महाभियोग के मुद्दे पर कांग्रेस को मिली शिकस्त 2019 के लिए बड़ा सबक है
कांग्रेस या तो 2019 के मुकाबले में जो साथ मिले उससे संतोष कर ले. दूसरा रास्ता यूपीए को ही जितना एकजुट रख ले वो फायदे में रहेगी. तीसरा रास्ता तो यही है कि वो ममता बनर्जी की बात मानते हुए तीसरे मोर्चे में बाकी क्षेत्रीय दलों की तरह हिस्सेदार बन जाये.
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चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग लाने का मामला टांय टांय फिस्स हो चुका है. इसके लिए विपक्ष के बिखर जाने से अच्छा ये कहना होगा कि ये मामला विपक्ष पर कांग्रेस की कमजोर पकड़ का एक और नमूना है. इससे पहले राष्ट्रपति चुनाव और जीएसटी के मामले में भी कांग्रेस का ऐसा ही अनुभव रहा.
या तो कांग्रेस के साथ विपक्ष आने को तैयार नहीं है या फिर कांग्रेस ऐसे मुद्दे ही उठा रही है जिस पर विपक्ष एकजुट नहीं हो पा रहा है. कर्नाटक चुनाव प्रचार और राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी कांग्रेस के लिए ये बड़ा सबक है. कांग्रेस को तय करना होगा कि आगे का रास्ता उसे कैसे तय करना है?
चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग पर पीछे हटी कांग्रेस
महाभियोग की मुहिम को लेकर इंडियन एक्सप्रेस के सवाल के जवाब में लोक सभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे का बस इतना ही कहना रहा - 'मामला खत्म हो चुका है.'
संसद पहुंचने से पहले ही गिरा महाभियोग प्रस्ताव...
सवाल उठता है कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने में जोर शोर से जुटी कांग्रेस को आखिर अपना कदम पीछे क्यों हटाना पड़ा? चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की पहल सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने जनवरी में शुरू की थी. ये सुप्रीम कोर्ट के चार जजों जस्टिस जे चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस कूरियन जोसेफ की प्रेस कांफ्रेंस के करीब एक पखवाड़े बाद की बात है. सीपीआई नेता डी. राजा तो प्रेस कांफ्रेंस के तत्काल बाद जस्टिस चेलमेश्वर के घर पहुंच गये थे. फिर येचुरी की बात मानकर कांग्रेस ने इसमें दिलचस्पी दिखायी और उसके नेता मुहिम में जुट गये.
इकोनॉमिक टाइम्स के अनुसार डीएमके के तीन राज्य सभा सांसदों ने प्रस्ताव पर दस्तखत कर दिये थे, लेकिन नेतृत्व के निर्देश पर सबने कदम पीछे खींच लिये. समाजवादी पार्टी भी हां बोलने के बाद पीछे हट गयी. टीएमसी ने तो आखिर तक पत्ते ही नहीं खोले.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक राज्य सभा में कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद ने इस मकसद से कम से कम 60 सांसदों के हस्ताक्षर जुटाये थे. जब देखा कि हस्ताक्षर करने वाले कुछ सांसदों का कार्यकाल खत्म हो गया तो उन्होंने फिर से कुछ सांसदों से दस्तखत करवाये.ऐसा नहीं है कि कांग्रेस को सिर्फ विपक्षी दलों का ही साथ नहीं मिला, पार्टी के भीतर भी इस मुद्दे पर गहरा मतभेद दिखा. आधे से ज्यादा कांग्रेस के नेता महाभियोग के पक्ष में जरूर थे लेकिन बाकी तो पूरी तरह खिलाफ थे.
जजों की प्रेस कांफ्रेंस के बाद आया महाभियोग का प्रस्ताव
मालूम होता है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद जैसे कुछ नेता चाहते थे कि महाभियोग लाया ही जाये. मगर, अहमद पटेल और ज्योतिरादित्य सिंधिया तो पूरी तरह खिलाफ थे. कानून मंत्री रह चुके दो नेताओं एम. वीरप्पा मोइली और अश्वनी कुमार ने तो इसके खिलाफ आवाज भी उठायी थी.
कांग्रेस को ऐसा ही अंदरूनी विरोध ईवीएम के मसले पर विपक्ष के साथ जाने पर भी झेलना पड़ा था. ईवीएम को लेकर पहले तो कांग्रेस नेताओं ने विपक्षी दलों को लेकर चुनाव आयोग के दफ्तर पर कई बार धावा बोला, लेकिन फिर अपने ही नेताओं के विरोध के चलते पीछे हटना पड़ा था.
ममता बनर्जी ने दिया गच्चा
कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका दिया ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने. जब ममता बनर्जी दिल्ली आई थीं तो उनकी जाने माने वकील प्रशांत भूषण से भी मुलाकात हुई थी, फिर लगा तृणमूल नेता की भी इसमें खास दिलचस्पी है. जाने से पहले ममता बनर्जी ने 10, जनपथ जाकर सोनिया गांधी से भी मुलाकात की थी.
महाभियोग पर ममता ने दिया झटका
मुलाकात में ममता ने सोनिया गांधी के सामने ऐसा प्रस्ताव दिया था जो कांग्रेस के लिए मंजूर करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था. प्रस्ताव सुन कर सोनिया को भी अजीब लगा होगा. जिस ममता को विपक्षी दलों के साथ सोनिया गांधी अस्पताल से भी फोन करके खास तौर पर बुलायी थीं, वही अब कांग्रेस को किसी क्षेत्रीय दल की तरह लेने लगी हैं. सोनिया को दिये प्रस्ताव में ममता का कहना था कि कांग्रेस भी समाजवादी पार्टी और बीएसपी की तरह उनके प्रस्तावित तीसरे मोर्चे का हिस्सा बन जाये. कांग्रेस के लिए ममता से बेहतर तो नीतीश कुमार ही थे जो उसे बड़ी पार्टी होने के नाते अगुवाई करने की सलाह देते रहे. ममता का स्टैंड तो बिलकुल ही उल्टा है. वैसे इसकी बड़ी वजह ममता को तमाम विपक्षी दलों की ओर से मिला सपोर्ट भी है जो नीतीश को कभी नहीं मिल सका. यही वजह है कि बिहार कांग्रेस के नेता नीतीश को महागठबंधन में फिर से आने का न्योता दे रहे हैं.
कांग्रेस के लिए ममता का प्रस्ताव मानने का मतलब प्रधानमंत्री पद पर राहुल गांधी की दावेदारी खत्म समझिये. भला कांग्रेस को ये कैसे मंजूर हो. ममता के कोलकाता लौटते ही कांग्रेस नेताओं ने साफ कर दिया कि पार्टी को ऐसा कोई प्रस्ताव मंजूर नहीं होगा.
अब तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस के साथ वही आ सकते हैं जिन्हें खड़े होने का सहारा चाहिये या फिर जिन्हें पुराने रिश्ते निभाने हैं. आरजेडी के साथ कुछ ऐसा ही है. विदेशी मूल के मुद्दे पर लालू प्रसाद के सपोर्ट को लेकर सोनिया गांधी हमेशा अहसानमंद रही हैं, तो युवा तेजस्वी का साथ राहुल गांधी को पसंद आ रहा है. तीसरे मोर्चे को लेकर ममता की कोशिशों के विरोध में आरजेडी से ही आवाज उठी है. लालू और तेजस्वी यादव दोनों ने ही बोल दिया है कि विपक्ष कांग्रेस के नेतृत्व में ही संगठित होगा. देखना होगा यूपीए की कितनी पार्टियां कांग्रेस के साथ आगे तक रहती हैं. एनसीपी नेता शरद पवार तो ममता के साथ ही तीसरे मोर्चे के पक्ष में खड़े दिखायी दे रहे हैं.
कांग्रेस ने राष्ट्रपति चुनाव में पहल की कुछ नहीं हुआ. कांग्रेस ने जीएसटी के मुद्दे पर भी कोशिश की - नेताओं ने कहा बहुत देर कर दी. ऐसे कई मौके आये जब कांग्रेस ने संसद से राष्ट्रपति भवन तक विपक्षी दलों को लेकर मार्च किया - लेकिन बाद में सब अपने अपने रास्ते पकड़ लिये.
कांग्रेस को समझ लेना चाहिये कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 2019 में चैलेंज करने के लिए उसे विपक्ष का साथ चाहिये तो हालात के हिसाब से समझौते करने पड़ेंगे, वैसे 'एकला चलो रे...' का विकल्प तो हमेशा ही खुला रहता है.
कांग्रेस को ये भी समझ लेना होगा कि उसके चलते अगल विपक्षी दलों का कोई मोर्चा खड़ा नहीं हो पाया तो 2019 में मोदी सरकार सत्ता में वापसी की तोहमत भी विपक्षी दलों के नेता राहुल गांधी के सिर ही मढ़ देंगे.
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