कांग्रेस फिर से क्यों EVM में विपक्षी एकता की डोर ढूंढने लगी?
ऐसे में जब EVM के खिलाफ स्टैंड को लेकर कांग्रेस के अंदर ही विरोध हो चुका है, कांग्रेस एक बार फिर उसी मुद्दे पर क्यों लौट रही है? क्या अखिलेश और मायावती को साथ लेने के लिए कांग्रेस ऐसा कर रही है?
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कांग्रेस महाधिवेशन में एक पुराना राग फिर से सुनाई दिया - EVM नहीं बल्कि बैलट पेपर. ईवीएम के साथ ही कांग्रेस महाधिवेशन में विपक्षी एकता पर भी जोर दिखा ताकि 2019 में बीजेपी और संघ को मजबूती के साथ चैलेंज किया जा सके.
कांग्रेस के लिए ईवीएम ऐसा मुद्दा है जिसका पार्टी के अंदर ही समर्थन और विरोध होता रहा है. पहले भी कांग्रेस ईवीएम के मुद्दे पर कदम आगे पीछे करती रही है. फिर ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस ने एक बार फिर ईवीएम राग शुरू कर दिया है?
EVM और विपक्षी एकता
गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव जीतने के बाद समाजवादी पार्टी की ओर से ईवीएम की चर्चा शुरू हुई. अखिलेश यादव ने कहा कि ईवीएम अगर सही होती, समय खराब न किया होता और बड़े पैमाने पर ईवीएम खराब न होती तो समाजवादियों की जीत बड़ी होती.
कांग्रेस के मंच पर दोबारा दिखा ये नजारा...
यूपी विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हारने के बाद मायावती ने सबसे पहले ईवीएम पर ही ठीकरा फोड़ा था. फिर अखिलेश यादव ने मायावती की बातों का सपोर्ट करते हुए जांच की मांग की. कहने का मतलब ये कि ईवीएम के मुद्दे पर अखिलेश यादव और मायावती एक राय रखते हैं.
कांग्रेस की मुश्किल ये है कि यूपी उपचुनाव में दोनों में से किसी ने उसे पूछा ही नहीं. मायावती तो पहले ही इंकार कर चुकी थीं. अखिलेश ने भी साफ कर दिया था कि समाजवादी पार्टी चुनाव अकेले लड़ेगी. हुआ ये कि कांग्रेस ने भी मैदान में उम्मीदवार उतार दिये. बीएसपी ने समाजवादी पार्टी को सपोर्ट किया और समझा गया कि कांग्रेस न मुकाबले में न होती तो वे वोट भी समाजवादी पार्टी को ही मिलते. कांग्रेस उम्मीदवार न हटाने से अखिलेश और मायावती दोनों को बुरा लगा.
हालांकि, बाद में जब कांग्रेस ने जीत की बधायी दी और यूपी कांग्रेस के नेताओं की ओर से बयानबाजी हुई तो अखिलेश खेमे से भी मैसेज आया कि भविष्य में संभावित गठबंधन के विकल्प पूरी तरह बंद नहीं हैं.
तो क्या कांग्रेस के फिर से ईवीएम राग शुरू करने की वजह अखिलेश और मायावती जैसे नेताओं के सुर में सुर मिलाना है?
कांग्रेस के राजनीतिक प्रस्ताव में कहा गया है, "चुनाव आयोग के पास ये संवैधानिक अधिकार है कि वो चुनाव निष्पक्ष और सही तरीके से कराये. साथ ही वोटिंग और काउंटिंग की प्रक्रिया भी पारदर्शी रखने का अधिकार है, ताकि लोगों का चुनावी प्रक्रिया में विश्वास कायम रहे. लोगों और पार्टियों को शक है कि ईवीएम के गलत इस्तेमाल के जरिये जनता के फैसले को प्रभावित किया जा रहा है."
फिर कांग्रेस का ईवीएम राग!
इसके साथ ही कांग्रेस ने ईवीएम की बजाय बैलट पेपर से चुनाव कराने का सुझाव दिया है. अखिलेश यादव और मायावती के अलावा यही विचार अरविंद केजरीवाल के भी हैं, लेकिन अब तक वो कांग्रेस के विपक्षी मंच पर अछूत बने हुए हैं.
अविश्वास प्रस्ताव और विपक्षी एकता
विपक्ष के एकजुट होने का एक और मुद्दा खड़ा हो गया है - केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव. अविश्वास प्रस्ताव की अगुवाई फिलहाल आंध्र प्रदेश से हो रही है. असर ये हुआ है कि कांग्रेस छोड़ कर वाईआरएस कांग्रेस बनाने वाले जगनमोहन रेड्डी और एडीए से अलग होने वाले टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडू पुरानी दुश्मनी भुला कर हाथ मिला लिये हैं. केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के खिलाफ इन दोनों का साथ तकरीबन वैसे ही है जैसे यूपी उपचुनाव में अखिलेश-मायावती और 2015 में लालू-नीतीश का साथ आना. देखें तो जब जब ऐसा हुआ है बीजेपी को बहुत भारी पड़ा है.
वैसे मोदी सरकार के खिलाफ कोई अविश्वास प्रस्ताव आता भी है तो सरकार की सेहत पर कोई सीधा असर नहीं पड़ने वाला. बिलकुल ऐसा भी नहीं है, परोक्ष रूप से चुनौतियां तो बढ़ ही जाएंगी. सबसे बड़ा नुकसान तो यही होगा कि इससे विपक्षी नेता करीब आएंगे और बीजेपी की मुश्किलें बढ़ेंगी.
आंकड़ों को हिसाब से देखें तो अविश्वास प्रस्ताव गिराने के लिए 270 की संख्या चाहिए और बीजेपी इससे काफी आगे है. 2014 के आम चुनाव में बीजेपी को 284 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. हालांकि, अब लोकसभा में बीजेपी के कुल 274 सांसद हैं. इसके साथ ही कांग्रेस के सांसदों की संख्या 44 से बढ़ कर 48 और समाजवादी पार्टी की 5 से बढ़ कर सात हो गयी है. इसी तरह AIADMK के 37, टीएमसी के 34, बीजेडी के 20, शिवसेना के 18, टीडीपी के 16, टीआरएस के 11, वाईआरएस कांग्रेस के 9, एलजेपी और एनसीपी के 6-6, आरजेडी के 4 और आरएलएसपी के तीन संसद सदस्य हैं.
कांग्रेस के राजनीतिक प्रस्ताव में भी 2019 में बीजेपी को रोकने के लिए विपक्षी दलों के साथ गठबंधन का खासतौर पर जिक्र है. इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में भी सोनिया गांधी ने कहा था कि देश खातिर आपसी मतभेद भुलाकर विपक्ष को साथ आना होगा. 13 मार्च को इसी मकसद से सोनिया ने डिनर भी रखा था जिसमें आये तो 19 दलों के नुमाइंदे लेकिन न तो अखिलेश-मायावती आये और न ही ममता बनर्जी.
कांग्रेस के 84वें महाधिवेशन के ऐन पहले जो बड़ा बदलाव हुआ वो रहा - राहुल गांधी का ट्विटर हैंडल. अधिवेशन से ठीक पहले राहुल ने अपना ट्विटर अकाउंट @OfficeOfRG से बदलकर @RahulGandhi कर लिया है. वैसे नाम में क्या रखा है, लेकिन राहुल गांधी नाम ही तो ऐसा है जिसमें सब कुछ समाहित है!
For those of you who missed it, my Twitter handle has changed from 9 am this morning to @RahulGandhi
The @OfficeOfRG account has been discontinued.
I look forward to your feedback and comments and to continuing my dialogue with you via Twitter and other platforms.
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) March 17, 2018
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