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Updated: 10 जनवरी, 2022 02:41 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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चुनाव प्रचार नतीजों के लिए निर्णायक नहीं होते, लेकिन सहायक तो होते ही हैं. चुनावी रैलियों की भीड़ वोटों में तब्दील नहीं होती, लेकिन माहौल तो बना ही देती है. माहौल का असर उन पर तो होता ही है जो दुकान पर भीड़ देख कर सामान खरीदते हैं, मरीजों की तादाद देख कर डॉक्टर की पर्ची लेते हैं - और हवा देख कर वोट किसे देना है, ऐसे फैसले भी लेते हैं.

जहां तक वर्चुअल चुनाव कैंपेन (BJP Virtual Campaign) की बात है, कम से कम इस लड़ाई में तो बीजेपी के आस पास कोई टिकता नजर नहीं आता है. जैसे नेताओं की लोकप्रियता के सर्वे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आस पास फिलहाल कोई नजर नहीं आता. लिहाजा ये भी मान सकते हैं कि जैसे मोदी हर चुनाव में बीजेपी की जीत की गारंटी नहीं होते - बीजेपी के वर्चुअल चुनाव कैंपेन के साथ भी वैसी ही जोखिम बनी रहेगी.

अगर कोशिशें कामयाब बनाती हैं तो बीजेपी की तैयारी बेजोड़ है. सिर्फ व्हाट्सऐप के जरिये बीजेपी का आईटी सेल एक साथ पंद्रह करोड़ लोगों तक पहुंचने की रणनीति पर काफी समय से काम कर रहा है और काफी हद तक सफल भी है - यूपी चुनाव को लेकर भी बहुत पहले से ऐसी तैयारी चल रही है.

ये सिस्टम इतना दुरूस्त है कि चुनाव अभियान के लिए बीजेपी की डिजिटल आर्मी जिस रणनीति पर काम कर रही है, उसमें दो महत्वपूर्ण चरण होते हैं. कोई भी कंटेंट चाहे वो भाषण की वीडियो क्लिप हो, कोई खास टेक्स्ट या ग्राफिक्स मैसेज हो या कार्टून, सबसे पहले मंडल स्तर की यूनिट को भेजी जाती है. वहां से फौरन शक्ति केंद्र और फिर बूथ स्तर के आईटी सेल को - और आखिर में यूजर को फॉर्वर्ड किया जाता है. बीजेपी ने 27 हजार शक्ति केंद्र बना रखे हैं और हर शक्ति केंद्र कम से कम आधा दर्जन बूथ को कवर करता है.

जिस समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव का कहना रहा कि यूपी में उनकी पार्टी छात्रों को कंप्यूटर बांटने के कारण हार गयी, उसी पार्टी के मुख्यमंत्री फेस अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) को संसाधनों की फिक्र होने लगी है. 2014 के आम चुनाव के नतीजे आने के बाद महिला कार्यकर्ताओं के एक कार्यक्रम में मुलायम सिंह का कहना था, 'हम तो पहले ही लैपटॉप बांटने के खिलाफ थे... वही हुआ जिसका डर था... हम लोक सभा चुनाव लैपटॉप की वजह से ही हार गये.'

और इम्तिहान की वो घड़ी आ ही गयी: चुनाव आयोग के 15 जनवरी तक सिर्फ वर्चुअल रैलियों की अनुमति देने की घोषणा पर अखिलेश यादव के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आयीं. अखिलेश यादव का कहना है, 'अगर हम वर्चुअल रैली के लिए जाएंगे... जिन पार्टियों के पास... जिन पार्टियों के कार्यकर्ताओं के पास कोई इंट्रास्ट्रक्चर नहीं है - वर्चुअल रैली के लिए तमाम चीजें नहीं हैं तो वो कैसे करेंगे.'

यूपी विधानसभा चुनाव (UP Elections 2022) को लेकर अखिलेश यादव की जो फिक्र है वो तो सबसे ज्यादा मायावती को खाये जा रही हो क्योंकि बीएसपी नेतृत्व तो अब भी मुलायम सिंह की तरह ही सोचता है. वैसे अखिलेश यादव की चिंता समाजवादी पार्टी से भी ज्यादा अपने सहयोगी दलों को लेकर है - क्योंकि अखिलेश यादव ने इस बार सिर्फ छोटे दलों के साथ ही चुनावी गठबंधन किया है. हो सकता है पहले से ही ऐसी आशंका होती तो अपने फैसले पर विचार भी कर सकते थे.

ये तो पहले से ही माना जा रहा था और सर्वे के जरिये भी सामने आ रहा था कि यूपी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बीजेपी का मुकाबला अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी से ही है.

yogi adityanath, akhilesh yadavओमिक्रॉन ने तो चुनाव प्रचार को भी स्टार वॉर जैसा बना दिया है - ये जंग परंपरागत हथियारों से नहीं लड़ी जा सकती है.

हाईटेक दौर में भी वोटर तक पहुंचने के लिए बूथ लेवल तक काडर की पहुंच ही महत्वपूर्ण है. काडर के लिहाज से देखें तो समाजवादी पार्टी और मायवती की बीएसपी काफी मजबूत है. तकनीकी संसाधनों के मामले में प्रियंका गांधी वाड्रा की कांग्रेस भी समाजवादी पार्टी जितनी ही सक्षम होगी, लेकिन बीएसपी अब भी लगता है जैसे फूंक फूंक कर कदम बढ़ा रही हो - बीजेपी बेहतर इसलिए भी हो जाती है क्योंकि डिजिटल स्ट्रेंथ के साथ साथ उसके पास बूध लेवल पर कार्यकर्ताओं की बेहतरीन फौज है.

अखिलेश यादव भले ही योगी आदित्यनाथ को लेकर रैलियों में कहते फिरे हों कि 'बाबा को लैपटॉप चलाने नहीं आता' - असली चुनौती तो आगे होने वाली है कि कैसे ऐसी बातें वर्चुअल तरीके से लोगों तक पहुंचायें?

चुनाव कैंपेन में आगे है बीजेपी - लेकिन क्यों और कैसे?

कोई नहीं है टक्कर में: देखा जाये तो अखिलेश यादव भी ममता बनर्जी की तरह चुनाव आयोग पर बीजेपी के फेवर में काम करने का इल्जाम लगा रहे हैं. हालांकि, तेवर ममता बनर्जी जैसा नहीं है. अंदाज महज उलाहना वाला ही है.

अखिलेश यादव की ही तरह मायावती भी कह रही हैं कि जो नियम बने हैं उन पर अमल करेंगे. चुनाव प्रचार भी उसी तरीके से होंगे. साथ ही अखिलेश यादव जोर देकर याद भी दिलाते हैं, 'जो नियम बने हैं उसके मुताबिक प्रचार करेंगे... लेकिन ये सख्ती सरकार के लिए रखनी चाहिये. सरकार यहां पर मनमानी करेगी... इलेक्शन कमीशन ये निगरानी रखे कि सरकार में बैठे लोग नियमों का पालन करें.'

ये भी ठीक है कि चुनाव आयोग ने ओमिक्रॉन के हालात को देखते हुए ही चुनाव का शिड्यूल तय किया है. जो सख्ती या पाबंदी लगायी है, वो भी बेहद जरूरी हैं, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि सारी चीजों का फायदा बीजेपी ही उठाने जा रही है. अब तक के चुनाव कैंपेन पर मोटे तौर पर भी नजर डालें तो बीजेपी ही आगे दिखती है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और यूपी बीजेपी के नेताओं को अलग रख कर भी देखें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अकेले ही उत्तर प्रदेश में बीते करीब डेढ़ महीने के दौरान एक दर्जन बड़ी रैलियां कर चुके हैं - भला कौन टक्कर में टिकने वाला है.

अखिलेश यादव काफी जगहों से विजय रथयात्रा निकाल चुके हैं और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा जगह जगह शक्ति संवाद कर चुकी हैं. प्रतिज्ञा यात्रा और प्रतिज्ञा रैलियां भी हुई हैं - लेकिन मायावती की पार्टी बीएसपी तो ब्राह्मण सम्मेलन के बाद से जैसे बैठी ही हुई नजर आयी है. ट्विटर पर रिएक्शन और प्रेस रिलीज के जरिये जो भी गतिविधियां नजर आती हैं वे तो हाजिरी लगाने जैसी ही समझी जाएंगी.

टक्कर कौन दे सकता है: डिजिटल इंडिया को चाहे कितना ही प्रचारित क्यों न किया जाये, मोबाइल और स्मार्ट फोन गांवों में घर घर तक घुसपैठ कर चुका है - लेकिन नेट की स्पीड और बैटरी रिचार्ज करने के लिए बिजली की सुविधा शहरों जैसी तो नहीं ही है - तमाम कोशिशों और तरक्की के बावजूद एक डिजिटल डिवाइड बना हुआ है ही.

ऐसे हालात में अपने वोटर तक वही पहुंच पाएगा...

1. ...जिस राजनीतिक दल के पास वर्चुअल रैलियों के लिए जरूरी और अत्याधुनिक संसाधन होंगे.

2. ...जिस राजनीतिक दल के पास बूथ लेवल तक कार्यकर्ताओं की निष्ठावान फौज होगी.

3. ...जो राजनीतिक दल सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा एक्टिव होगा - और वो भी अभी से नहीं, बल्कि पहले से ही.

ऐसी है बीजेपी की तैयारी

चुनावी तैयारियों को लेकर बीजेपी के यूपी आईटी सेल के हेड कामेश्वर मिश्रा ने अलग अलग इंटरव्यू में कुछ खास बातें बतायी हैं - ये जानने के बाद तो अखिलेश यादव का चिंतित होना बहुत ही स्वाभाविक लगता है.

1. महीनों पहले से चल रही तैयारियों से मालूम होता है, रिपोर्ट के मुताबिक, बीजेपी ने यूपी में 1,63,000 सोशल मीडिया यूनिट बनाने का लक्ष्य रखा था - और अब तैयारी तकरीबन पूरी हो चुकी होगी.

2. बीजेपी की डिजिटल आर्मी कई फ्रंट पर एक साथ काम कर रही है. एक महत्वपूर्ण काम होता है, राजनीतिक विरोधियों के आरोपों का मजाक उड़ाते हुए मोदी और योगी सरकार के काम के प्रचार के साथ काउंटर जवाब देना.

3. बूथ लेवल पर एक आईटी सेल चीफ के साथ दो सहयोगी कोआर्डिनेटर होते हैं. वहां स्मार्टफोन से लैस कम से कम पांच लोगों की टीम मुस्तैदी के साथ मोर्चे पर डटी रहती है.

4. चुनाव अभियान के तहत डिजिटल आर्मी लोगों तक मैसेज दो पार्ट में पहुंचाती है. स्टेट हेडक्वार्टर से आईटी सेल का कोई भी मैसेज पहले मंडल इकाइयों तक पहुंचता है, जिसे तत्काल शक्ति केन्द्र और वहां से फौरन बूथ स्तर के आईटी सेल के चीफ को मिलता है - जहां से उसे लोगों तक पहुंचाने की कोशिश होती है.

5. उत्तर प्रदेश में करीब 1,63,000 बूथ हैं - और हर बूथ से रोजाना 5-10 ओरिजिनल कंटेंट सोशल मीडिया पर शेयर करने का टारगेट तय होता है.

चुनाव आयोग का फैसला मौजूदा हालात के मुताबिक बिलकुल फिट है. बीते अनुभवों से सबक लेते हुए है, अंतिम सच तो यही है कि बीजेपी फायदे में रहने वाली है - और इसी चीज को तो प्रधानमंत्री मोदी किस्मतवाले के रूप में समझाते भी हैं.

2014 से काफी पहले गूगल हैंगआउट के जरिये लोगों से सीधे वर्चुअल संवाद करने वाले नेता भी नरेंद्र मोदी ही हैं - और नींव तो ये चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की ही रखी हुई है. ये बात अलग है कि अब वो तेजी से फलने फूलने लगा है - और कोविड संकट काल में मोस्ट कॉम्पैटिबल भी बन पड़ा है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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