाते हैं.
जवाब के नाम पर बस इतना कह दिया जाता है कि चुनाव जीतने के बाद मिल बैठ कर तय कर लिया जाएगा, लेकिन लोगों को ये भरोसा ही नहीं होता कि चुनाव जीतने के बाद ये लोग लड़ने लगे तब क्या होगा? झगड़ा कौन सुलझाएगा?
इमरजेंसी के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ जब आंदोलन चला तो भी कई चेहरे थे - लेकिन लोगों के भरोसे के लिए सबसे बड़ा चेहरा जेपी का था - जयप्रकाश नारायण का. लोगों ने मान लिया था कि जो भी होगा अच्छा ही होगा, क्योंकि जेपी पर लोगों को भरोसा था. केसीआर जेपी तो हैं नहीं.
कुर्सी के सवाल पर नीतीश कुमार का उठ खड़े होना: केसीआर और नीतीश कुमार की ज्वाइंट प्रेस कांफ्रेंस में कोई नया सवाल नहीं पूछा गया था - सीधा सा सवाल था. वही सवाल जो बार बार पूछ लिया जाता है. वही सवाल जिसका जवाब कभी नहीं मिलता.
केसीआर से नीतीश कुमार को विपक्षी मोर्चे का नेता बनाये जाने को लेकर सवाल पूछा जाता है. पूछा भी जाना ही था. नीतीश कुमार तो आगे तक की सोच लेते हैं, लेकिन केसीआर मौके पर ही उलझ जाते हैं. कहने लगते हैं उनके नाम बताने का कोई मतलब ही नहीं जब बाकी लोग मानने को राजी न हों.
केसीआर ने भले ही सफाई में ये सब कहा हो, लेकिन एक तरीके से जवाब तो दे ही दिया है - और नीतीश कुमार तो जवाब में अपना हिस्सा ढूंढ ही लिये होंगे. अगर ऐसा नहीं होता तो भला क्यों वो उठ कर खड़े हो जाते और केसीआर हाथ पकड़ कर बैठने के लिए सर-सर करते हुए जूझते रहते. और नीतीश कुमार हंसते रहते.
नीतीश कुमार एनडीए छोड़ने के बाद ही फिर से महत्वपूर्ण हो गये हैं, वरना उनको तो राष्ट्रपति पद के लिए विपक्ष का उम्मीदवारी ऑफर की जा रही थी, जिसे शरद पवार से लेकर फारूक अब्दुल्ला तक ने ठुकरा दिया था.
प्रशांत किशोर ने राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के ऑफर के साथ ही नीतीश कुमार से मुलाकात की थी. ये तभी की बात है जब केसीआर पटना की ही तरह मुंबई पहुंचे हुए थे. तब उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. जैसे अभी वो लालू यादव से मिलने गये थे, तब शरद पवार से भी वैसे ही घर जाकर मिले थे.
निश्चित तौर पर नीतीश कुमार के मन में वो बात तो खटक रही ही होगी. और हो सकता है प्रेस कांफ्रेंस में केसीआर के हाथ पकड़ने के बावजूद वो बैठने को तैयार नहीं हो रहे थे. लेकिन बैठना तो पड़ता ही है. तब भी जब चुनावी रैली में मोदी के साथ मंच पर सारे नेता जय श्रीराम नारे लगा रहे होते हैं.
PM मैटीरियल तो सभी हैं, नेता कौन है? आज की तारीख में विपक्षी खेमे में एक भी ऐसा नेता नहीं है जो लोगों को अपनी तरफ से ये यकीन दिला सके कि वो भरोसे के काबिल है - और सत्ता मिल जाने पर वो सब कुछ संभाल लेगा.
विपक्ष का कोई भी नेता हो चाहे ममता बनर्जी हों, चाहे केसीआर हों या फिर और कोई भी. नीतीश कुमार ही क्यों न हों. कोई इस स्थिति में नहीं है जो डंके की चोट पर कुछ कह सके. जैसे 2014 में मोदी कह रहे थे - भाइयों और बहनों मुझे वोट दो. मतलब, बीजेपी को भी छोड़ो मोदी के नाम पर वोट दो.
और लोगों ने ब्रांड मोदी पर तभी भरोसा कर लिया था. हाल के यूपी चुनाव में भी देखिये. यूपी में बीजेपी के पास योगी जैसे मजबूत चेहरा रहा, फिर भी अमित शाह को भरोसा नहीं हो रहा था. वो लोगों से मोदी के नाम पर वोट मांग रहे थे. समझा रहे थे, योगी आदित्यनाथ को वोट दो ताकि 2024 में नरेंद्र मोदी फिर से प्रधानमंत्री बन सकें.
सिर्फ यही एक वजह है जिसमें कांग्रेस विपक्षी खेमे में बाजी मार ले जाती है. जैसा भी हो कांग्रेस के पास एक चेहरा तो है. और वैसे ही अब अरविंद केजरीवाल भी खुद को मोदी के चैलेंजर के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहे हैं - मनीष सिसोदिया के घर पर सीबीआई का छापा पड़ा था तो भी आम आदमी पार्टी के सारे नेता केजरीवाल का ही चेहरा चमकाने में जुटे हुए थे.
क्या केसीआर भी पीएम मैटीरियल हैं: केसीआर ने टीडीपी से राजनीति शुरू की थी. छोटे तो नहीं, लेकिन कोई बड़े नेता भी नहीं थे. फिर तेलंगाना के लिए आंदोलन शुरू किया, पार्टी भी बनायी - और मौका आया तो तेलंगाना के मुख्यमंत्री भी बन गये. चुनाव हुए तो सत्ता में वापसी भी कर ली. अब नजर दिल्ली पर जा टिकी है क्योंकि हैदराबाद में एक तरीके से सब कुछ बेटे के हवाले कर चुके हैं.
प्रेस कांफ्रेंस में अक्सर सवालों के जवाब में वो दोहराते रहे हैं, 'जब मैं पैदा हुआ होगा तब क्या मेरे पिता ने सोचा होगा कि एक दिन मैं मुख्यमंत्री बनूंगा? राजनीति में कुछ भी संभव है!'
मतलब, देश का प्रधानमंत्री बनना भी. केसीआर देश भर का दौरा इसी इरादे के साथ कर रहे हैं - लेकिन अब तक ये नहीं समझा पा रहे हैं कि अगर वो विपक्ष के नेता नहीं है तो कौन है?
खुदा खैर करे!
केसीआर ने जब मुंबई का दौरा किया था, उस वक्त उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे थे. उद्धव ठाकरे के साथ भी केसीआर ने संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस की थी, जैसे अभी नीतीश कुमार के साथ थे. केसीआर ने तभी कहा था कि जल्दी ही विपक्ष का एजेंडा आ जाएगा. पटना में भी वही बात कही है. विपक्ष का एजेंडा अब तक नहीं आया है. आये भी तो कैसे पहले ये तो तय हो कि केसीआर वाला विपक्ष कौन सा है?
जब से केसीआर 2024 के मिशन को लेकर एक्टिव हुए हैं, बिहार दौरा उनका छठा पड़ाव है. उद्धव ठाकरे और शरद पवार के अलावा वो रांची जाकर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और JMM नेता शिबू सोरेन से भी मिल चुके हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से भी मिले हैं और ठीक वैसे ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन से भी. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल से भी मिल चुके हैं और पंजाब जाकर भगवंत मान से भी - और समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव से भी मिल आये हैं.
भारतीय राजनीति में 'संयोग और प्रयोग' का प्रतिपादन प्रधानमंत्री मोदी ने दिल्ली विधानसभा चुनावों में किया था - और तब से ये जहां तहां अक्सर दिखाई पड़ता रहा है. किसी न किसी रूप में.
ऐसा ही संयोग केसीआर के पटना दौरे में दिखा है - हालांकि, वो खास प्रयोग के लिए नीतीश कुमार से मिलने पहुंचे थे. ठीक वैसे ही केसीआर उद्धव ठाकरे से मिलने गये थे. उद्धव ठाकरे की तरह ही नीतीश कुमार ने भी बीजेपी से ताजा ताजा पंगा लिया है - केसीआर पहले उद्धव से मिले थे, अब नीतीश से मिले हैं - खुदा खैर करे!
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