CJI sexual harassment case: न्यायपालिका पर ग्रहण लगाने वालों को पहचानना जरूरी है
CJI Ranjan Gogoi पर आरोपों का सिरा सिर्फ एक महिला से जुड़ा हुआ है. जिस तरह से शिकायत की ड्रॉफ्टिंग हुई और जिस संयोजन के साथ मामला सामने लाया गया वो बताता है कि मामला महिला को न्याय से भी बड़ा है.
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संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता कई बार सवालों के घेरे में होती है और कई बार ताना-बाना बुनकर लाई भी जाती है. इन दोनों धारणाओं के बीच झूलता एक मामला आजकल जो कि भारत के प्रधान न्यायाधीश CJI Ranjan Gogoi पर कथित तौर पर अमर्यादित आचरण करने से जुड़ा है, बहुत तूल पकड़ रहा है. लेकिन मामले का सिलसिलेवार ब्योरा देखा जाए तो पीड़ित और उसकी पीड़ा से इतर भी कई पहलू नजर आएंगे जो आरोपों पर सहज विश्वास करने से रोकते हैं.
CJI के स्टाफ से जुड़ी एक महिला को सीजेआई दफ्तर का दुरुपयोग करने और बेजा लाभ कमाने की शिकायतों के चलते नौकरी से हटा दिया जाता है. उस महिला ने दफ्तर की गोपनीयता भंग की और बाहरी लोगों से सूचनाएं साझा कीं. दिसंबर के महीने में उसे नौकरी से हटा दिया गया. चार महीने बाद उस महिला ने सीजेआई पर उसके साथ अमर्यादित आचरण का आरोप लगाया. इसके लिए उसने किसी जगह पहले कोई शिकायत नहीं की. इस घटनाक्रम की खबर 19 अप्रैल में चार वेबसाइटों पर आई. हालांकि इसमें सीजेआई का पक्ष नहीं था.
सीजेआई को फिलहाल इस मामले में क्लीन चिट मिल गई है
इतना ही नहीं शिकायती शपथपत्र की प्रतियां सुप्रीम कोर्ट के 22 जजों तक भी भेज दीं. मामला सामने आने पर सीजेआई ने अपने खिलाफ जांच कमेटी गठित कर दी. इस बीच उत्सव बैंस नामक एक वकील ने सुप्रीम कोर्ट में इस मामले से जुड़े कुछ सनसनीखेज खुलासे किए कि इसके पीछे बड़े कॉरपोरेट्स की लॉबी काम कर रही है जो न्यायपालिका पर दबाव बनाने का काम करती है. कोर्ट ने उसकी भी बात सुनी.
कमेटी बनाने के दौरान सीजेआई ने कहा था न्यायपालिका खतरे में है और इसे टार्गेट किया जा रहा है. सीजेआई कमेटी के सामने पेश हुए और उन्होंने अपना पक्ष रखा. पीड़ित महिला ने कमेटी के सामने पेश होने से इनकार कर दिया इस दलील के साथ कि उसे न्याय की उम्मीद नहीं है. इस बीच सिविल सोसायटी और कुछ वकील भी महिला को न्याय दिलाने के लिए कूद पड़े. दो महिला और एक पुरुष न्यायाधीश की तीन सदस्यीय कमेटी ने सीजेआई को मामले में क्लीन चिट दे दी. जिस वकील ने कॉरपोरेट लॉबी का हाथ होने की बात कही थी उसकी जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने एक अलग कमेटी बना दी. सीजेआई को क्लीन चिट मिलने के खिलाफ दर्जनों महिलाओं ने सुप्रीम कोर्ट के बाहर 7 मई को प्रदर्शन किया. जाहिर है प्रदर्शन करने के लिए लोग जुटाने पड़ते हैं और ये क्लर्क लेवल के कर्मचारी के पक्ष में भीड़ जुटाना अपने आप में एक मैनेज करने वाली बात लगती है.
सीजेआई को क्लीन चिट मिलने के खिलाफ दर्जनों महिलाओं ने सुप्रीम कोर्ट के बाहर प्रदर्शन किया
न्यायिक गलियारों और वकीलों के पास अक्सर ऐसे लोग घूमते रहते हैं जो मामला बेंच से सेट कराने की बात कहते हैं. एक जानकार वकील कहते हैं कि ऐसे लोगों का पूरा गिरोह कोर्ट परिसर और उससे बाहर ऑपरेट करता है. एक शब्द बेंच हंटिंग भी कोर्ट में बहुत चलता है. बड़े कॉरपोरेट्स का हाथ अदालती प्रक्रिया को प्रभावित करने की बातें भी अक्सर होती रहती हैं. फरवरी के महीने में एक केस में कोर्ट आर्डर में हेरफेर करने के आरोप में दो कोर्ट मास्टर नौकरी से निकालकर जेल भेजे गए थे. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर में हेरफेर करना बिना किसी शह और लालच के अविश्वसनीय लगता है.
दरअसल, अदालत के भीतर लगे केसों में दांव बहुत ऊंचे होते हैं. चुनावी माहौल में जहां प्रधानमंत्री से लेकर विपक्षी पार्टी के सबसे बड़े नेता से लेकर जनमानस को प्रभावित करने वाले अनेक केस लगे हैं. इन मामलों में छोटे से आदेश से भी नेताओं की फजीहत होती है और इसका चुनावी असर तक देखने को मिलात है. अभी चूंकि चुनावी माहौल है और सरकार भी इस मामले में अपनी तरफ से कोई पहल करने से बच रही है इसलिए मामला ठंडा है. लेकिन ये तो तय है कि CJI पर आरोपों का सिरा सिर्फ एक महिला से जुड़ा हुआ है. जिस तरह से शिकायत की ड्रॉफ्टिंग हुई और जिस संयोजन के साथ मामला सामने लाया गया वो बताता है कि मामला महिला को न्याय से भी बड़ा है.
चुनावी माहौल में सरकार भी इस मामले में अपनी तरफ से कोई पहल करने से बच रही है
आपके मन में कुछ सहज सवाल उठेंगे कि क्या सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के जज के खिलाफ एफआईआर हो सकती है? क्या उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है? नहीं, न एफआईआर हो सकती है और न ही गिरफ्तारी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने ही ऐसी गाइडलाइंस तय की हैं कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट जजों के खिलाफ ऐसी कार्रवाई से पहले सरकार को भारत के मुख्य न्यायाधीश से सलाह लेनी होगी और पुख्ता भौतिक प्रमाणों के आधार पर आगे की कार्रवाई होगी. निचले न्यायिक अधिकारियों की गिरफ्तारी भी प्रतीकात्मक होगी और उसकी तुरंत सूचना जिला-सत्र न्यायाधीश को दी जाएगी. इतना ही नहीं गिरफ्तार कर निचले न्यायिक अधिकारी को बगैर इजाजत थाने नहीं लाया जा सकता. न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए जजेज प्रोटेक्शन एक्ट बना हुआ है और सीआरपीसी की धारा 154 के तहत बगैर ऊंची अदालतों के जजों को एफआईआर से कानूनी कवच मिला हुआ है लेकिन शर्तों के साथ.
सीजेआई के खिलाफ आरोप लगाने वाली महिला जांच से असंतुष्ट है. जजों के खेमे में भी सब कुछ सामान्य नहीं है. चुनाव खत्म होने के बाद इस मामले में कोई नया मोड़ आने की गुंजाइश बनी हुई है क्योंकि सरकार की तरफ से अब तक कोई पहल नहीं हुई है. इस मामले के बाद और पहले से भी न्यायपालिका से लेकर व्यवस्थापिका तक में स्वच्छता कायम करने की जरूरत बराबर बनी हुई है. इसके लिए कॉरपोरेट्स से लेकर लॉबीइंग करने वाले वकीलों और सत्ता के दलालों तक पर नकेल कसने की जरूरत है. लेकिन इन्हें पहचानने का कोई सिस्टम नहीं है, यही इस लोकतंत्र का दुर्भाग्य है.
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