उपचुनावों के नतीजे बता रहे हैं कि 2019 में पीएम कौन होगा
उपचुनाव के परिणाम 'अजेय' भाजपा नेतृत्व को कई चेतावनी भरे संकेत दे रहे हैं. अगर मणिक सरकार त्रिपुरा में हार सकते हैं और भाजपा गोरखपुर सीट को खो सकती है, तो किसी भी क्षेत्र में कुछ भी हो सकता है.
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भारतीय राजनीति के कई रंग हैं और इसे देखने का अपना ही मजा है. ये हमारी राजनीति में ही संभव है कि आज आप अपनी जीत का जश्न मना रहे हैं और कल हार का मातम मनाने की नौबत आ जाए. इसका सबसे सटीक उदाहरण भाजपा है. अभी दस दिन पहले मिले त्रिपुर सुंदरी के आशिर्वाद को वो पचा भी नहीं पाए थे और आज भगवान राम के कोप का भाजन बन गए.
गोरखपुर और फूलपुर के चुनावों के नतीजे निकट भविष्य में विपक्ष के लिए कई तरह की संभावनाओं के द्वार खोल रहे हैं.
- एकजुट रहने की जरुरत
नतीजे बताते हैं कि 2019 के आम चुनाव में अगर भाजपा को हराना है तो विपक्ष को एकजुट होना ही होगा. खासकर क्षेत्रीय पार्टियों को. लेकिन जब वो गठबंधन बनाएंगे तो अपने ही विचारधारा को ठुकरा रहे होंगे. जैसे आम आदमी पार्टी, कांग्रेस से हाथ मिलाए और बहुजन समाजवादी पार्टी, समाजवादी पार्टी के साथ मिले. वहीं सीपीएम ऐसी पार्टी है जिसकी विचारधारा लगभग हर पार्टी से टकराती है. लेकिन उसके पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं होगा.
इनके अलग विचारधारा के कारण ही कहा जा सकता है कि ये ऐसी बिल्डिंग होगी जिसकी छत सीमेंट की नहीं बनी होगी बल्कि छतरी की होगी और कभी टूट सकती है.
- अहंकार को खत्म करना
अगर सारी विपक्षी पार्टियां एकजुट हो भी गईं तो भी क्षेत्रीय पार्टियां किस हद तक सहयोग करेंगी ये बहस का विषय है. जैसे अभी सपा और बसपा में कोई गठबंधन नहीं हुआ है लेकिन फिर दोनों समझौते के तहत एकसाथ हैं. अगर ये दोनों राष्ट्रीय स्तर पर कोई गठबंधन करते हैं तो वरिष्ठता का मुद्दा खड़ा हो सकता है. उदाहरण के लिए, हो सकता है कि मायावती अखिलेश यादव के नेतृत्व को बिना शर्त स्वीकार न करें. लेकिन भाजपा के हाथों में विनाश की संभावना से बचने के लिए, उन्हें सीटों के बंटवारे और नेतृत्व के बारे में आम सहमति पर पहुंचना पड़ेगा.
दुर्घटना से देर भली, विपक्ष को ये समझना होगा
उन्हें जितनी जल्दी हो ये बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि कुछ नहीं मिलने से अच्छा है कुछ मिल जाए.
- नेतृत्व और विजन की जरुरत
बसपा के सहयोग से अखिलेश यादव गठबंधन के नेता के तौर पर उभर सकते हैं. क्योंकि यूपी से लोकसभा में जितनी सीटें हैं उस हिसाब से गठबंधन में पड़ला सपा-बसपा का ही भारी होगा. जल्दी ही कांग्रेस का अस्तित्व ऐसे कामों में खत्म होने वाला है तो उनके लिए बेहतर यही है कि वो गठबंधन का हिस्सा बनना स्वीकार कर लें. यहां अखिलेश के खिलाफ ये जाता है कि अभी तक उनकी राष्ट्रीय छवि नहीं बनी है और वो क्षेत्रीय या राज्य स्तरीय नेता ही माने जाते हैं. लेकिन एक राष्ट्रीय पार्टी का अध्यक्ष होने के बावजूद राहुल गांधी की पहचान पूरे देश में नहीं है. इस लिहाज से देखा जाए तो नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़े होने के लिए ज्यादा उपयुक्त अखिलेश यादव ही होंगे.
इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण गठबंधन को जल्द से जल्द तैयार करना है. और इसके साथ ही देश के सभी हिस्सों को प्रभावित करने वाला एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम तैयार करना.
- परेशानी में भी भरोसा कायम रखना
उपचुनाव के परिणाम "अजेय" भाजपा नेतृत्व को कई चेतावनी भरे संकेत दे रहे हैं. अपार जनसमर्थन और विधानसभा चुनावों में मिलने वाली बंपर जीतों से भाजपा लापरवाह हो गई थी. इसका एक उदाहरण उप-चुनावों में हुए कम मतदान हैं. यही लापरवाही कांग्रेस के पतन का कारण बनी थी.
अगर मणिक सरकार त्रिपुरा में हार सकते हैं और भाजपा गोरखपुर सीट को खो सकती है, तो किसी भी क्षेत्र में कुछ भी हो सकता है.
( मूलत: यह लेख लेखक और स्तंभकार श्रीजीत पनीकर ने DailyO.in के लिए अंग्रेजी में लिखा है)
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