सोनिया गांधी तो गुलाम नबी की डिमांड पूरी कर ही रही थीं, फिर वो 'आजाद' क्यों हुए
गुलाम नबी आजाद (Ghulam Nabi Azad) ने ऐसे वक्त इस्तीफा दिया है जब कांग्रेस को जल्द ही नया अध्यक्ष (Congress President) मिलने की संभावना जतायी जा रही है. देखा जाये तो सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) वैसे ही इंतजाम की कोशिश में हैं जो वो चाहते थे - फिर ऐसा क्यों किया?
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गुलाम नबी आजाद (Ghulam Nabi Azad) के नये खत का मजमून भी G-23 की चिट्ठी जैसा ही लगता है - तब भी गुलाम नबी आजाद और कांग्रेस के बागी साथियों के निशाने पर राहुल गांधी ही थे, अब भी वो अपनी जगह कायम हैं. फर्क बस ये है कि गुलाम नबी आजाद के नये खत में राहुल गांधी बाकायदा नामजद हैं.
सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) को संबोधित पिछली चिट्ठी में गुलाम नबी आजाद ने एक ऐसी लाइन लिखी थी, जो राहुल गांधी का कैरेक्टर स्केच लग रही थी, "ऐसा अध्यक्ष (Congress President) जो काम करता हुआ नजर भी आये!"
ये तो पूरी तरह साफ था कि ऐसी टिप्पणी राहुल गांधी की कार्यशैली और राजनीति के प्रति उनके गंभीर न होने के रवैये को लेकर ही की गयी थी. राहुल गांधी कभी भी छुट्टी पर चले जाने के लिए अपने राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर आते रहे हैं क्योंकि वो कितना भी बड़ा इवेंट क्यों न हो, बीच में ही छोड़ कर गायब हो जाते हैं. हालांकि, वो खुद ये बात साफ कर चुके हैं कि न तो सत्ता में उनकी दिलचस्पी है, न ही राजनीति में.
और इस प्रसंग में जिक्र करने वाली बात ये भी है कि राहुल गांधी अब भी कांग्रेस अध्यक्ष फिर से बनने को तैयार नहीं हैं. नतीजे के काफी करीब पहुंच चुकी कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया अचानक कुछ दिनों के लिए टाल दिये जाने के पीछे भी ऐसी ही उम्मीद मानी जा रही है कि राहुल गांधी शायद कमान संभालने के लिए राजी हो जायें.
गुलाम नबी आजाद की G-23 वाली चिट्ठी से ऐसा तो बिलकुल नहीं लगा था कि वे लोग राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाये जाने के खिलाफ हैं - तब के बागी कांग्रेस नेता तो बस कांग्रेस के लिए एक स्थायी अध्यक्ष चाहते थे जहां जरूरी मसलों की सुनवाई हो सके और जो जरूरत के हिसाब से वक्त रहते फैसले ले सके.
कपिल सिब्बल और उनके पहले कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं की निराशा तो समझ में आती है. जब उनको लगा कि कांग्रेस में न तो उनकी कोई कद्र है, न ही बेइज्जत होकर भी वो कांग्रेस के भले के लिए कुछ सोचें तो उसको अहमियत मिलने वाली है - जब उम्मीद की कोई किरण कहीं नजर नहीं आयी तो वे छोड़ कर चले गये.
लेकिन गुलाम नबी आजाद तो सामने देख रहे थे कि कांग्रेस के लिए स्थायी अध्यक्ष के लिए चुनाव प्रक्रिया समय पर खत्म करने का प्रयास चल रहा है. अब तो ये भी लगता है कि कांग्रेस को गुलाम नबी आजाद के कदम की किसी तरह भनक लग गयी थी और इसीलिए कांग्रेस अध्यक्ष की चुनाव प्रक्रिया शुभ मुहूर्त के नाम पर कुछ दिन के लिए होल्ड कर ली गयी है.
सवाल ये है कि क्या गुलाम नबी आजाद कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के नाम पर चल रही कवायद से इत्तेफाक नहीं रख पा रहे थे? ये सवाल इसलिए भी क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव को गुलाम नबी आजाद ने कठपुतली की तलाश करार दिया है? कहीं गुलाम नबी आजाद के मन में खुद कांग्रेस अध्यक्ष बनने की कोई ख्वाहिश तो नहीं थी?
आजाद के निशाने पर राहुल हैं या सोनिया गांधी?
अलविदा की अपनी चिट्ठी में गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की खूब तारीफ की है - और सारी बर्बादियों का सबब सिर्फ राहुल गांधी को बताया है.
ये समझ शब्दों से बनती है, लेकिन भाव कुछ और ही इशारे करते हैं. ऐसा लगता है जैसे गुलाम नबी आजाद ने राहुल गांधी की गलतियों का ठीकरा सीधे सोनिया गांधी के सिर फोड़ दिया है. ऐसा इसलिए नहीं क्योंकि वो राहुल गांधी की मां हैं.
गुलाम नबी आजाद तो राहुल गांधी से ज्यादा खफा सोनिया गांधी से लगते हैं!
गुलाम नबी आजाद लिखते हैं, 'दुर्भाग्य से, राहुल गांधी की राजनीति में एंट्री के साथ ही आपने सलाहियत की जो प्रक्रिया स्थापित की थी, ध्वस्त हो गयी... खासकर तब जब जनवरी, 2013 में आपने उनको उपाध्यक्ष बनाया... फिर तो उन्होंने बंटाधार ही कर दिया... सारे सीनियर और अनुभवी नेता हाशिये पर धकेल दिये गये और नौसिखिये चाटुकारों की टोली पार्टी को चलाने लगी.'
गुलाम नबी आजाद की नजर में, राहुल गांधी का मीडिया के सामने एक सरकारी ऑर्डिनेंस को फाड़ कर फेंक देना भी एक ऐसा ही उदाहरण था. आजाद ने लिखा है, वो ऑर्डिनेंस कांग्रेस के कोर ग्रुप और फिर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कैबिनेट की बैठक में मंजूर किया गया था - और फिर राष्ट्रपति का भी अप्रूवल हासिल था... राहुल गांधी के इस बचकाने व्यवहार ने प्रधानमंत्री की अथॉरिटी और भारत सरकार की अहमियत का माखौल उड़ा कर रख दिया.
मतलब तो पूरी तरह साफ है. अगर सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को उपाध्यक्ष नहीं बनाया होता तो सब बढ़िया बढ़िया ही होता. शायद कांग्रेस को सत्ता से बाहर भी नहीं होना पड़ता - क्योंकि ये तोहमत भी गुलाम नबी आजाद ने राहुल गांधी पर ही थोप डाली है.
आजाद के मुताबिक, 'राहुल गांधी की ये हरकत भी 2014 में यूपीए सरकार की हार की वजह बनी - क्योंकि राइट विंग और कुछ अन्य तत्वों के दुष्प्रचार के चलते कांग्रेस बचाव की मुद्रा में आना पड़ा था.'
रिमोट कंट्रोल कल्चर की संस्थापक भी तो सोनिया गांधी ही हैं: गुलाम नबी आजाद ने अपने पत्र में कांग्रेस में आये रिमोट कंट्रोल मॉडल का भी खासतौर पर जिक्र किया है - और पार्टी में उसे अमल में लाने का श्रेय भी राहुल गांधी को ही देते हैं.
फिर तो ये सवाल भी उठेगा ही कि जिस रिमोट कंट्रोल मॉडल का जिक्र गुलाम नबी आजाद कर रहे हैं उसकी खोज किसने की थी?
देखा जाये गुलाम नबी आजाद भी उन्हीं बातों की तरफ इशारा कर रहे हैं जिनका संजय बारू ने अपनी किताब में जिक्र किया था. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने एक किताब लिखी है - द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर. किताब के मार्केट में आने के बाद इस बात पर खूब बहस हुई थी कि कैसे सोनिया गांधी यूपीए की सरकार को रिमोट कंट्रोल से चलाया करती थीं.
अब अगर गुलाम नबी आजाद कांग्रेस में रिमोट कंट्रोल मॉडल का जिक्र कर रहे हैं तो एक तरीके से वो संजय बारू के ऑब्जर्वेशन की पुष्टि कर रहे हैं. जाहिर है, संजय बारू के मुकाबले गुलाम नबी आजाद को तो अंदर की बातें ज्यादा ही मालूम रहती होंगी.
गुलाम नबी आजाद का कहना है, जिस रिमोट कंट्रोल मॉडल ने यूपीए सरकार के संस्थागत स्वरूप को बर्बाद करके रख दिया, कांग्रेस भी उसी की शिकार हो रही है.'
राहुल गांधी के बहाने ही सही, सोनिया गांधी के सामने गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस के प्रदर्शन पर भी कटाक्ष किया है, '2014 के बाद आपके और बाद में राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस अपमानजनक तरीके से दो लोक सभा चुनाव हार चुकी है... 2014-2022 के बीच 49 विधानसभा चुनावों में से 39 में कांग्रेस की हार हुई है... पार्टी सिर्फ चार राज्यों के चुनाव में जीत पायी है और छह राज्यों में सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा रही है... दुर्भाग्य से आज सिर्फ दो राज्यों में कांग्रेस की सरकार है - और दो राज्यों में ही वो बहुत जूनियर पार्टनर बनी हुई है.'
ध्यान से देखें तो गुलाम नबी आजाद ने राहुल गांधी का नाम ले लेकर सोनिया गांधी को ही कांग्रेस की बर्बादियों का पूरी तरह जिम्मेदार बताने की कोशिश की है - कहीं पार्टी छोड़ कर पूरी तरह कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की गुलाम नबी आजाद की मुहिम नहीं है.
कठपुतली से परहेज या राहुल गांधी से?
गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस में रिमोट कंट्रोल कल्चर लाने का क्रेडिट तो राहुल गांधी को दिया ही है, नये कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव को 'कठपुतली की तलाश' करार दिया है. ऐसे में सवाल ये उठता है कि गुलाम नबी आजाद को राहुल गांधी से दिक्कत थी या उनके राजी न होने पर अध्यक्ष के तौर पर चुने जाने वाले किसी और नेता से?
इस्तीफे वाली चिट्ठी में गुलाम नबी आजाद ने लिखा है, 'आप तो निमित्त मात्र हैं जबकि सारे महत्वपूर्ण निर्णय राहुल गांधी, उनके सिक्योरिटी गार्ड या पीए लेते आ रहे हैं.'
तो क्या ये समझा जाये कि गुलाम नबी आजाद को ये लग रहा था कि जो भी नया अध्यक्ष बनेगा वो भी 'राहुल गांधी के राज में' सोनिया गांधी की तरह ही निमित्त मात्र बन कर रह जाएगा?
यानी ये समझ लें कि नया अध्यक्ष भले ही स्थायी तौर पर चुना हुआ माना जाये, लेकिन उसका काम राहुल गांधी, उनके पीए या सिक्योरिटी गार्ड के फैसलों पर दस्तखत करना भर रह जाएगा.
पंजाब के मामले में भी ऐसी ही चीजें महसूस की गयी थीं, हालांकि, तब कपिल सिब्बल के सवाल उठाने पर सोनिया गांधी ने सारी तोहमत अपने माथे पर ले ली थी. पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले नवजोत सिद्धू को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपे जाने का फैसला तब भाई-बहन की जोड़ी यानी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा का माना गया था - और ऐसी चर्चा रही कि बच्चों जिद के चलते सोनिया गांधी ने आदेशों पर दस्तखत कर दी थी. आखिर तब कैप्टन अमरिंदर सिंह से फोन पर 'सॉरी अमरिंदर' बोलने की सोनिया गांधी को जरूरत क्यों पड़ी थी?
कहीं ऐसा तो नहीं कि गुलाम नबी आजाद को अशोक गहलोत के नाम से ही दिक्कत हुई हो? वैसे भी G-23 वाली चिट्ठी के बाद बागी नेताओं के खिलाफ लामबंद नेताओं में अशोक गहलोत भी शामिल थे.
ये तो गुलाम नबी आजाद ने भी काफी करीब से देखा ही होगा कि कैसे अशोक गहलोत गांधी परिवार का करीबी होने का फायदा उठाते रहे हैं. सचिन पायलट को चुनाव जिताने के बाद भी मुख्यमंत्री नहीं बनने देने से लेकर उनको प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और डिप्टी सीएम की पोस्ट से हटाने वाले अशोक गहलोत ही हैं.
आजाद ने ये सब भी काफी करीब से महसूस किया होगा कि कैसे अशोक गहलोत, सचिन पायलट को निकम्मा, नकारा और पीठ में छुरा भोंगने वाला बताते रहे है - और सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा आंख मूंद कर यकीन किये बैठे रहे.
जाहिर है, जब सचिन पायलट जैसे नेता का कांग्रेस में बुरा हाल हो सकता है, तो बाकियों के साथ भी वैसा ही सलूक होगा. कभी सिद्धू मन को भा गये तो कैप्टन को ही ठिकाने लगा दिया - और कभी किसी और के लिए किसी और को.
ऐसा तो नहीं कि गुलाम नबी आजाद अपने मिजाज वाले किसी नेता को कांग्रेस अध्यक्ष बनते देखना चाहते थे? और ऐसा कोई नेता नहीं मिला जो रेस में सबसे आगे चल रहे अशोक गहलोत को पीछे छोड़ सके? और कहीं ऐसा तो नहीं कि गुलाम नबी आजाद खुद को ही कांग्रेस के काम करते हुए नजर आने वाले अध्यक्ष के रूप में देखने लगे थे?
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