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Updated: 11 सितम्बर, 2016 04:05 PM
राकेश उपाध्याय
राकेश उपाध्याय
  @rakesh.upadhyay.1840
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कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अयोध्या गए लेकिन राम जन्मभूमि मंदिर की उस विवादित जगह जाना उन्होंने मंजूर नहीं किया जहां कभी बाबरी मस्जिद की इमारत थी, जिसे 6 दिसंबर 1992 के दिन कारसेवकों की गुस्साई भीड़ ने ज़मींदोज कर डाला था.

गांधी परिवार के युवराज का मंदिर जाने का कार्यक्रम अयोध्या में करीब 27 साल बाद हुआ. गांधी परिवार को दिल्ली से अयोध्या पहुंचने में 27 साल लग गए तो सवाल उठेंगे ही कि आखिर इस समय अयोध्या की याद क्यों आई? क्या राहुल गांधी और उनके रणनीतिकारों ने इस बात को भलीभांति समझ लिया है कि अयोध्या की भावनाओं को दरकिनार कर की गई सियासत ने ही यूपी में पार्टी का बंटाधार कर दिया. फिर धीरे धीरे कांग्रेस गंगा-यमुना के मैदान में भी राजनीतिक तौर पर बीजेपी के सामने सिमटती चली गई?

1985 में 425 सदस्यों वाली यूपी की विधानसभा में कांग्रेस के पास 269 सीटें अकेले दम पर थीं तो 1989 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का आंकड़ा 100 सीटों के नीचे लुढ़क गया. 1991 में बीजेपी ने बहुमत के साथ यूपी के सत्ता सिंहासन पर कब्जा कर लिया तो कांग्रेस 50 सीटों भी नहीं जीत सकी.

1991 में कांग्रेस को जहां 46 विधानसभा सीटों पर जीत मिलीं वहीं 2012 में उसकी सीटों का आंकड़ा यूपीए सरकार के दोबारा केंद्र की सत्ता में आने के बावजूद 28 सीटों पर आकर ठहर गया. जबकि 2009 के लोकसभा चुनाव में यूपी ने कांग्रेस को 23 लोकसभा सदस्य दिए थे. कांग्रेस तीन साल के भीतर अपने लोकसभा नतीजों के प्रदर्शन के हिसाब से भी सीटें जीत पाने में नाकाम रही तो संकेत यही था कि जनता ने यूपी में कांग्रेस को शासन करने वाली पार्टी मानने से इन्कार कर दिया.

जाहिर तौर पर पहले के चुनावों से सबक सीखते हुए राहुल गांधी यूपी के सियासी रण में अब मंदिर-मंदिर घूमने की सियासत की अहमियत समझ रहे हैं तो सवाल उठेंगे ही कि क्या इससे कांग्रेस को यूपी में पुनर्जीवन मिल जाएगा?

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 अयोध्या गए पर रामलला क्यों नहीं?

अयोध्या के पहले राहुल गांधी की सियासी यात्राओं में तीर्थाटन की तस्वीरें मथुरा में भी देखी गई थीं. राहुल गांधी तब वृंदावन पहुंचे थे. बांकेबिहारी मंदिर में उन्होंने दर्शन किए और उसके बाद उन्होंने दिन भर कांग्रेस के यूपी के प्रमुख नेताओं के साथ मिलकर चिंतन-मंथन किया था. केदारनाथ मंदिर में भी राहुल गांधी का दर्शन-पूजन का कार्यक्रम सुर्खियों में जमकर आया था और तब भी यही बात उठी थी कि क्या राहुल गांधी एंटनी कमेटी की इस रिपोर्ट के जरिए भूलसुधार करने में जुटे हैं कि विरोधियों ने कांग्रेस को देश के आस्थावान बहुसंख्यकों से दूर कर दिया.

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कांग्रेस की छवि बहुसंख्यक हितों के सवाल पर अल्पसंख्यक परस्त बना दी गई और पार्टी ने वक्त रहते इस अल्पसंख्यक परस्त छवि के नुकसान पर ध्यान नहीं दिया. पर क्या मंदिर-मंदिर जाने से भरपाई हो सकेगी जबकि सियासी तौर पर छवि सुधारने की नीयत पर सवाल इस अयोध्या यात्रा में भी उठ गए हैं.

दरअसल, अयोध्या जाकर भी राहुल गांधी उस मानसिकता से बाहर निकलते दिख नहीं रहे जिसकी शिकार कांग्रेस बीते 3 दशकों में होती चली गई और सब कुछ लुट जाने के बाद भी उसे इस बात की समझ नहीं आ रही कि आखिर सुधार का रास्ता कैसे निकाला जाए. अयोध्या जाकर रामलला के दर्शन से परहेज करना किसी बड़ी सियासी चूक से कम नहीं. अयोध्या भगवान श्रीराम की जन्मभूमि है, पौराणिक-ऐतिहासिक मान्यता से बड़ी बात इस तथ्य में ये है कि राम के अयोध्या में जन्म लेने की घटना देश के लोकमानस के कंठ-कंठ में घुटी पड़ी है.

बावजूद इसके राहुल गांधी रामजन्मभूमि के ऐतिहासिक सत्य को अपनी स्वीकृति देने में परहेज करते दिखे जिसे साल 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी एकसुर से रामजन्म भूमि करार दिया था. राहुल गांधी ने अयोध्या जाकर भी रामलला के दर्शन नहीं किए तो इसका राजनीतिक जवाब भी उन्हें खोजकर रखना होगा कि आखिर उन्हें उन रामलला से इतना परहेज क्यों जिनके बगैर हनुमान जी के दर्शनों का सनातन हिंदू धर्म में भी कोई मतलब नहीं!

यूपी में कांग्रेस की खस्ता हालत की वजह अनेक राजनीतिक विश्लेषक इसी मानसिकता में देखते हैं. जिसमें आस्था से जुड़ी चीजें भी राजनीतिक हानि-लाभ के नजरिए से तय की जाती हैं कि अगर राम के दर्शन किए तो रहीम नाराज होंगे और अगर सिर्फ रहीम की खैरियत मनाई तो राम के दरबार में खैरियत बिगड़ जाएगी. यूपी की राजनीति में इसी सोच ने कांग्रेस को बीजेपी के मुकाबले काफी पीछे खड़ा कर दिया है.

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 किसने बिछाई अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक सियासत की बिसात

सवाल यूपी में नेताओं के जरिए खड़ी की गई इसी अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक सियासत के उन खांचों को लेकर खड़ा होता है जिसकी बिसात भी 80 के दशक में कांग्रेस नेताओं ने ही तैयार की थी. शाहबानो केस में तब सुप्रीम कोर्ट के सुधारवादी फैसले को कांग्रेस की अल्पसंख्यक सियासत ने एक झटके में ही मटियामेट कर डाला था और इस पांथिक राजनीति की तुला को बराबरी पर लाने के लिए तब कांग्रेस ने अयोध्या का रुख किया था. फैजाबाद जिला अदालत का फैसला आते ही हिंदुओं के एक वर्ग को खुश करते हुए अयोध्या में विवादित स्थान पर लगे ताले को भी कांग्रेस ने एक झटके में ही अतीत का किस्सा बना दिया था.

तभी से अयोध्या का राजनीतिक संग्राम देश की सियासत का केंद्रीय मुद्दा बन गया. ताला खोलकर कांग्रेस निश्चिंत बैठ गई लेकिन बीजेपी ने ताले के भीतर विराजमान रामलला के चारों ओर भव्य मंदिर के सवाल पर इतने भारी भजन-कीर्तन का समां बांध दिया कि ताला खोलकर भी कांग्रेस उसके बाद के हर विधानसभा चुनाव में बैकफुट पर खड़ी होने को मजबूर हो गई तो बाबरी ढांचे की जगह रामंमंदिर को भव्यता देने का ऐलान कर बीजेपी का ग्राफ लखनऊ से दिल्ली तक चुनाव दर चुनाव ऊपर ही चढ़ता चला गया.

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साफ है कि कांग्रेस को समझने में मुश्किल नहीं होना चाहिए कि भावनाओं की सियासत पर चढ़कर सत्ता पाने की कीमत आज नहीं तो कल चुकानी ही पड़ती है. यूपी में कांग्रेस आज तक भावनाओं की सियासत की कीमत ही चुका रही है. गलती बीजेपी ने भी की तो उसे भी 2002 में यूपी की जनता ने सबक सिखाया और 2004 के लोकसभा नतीजों में भी झटका देकर बताया कि अगर राजनीतिक दल वायदों पर खड़े नहीं उतरेंगे तो सत्ता में दोबारा लौटने का ख्वाब देखना भी उन्हें छोड़ना होगा. बीजेपी ने अतीत की गलतियों से सबक सीखकर नेतृत्व से लेकर अपनी नीतियों में आए भटकाव पर जनता के बीच सफाई पेश की. बीजेपी ने बड़े बदलाव और पीढ़ीगत परिवर्तन मंजूर कर एक बार फिर से जहां जनता का भरोसा जीत लिया वहीं कांग्रेस के सामने चुनौतियां आज भी जस की तस हैं कि वो रास्ता कौन सा होगा जिसमें से कांग्रेस यूपी की जनता के दिलों को जीतने का सपना साकार कर पाएगी?

जनता की राजनीति का सच यही है कि जनता को बार-बार आप मूर्ख नहीं बना सकते. जनता के हितों को आप भावनाओं की बाढ़ में बार-बार बहा नहीं सकते. लोगों को जब यह पता लग जाता है कि सियासत के लिए उनकी भावनाओं को छला जा रहा है या फिर जिंदगी के बुनियादी सवालों से भटकाकर उसकी पीढ़ियों को अंधेरी सुरंग की ओर ढकेला जा रहा है तो फिर हिंदू हो या मुसलमान या फिर वंचित या सम्पन्न, हर वर्ग से जुड़ी युवाओं की टोली सत्ता परिवर्तन के लिए मचलने लगती है. क्योंकि उसे मालूम होता है कि सियासत को बदले बगैर किस्मत में बदलाव मुमकिन नहीं.

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तो राहुल गांधी को भी समझना चाहिए कि सिर्फ अल्पसंख्यक राजनीति को बहलाकर या बहुसंख्यक राजनीति के एक हिस्से को अपने साथ मिलाकर वह यूपी की जनता के दिलों को नहीं जीत सकते. उन्हें यूपी की समस्याओं पर ठोस विचार करना होगा, राजनीतिक तौर पर यूपी के नौजवानों की जरूरत की कसौटी पर विचारों की नई खेप प्रस्तुत करनी होगी. ऐसे झूठे, फर्जी और मनगढ़ंत मुद्दों से खुद को दूर करना होगा जो सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक विद्वेष की भट्ठी पर भड़काए जाते हैं और जिनका इस्तेमाल असल में कुछ समूहों की वोट बैंक राजनीति चमकाने के सिवाय आम लोगों की जिंदगी से कोई लेना-देना नहीं होता.

कांग्रेस को ध्यान रखना होगा कि सिर्फ और सिर्फ बीजेपी को हराने की मानसिकता से ही अगर वो रणनीति का निर्माण करेगी तो कभी भी सफल नहीं हो सकेगी. क्योंकि जो लोग सियासी जंग में किसी को हराने की बिसात पर ही अपनी रणनीति बुनते-गुनते हैं, वह खुद कभी हार के दायरे से बाहर नहीं निकल पाते और फायदा तीसरे दल उठाते हैं और अंत में हराने की बिसात रचने वाले तीसरे दलों के पिछलग्गू बनकर ही सियासत में अलग-थलग पड़े रहने को बाध्य हो जाते हैं.

लेखक

राकेश उपाध्याय राकेश उपाध्याय @rakesh.upadhyay.1840

लेखक भारत अध्ययन केंद्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं

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