'भारत जोड़ो यात्रा' असल में कांग्रेस के सारे असफल प्रयासों की नयी पैकेजिंग है!
भारत जोड़ो यात्रा (Bharat Jodo Yatra) बेशक बेहतरीन प्रयास है, खासकर ऐसे माहौल में जब कांग्रेस (Congress) अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए जीतोड़ संघर्ष कर रही है - लेकिन जिस तरीके से राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को रीलांच करने के लिए पुरानी चीजों की पैकेजिंग की गयी है, सफलता थोड़ी संदिग्ध लगती है.
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भारत जोड़ो यात्रा (Bharat Jodo Yatra) शुरू होने से पहले ही गुलाम नबी आजाद नेक सलाह आ धमकी है, बेहतर होता पहले कांग्रेस जोड़ो यात्रा शुरू की जाती. देखा जाये तो ये G-23 और गुलाम नबी आजाद की अभी अभी आयी चिट्ठी में मूल संदेश भी यही है.
गुलाम नबी आजाद कांग्रेस छोड़ चुके हैं, लेकिन कांग्रेस पर उनका साया लगातार मंडरा रहा है - और वो खुद भी ऐसे मौके हाथ से जाने नहीं देते. तभी तो 28 अगस्त की कांग्रेस की महत्वपूर्ण मीटिंग की पूर्व संध्या पर आजाद ने पुराने साथियों को बुला लिया. आजाद से मिलने में वालों में कांग्रेस नेता आनंद शर्मा भी शामिल रहे जो कांग्रेस कार्यकारिणी के भी सदस्य हैं.
भारत जोड़ो यात्रा में भले ही गुलाम नबी आजाद की खास भूमिका नहीं रही हो, लेकिन अचानक उनके कांग्रेस (Congress) छोड़ देने से चीजें लड़खड़ा तो गयी ही हैं. कांग्रेस नेताओं के सामने डैमेज कंट्रोल की नयी चुनौती आ गयी है - और अशोक गहलोत वाले अंदाज में आजाद को निकम्मा, नकारा और पीठ में छुरा भोंकने वाला साबित करने का अभियान भी चालू है.
आजाद की सलाह से दो कदम आगे बढ़कर, भारत जोड़ो यात्रा के जरिये कांग्रेस वो हर मकसद हासिल करने की कोशिश कर रही है जो चुनौतियों पर काबू पाने में मददगार साबित हों. हाल फिलहाल देखा गया है कि कांग्रेस की तरफ से विपक्षी खेमे को इकट्ठा करने की भी काफी कोशिशें हुई हैं. राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव के दौरान भी ये सब हुआ लेकिन हालात प्रतिकूल होने की वजह से सारे प्रयास बेकार गये - भारत जोड़ो यात्रा के जरिये कांग्रेस नये सिरे से विपक्षी दलों के नेताओं का साथ लाने की कोशिश कर रही है.
भारत जोड़ो यात्रा के हीरो तो राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ही है, बशर्ते पूरी यात्रा के दौरान वो सबके साथ बने भी रहें. कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती लोगों का पार्टी से भरोसा उठ जाना भी और इसे फिर से हासिल करने के लिए ही वो लोगों तक पहुंचने के लिए सिविल सोसाइटी को माध्यम बनाने जा रही है.
यात्रा से जुड़ी जो जानकारियां साझा की गयी हैं, ध्यान से देखें तो कहीं कोई नयी बात, नया आइडिया नजर नहीं आता - और यही वजह है कि ये सारी कवायद पुरानी चीजों की नयी पैकेजिंग ही लग रही है!
राहुल गांधी की एक और पदयात्रा होगी
करीब दो दशक के अपने राजनीतिक कॅरियर में राहुल गांधी कई पदयात्राएं कर चुके हैं. छोटी-छोटी भी और बड़ी भी. 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों से पहले भी वो किसान यात्रा पर निकले थे. उसके पहले भी किसानों की समस्याओं को करीब से समझने के लिए वो यात्राएं कर चुके हैं - खास बात ये रही कि वो यूपीए की सरकार में भी वैसे ही यात्राएं करते रहे, जैसे मौजूदा मोदी सरकार के जमाने में और लोगों पर असर नहीं छोड़ पाने की एक वजह ये भी लगती है.
कैसी होगी 'भारत जोड़ो यात्रा': भारत जोड़ो यात्रा की टैगलाइन है - मिले कदम, जुड़े वतन. 150 दिनों में साढ़े तीन हजार किलोमीटर का सफर पूरा करने वाली ये यात्रा 7 सितंबर को शाम 5 बजे कन्याकुमारी से शुरू होगी और कश्मीर पहुंच कर खत्म होगी - ये यात्रा 12 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों से होकर गुजरने वाली है.
भारत जोड़ो यात्रा, दरअसल, राहुल गांधी के लिए मोबाइल रीलांच इवेंट है!
भारत जोड़ो यात्रा के दौरान रोजाना 20 किलोमीटर की दूरी कवर करने का प्लान है, जिसके लिए शामिल वालंटियर तीन घंटे सुबह और तीन घंटे शाम पदयात्रा करेंगे. पूरी पदयात्रा के लिए तीन कैटेगरी बनायी गयी है - भारत यात्री, प्रदेश यात्री और गेस्ट यात्री और इस तरह मुख्य रूप से 300 पदयात्रियों के यात्रा में शामिल होने की अपेक्षा है.
राहुल गांधी खुद भारत यात्री बने हैं यानी वो भी उन 100 लोगों में शामिल हैं जो शुरू से आखिर तक पदयात्रा करेंगे. 100 प्रदेश यात्री भी शामिल होने वाले हैं जो कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता लगते हैं. साथ ही, 100 गेस्ट यात्री भी शामिल होने वाले हैं - और ऐसा लगता है ये दूसरे दलों के नेता और सिविल सोसाइटी के लोग होंगे.
राहुल गांधी की यात्रा के बारे में कांग्रेस ने एक डिस्क्लेमर भी पेश किया है. देखें तो ये पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की पदयात्रा से पहले वाले बयान से मिलता जुलता ही लगता है. भारत जोड़ो यात्रा के संयोजक बनाये गये दिग्विजय सिंह कहते हैं, यात्रा का लक्ष्य राजनीतिक है, लेकिन ये दलगत राजनीति से परे होगी.
1983 में अपनी पदयात्रा शुरू करने से पहले चंद्रशेखर ने भी बाकायदा एक बयान जारी किया था - और यही समझाने की कोशिश की थी कि निश्चित तौर पर राजनीतिक हो कर भी कैसे वो यात्रा को अलग रखने की कोशिश कर रहे हैं - 'मैं चाहता कि मेरी पदयात्रा किसी पार्टी तक सीमित ना रहे.'
हो सकता है, ऐसा ही कुछ सोच कर कांग्रेस ने भारत जोड़ो यात्रा में हाथ के पंजे के निशान वाला पार्टी का झंडा नहीं बल्कि तिरंगा लेकर चलने का कार्यक्रम बनाया है. देखें तो बीते लोकतंत्र बचाओ, भारत बचाओ जैसे अभियानों की तरह ही गांधी परिवार और कांग्रेस बचाओ मुहिम जैसा ही है.
विपक्ष को एकजुट करने की नयी कोशिश
भारत जोड़ो यात्रा के लिए कांग्रेस ने अलग अलग राज्यों के लिए मीडिया और प्रचार प्रभारी के साथ समन्वयकों की सूची भी घोषित कर दी है, लेकिन गुलाम नबी आजाद की के नाम के बगैर हर चर्चा अधूरी लगती है. पवन खेड़ा की बातों से तो ऐसा ही लगता है, 'आजाद या बिना आजाद के, कांग्रेस का संगठनात्मक तंत्र दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ता है...'
विपक्ष को एकजुट करने के प्रयास कई तरफ से चल रहे हैं, लेकिन हर बार नतीजा ढाक के तीन पात जैसा रह जाता है. आगे बढ़ता ही नहीं. ऐसे प्रयासों में पश्चिम बंगाल चुनाव में बीजेपी की हार के बाद काफी तेजी देखी गयी, लेकिन मामला प्रधानमंत्री की कुर्सी पर ही आकर अटक जाता है. कांग्रेस कहीं न कहीं से पेंच फंसा ही देती है.
भारत जोड़ो यात्रा की टैगलाइन जो भी बतायी जा रही हो, लेकिन तस्वीर पूरी तरह साफ लग रही है. ये यात्रा भी 2024 के आम चुनाव को लेकर विपक्षी दलों को एकजुट करने की अलग तरीके की कोशिश ही है. ये समझाने के लिए कांग्रेस की तरफ से बार बार यही समझाया जा रहा कि यात्रा दलगत राजनीति से ऊपर है.
कांग्रेस की तरफ से विपक्षी खेमे के ज्यादातर नेताओं से संपर्क किया गया है. कांग्रेस ये तो चाहती है कि राज्यों के विपक्षी दल यात्रा में शामिल हों, लेकिन उसमें भी गांधी परिवार के परहेज सामने आ रहे हैं. ऐसा करने की एक वजह राज्य विशेष में कांग्रेस को अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश भी है. आपको याद सोनिया गांधी से मीटिंग के दौरान प्रशांत किशोर ने भी ऐसे ही सुझाव दिये थे. वो तो बिहार में भी कांग्रेस को किसी से गठबंधन न करने की सलाह दिये थे, जबकि बदले हालात में वो सत्ता में मामूली ही सही, साझीदार तो बन ही चुकी है.
क्षेत्रीय दलों को जोड़ने की नयी कवायद: कांग्रेस के रणनीतिकारों ने अलग अलग राज्यों में सियासी समीकरणों के हिसाब से एक्शन प्लान तैयार किया है. चूंकि यात्रा तमिलनाडु से शुरू हो रही है, डीएमके से पहले ही सहमति ले ली गयी है. वैसे भी डीएमके के साथ तो कांग्रेस का चुनावी गठबंधन भी है.
बाकी जिन राजनीतिक दलों से संपर्क साधने की कोशिश की गयी है, उनमें एनसीपी से लेकर यात्रा की मंजिल कश्मीर की नेशनल कांफ्रेंस पार्टी भी है. कांग्रेस नेताओं ने उद्धव ठाकरे से भी संपर्क किया है. ऐसे में जबकि उद्धव ठाकरे हिंदुत्व के मुद्दे पर अपने ही शिवसैनिकों के निशाने पर बने हुए हैं, कांग्रेस के साथ खुल कर सामने आएंगे या नहीं देखना होगा.
केरल और कर्नाटक में अपना सिक्का चलाएंगे: केरल और कर्नाटक के लिए कांग्रेस का यात्रा प्लान थोड़ा अलग नजर आ रहा है - और उसकी वजह भी क्षेत्रीय राजनीतिक समीकरण ही हैं.
लोक सभा में कांग्रेस भले ही काफी सिमट कर रह गयी हो, लेकिन सबसे ज्यादा उसके सांसद केरल से ही पहुंचे हैं - और उन्हीं में से एक राहुल गांधी भी हैं. ऐसे में केरल से ज्यादा उम्मीद तो बनती ही है. 2021 में राहुल गांधी ने विधानसभा चुनावों में भी काफी मेहनत की थी - और कांग्रेस नेताओं ने उनके स्वीमिंग स्किल से लेकर सिक्स पैक ऐब्स तक सब कुछ दिखाने की कोशिश भी खूब की थी.
राज्यों के कांग्रेस नेताओं के फीडबैक को देखते हुए कांग्रेस ने लेफ्ट दलों से दूरी बनाने का फैसला किया है. पश्चिम बंगाल चुनाव में लेफ्ट को लेकर ही कांग्रेस निशाने पर रही. जब राहुल गांधी 2019 में वायनाड से चुनाव लड़ने पहुंचे तो लेफ्ट के खिलाफ बोलने से परहेज करते रहे.
वैसे ही कर्नाटक में कांग्रेस ने जेडीएस से दूरी बना कर चलने का संकेत दिया है. पिछले चुनाव में कांग्रेस और जेडीएस साथ थे और उनके गठबंधन की सरकार भी बनी थी, लेकिन ऑपरेशन लोटस का शिकार होने के बाद धीरे धीरे दोनों दलों में आपसी तकरार बढ़ती गयी - और अब कांग्रेस काफी सोच समझ कर इसलिए भी आगे बढ़ रही है क्योंकि अगले ही साल कर्नाटक में विधानसभा के चुनाव भी होने वाले हैं.
सिविल सोसाइटी के माध्यम से लोगों तक पहुंचने की कोसिश
कांग्रेस ने सिविल सोसाइटी के करीब 150 लोगों से संपर्क कर समर्थन मांगा था और ये भी उसकी उपलब्धि है कि रिस्पॉन्स बहुत अच्छा मिला है. योगेंद्र यादव ने तो कांग्रेस की यात्रा को भी अरविंद केजरीवाल के रामलीला आंदोलन की तरह हाथोंहाथ लिया है - और मेधा पाटकर, तुषार गांधी, अली अनवर और डॉक्टर सुनीलम जैसे लोगों ने भी सपोर्ट वाले पत्र पर हस्ताक्षर कर दिया है.
किसान आंदोलन के दौरान काफी सक्रिय होने के साथ साथ ट्रैक्टर रैली के दौरान दिल्ली हिंसा जैसे वाकयों को लेकर निशाने पर रहे योगेंद्र यादव कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा से भी उत्साहित नजर आ रहे हैं. द प्रिंट वेबसाइट पर योगेंद्र यादव ने लिखा भी है, "देश को एक पुल की जरूरत है... एक ऐसे राजनीतिक पुल की जो विपक्षी राजनीतिक दलों को जमीनी आंदोलनों से जोड़े... भारत के लोकतंत्र को फिर से जगाने-जिलाने और अपने गणराज्य को दोबारा हासिल करने की संभावना इसी राजनीतिक नवाचार पर निर्भर है - यहीं से निकलेगा देश का सच्चा प्रतिपक्ष."
पिछली कड़ियों को जोड़ कर समझने की कोशिश करें तो कांग्रेस ने विपक्ष में होते हुए सिविल सोसाइटी के लोगों का ये पैनल करीब करीब वैसे ही बनाया है, जैसे यूपीए सरकार के दौरान राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनायी गयी थी.
कांग्रेस को बीजेपी के विकल्प के तौर पर पेश करने कोशिश है
कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा में बीजेपी के संपर्क फॉर समर्थन अभियान की झलक भी देखी जा सकती है. 2019 के आम चुनाव से पहले सीनियर बीजेपी नेता अमित शाह ने ये मुहिम चलायी थी. मुहिम के तहत वो देश भर में घूम घूम कर ऐसे लोगों से मुलाकात कर रहे थे जिनका समाज पर किसी न किसी तरीके से प्रभाव देखा जाता हो. ऐसे लोगों से मिल कर बीजेपी नेता गुजारिश कर रहे थे कि वे लोगों को बीजेपी को वोट देने के फायदे समझायें और सुनिश्चित करें कि लोग बीजेपी को वोट दें. तब तो अमित शाह एनडीए के सहयोगी दलों के नेताओं के घर तक पहुंच गये थे - मुंबई में मातोश्री से लेकर पटना में नीतीश कुमार तक. अब ये कहानी इतिहास बन चुकी है.
और कुछ हासिल हो न हो, भारत जोड़ो यात्रा से लोगों के दिमाग में कुछ चीजें रजिस्टर तो होंगी ही. इस यात्रा के भी पब्लिसिटी पक्ष को देखें तो 2014 में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के कैंपेन में हर जगह कोशिश यही रहती थी कि उनके पहुंचने से पहले और रैली करके चले जाने के बाद भी उनका नाम, छवि और उनकी बातें लोगों के दिमाग में रजिस्टर जरूर हों - वैसे भी मोदी के कैंपेन के सूत्रधार प्रशांत किशोर के आइडिया पर ही तो कांग्रेस ने ये पूरा तामझाम तैयार किया है.
मुद्दे की बात ये है... और शक इस बात पर भी पहले से ही जताया जाने लगा है कि आखिर राहुल गांधी यात्रा में कितने दिन शामिल होंगे? और ये सवाल उठने की वजह कोई और नहीं, बल्कि उनका खुद का ट्रैक रिकॉर्ड ही है.
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