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Updated: 29 मार्च, 2018 01:47 PM
खुशदीप सहगल
खुशदीप सहगल
  @khushdeepsehgal
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कर्नाटक चुनाव की तारीखों के एलान के साथ भारतीय राजनीति का सबसे गहमा गहमी वाला दौर शुरू हो गया है. 2018 की दूसरी छमाही में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव भी हैं. 2019 के शुरू में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव होने हैं. और फिर मई तक लोकसभा चुनाव. यानी अब करीब 15 महीने तक नॉन स्टॉप ‘द ग्रेट इंडियन पॉलिटिकल सर्कस’ चलना है. बड़ा सवाल ये है कि क्या 2019 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष एकजुट हो पाएगा. या एक बार फिर फेडरल फ्रंट के नए चोले में तीसरे मोर्चे की धमक देश की राजनीति में सुनाई देगी.

फेडरल फ्रंट के मायने नरेंद्र मोदी विरोधी लेकिन गैर कांग्रेसी महागठबंधन है. फेडरल फ्रंट में क्षेत्रीय महाबलियों के साथ यूपीए और एनडीए से छिटके कुछ राजनीतिक दल भी कंधे से कंधा मिलाते नजर आ सकते हैं. कांग्रेस और फेडरल फ्रंट बेशक 2019 के चुनावी रण में अलग अलग उतरें लेकिन उनमें रणनीतिक साझेदारी की गुंजाइश की संभावना जरूर बनी रहेगी. कांग्रेस हो या फेडरल फ्रंट दोनों का पहला मकसद यही होगा कि पहले मोदी को केंद्र से बेदखल करने के बाद सत्ता अपने हाथ में ली जाए. उसके बाद ही सरकार चलाने के लिए कॉमन मिनिमम प्रोग्राम जैसे विषयों पर माथा पच्ची की जाए.

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ये तय है कि तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीडीपी), तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी), बीजू जनता दल (बीजेडी) जैसी पार्टियां चाहती हैं कि फेडरल फ्रंट के तहत जो भी महागठबंधन बनें, उससे कांग्रेस और बीजेपी दोनों को ही दूर रखा जाए. दरअसल, फेडरल फ्रंट की वकालत करने वालों का मानना है कि 2019 आम चुनाव में ऐसा जनादेश आ सकता है जो ना बीजेपी के हक़ में होगा और ना ही कांग्रेस के. ऐसे में सरकार बनाने के लिए फेडरल फ्रंट ही सबसे अच्छी स्थिति में होगा. फेडरल फ्रंट सत्ता के लिए जरूरी बहुमत से दूर रहता है तो कांग्रेस उसे समर्थन देने के लिए खुशी खुशी तैयार रहेगी. क्योंकि ऐसी स्थिति में कांग्रेस का मकसद किसी भी कीमत में मोदी को केंद्र की सत्ता में दोबारा आने से रोकना होगा.

ऐसा नहीं कि देश में पहले कभी गैर कांग्रेसी या गैर बीजेपी सरकारें नहीं बनीं. 1979, 1989, 1990, 1996 में देश ने ऐसी सरकारें देखीं. ये अलग बात है कि ये सरकारें अपने अंतरविरोधों की वजह से कम समय में ही दम तोड़ गईं. इनमें से कोई भी 5 साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी. 1979 में प्रधानमंत्री बने चरण सिंह, 1990 में चंद्रशेखर, 1996 में बनी संयुक्त मोर्चा सरकार को कांग्रेस के समर्थन वापस लेने से सत्ता खोनी पड़ी थी. कुल मिलाकर गैर कांग्रेसी और गैर बीजेपी प्रधानमंत्री जब भी इस देश को मिला, वो सरकार अधिक नहीं चल सकी जिसकी वजह से तीसरा मोर्चा का नाम ही एक तरह से केंद्र में अस्थिरता की पहचान बन गया.

लेकिन इस सच्चाई के बावजूद क्या देश 2019 में फिर किसी गैर कांग्रेसी या गैर बीजेपी प्रधानमंत्री को दिल्ली की सत्ता पर काबिज होते देखना जा रहा है? परिस्थितियां ऐसी ही कुछ बनती नजर आ रही हैं. अगर देश के मौजूदा राजनीतिक समीकरणों पर गौर किया जाए तो 2019 में अनेक क्षेत्रीय दल मिलकर बड़ी ताकत के तौर पर उभर सकते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए कांग्रेस की चुनौती से कहीं ज्यादा मुश्किल साबित हो सकती है इन क्षेत्रीय ताकतों की एकजुटता.

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मोदी के नाम पर बीजेपी 2019 लोकसभा चुनाव में फिर सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर सामने आ सकती है. लेकिन अगर वो अपने बूते बहुमत के आंकड़े से दूर रही तो उसे बाहर से समर्थन हासिल करने के लिए काफी पापड़ बेलने पड़ सकते हैं. दूसरी ओर फेडरल फ्रंट में शामिल पार्टियों अगर मिलकर सीटों के मामले में दूसरे नंबर पर रहती हैं तो उनके पास सरकार बनाने के लिए अच्छा मौका रहेगा क्योंकि कांग्रेस की ओर से उन्हें बाहर से समर्थन देना तय होगा. 

अब यहां ये सवाल उठ सकता है कि बीजेपी या एनडीए के लिए ऐसे कौन से कारण हो सकते हैं जो उसे 2019 में सत्ता वापसी से रोक दें.

पहली बात तो ये हाल फिलहाल में लोकसभा या विधानसभाओं के जितने भी चुनाव हुए हैं, पूर्वोत्तर में त्रिपुरा और हिंदी बेल्ट में हिमाचल प्रदेश को छोड़ दिया जाए तो बीजेपी कहीं भी अपने दम पर बड़ी जीत का मुंह नहीं देख सकी है. मोदी के गृह राज्य गुजरात में ही कांग्रेस और हार्दिक पटेल-जिग्नेश मेवाणी जैसे एकजुट विरोधियों के सामने बीजेपी बड़ी मुश्किल से सत्ता को बचा सकी. 22 साल में ये पहला मौका रहा कि गुजरात विधानसभा में बीजेपी की सीटों का आंकड़ा 100 से नीचे रहा.

2014 में मोदी की लोकप्रियता के तूफान पर बीजेपी ने हिन्दी बेल्ट में जो करिश्मा दिखाया था, क्या वो 2019 में दोहराया जाएगा, या पार्टी के लिए उससे भी बड़ा चमत्कार होगा. बीजेपी के रणनीतिकार बेशक ऐसे दावे करते हों लेकिन जमीनी हकीकत भी क्या इसकी गवाही देती है? सवाल पेचीदा है. पहले ये गौर किया जाए कि बीजेपी के पास लोकसभा में फिलहाल 275 (दो मनोनीत सदस्य और लोकसभा अध्यक्ष को मिलाकर) का जो आंकड़ा है, उसमें हिंदी पट्टी से मिले प्रचंड समर्थन का बहुत बड़ा योगदान रहा.

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आइए हिंदी पट्टी के एक-एक राज्य की स्थिति को देखा जाए. सबसे बड़े सूबे यूपी की ही बात की जाए तो यहां के फिलहाल 79 लोकसभा सांसदों में अकेले बीजेपी के 68 और सहयोगी अपना दल के 2 सांसद हैं. समाजवादी पार्टी के पास लोकसभा में 7 और कांग्रेस के पास 2 सीट (सोनिया-राहुल) हैं. क्या 2019 में यूपी में बीजेपी 2014 के अपने प्रदर्शन को दोहरा पाएगी. ये सवाल इसलिए उठता है कि हाल में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों के उपचुनाव के लिए हाथ मिलाया तो बीजेपी को दोनों जगह मुंह की खानी पड़ी. गोरखपुर तो यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की वजह से बीजेपी का अभेद दुर्ग माना जाता रहा है, फिर भी उपचुनाव में वहां पार्टी पिट गई.

2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी को हिन्दी पट्टी में दिल्ली में 7 में से 7, राजस्थान में 25 में से 23, बिहार में 40 में से 22, हिमाचल प्रदेश में 4 में से 4, उत्तराखंड में 5 में से 5, मध्य प्रदेश में 29 में से 26, छत्तीसगढ़ में 11 में से 10, झारखंड में 14 में से 12, हरियाणा में 11 में से 7 सीट हासिल हुईं. इसके अलावा गुजरात में 26 में से 26, महाराष्ट्र में 46 में से 21, कर्नाटक में 28 में से 17 असम में 14 में 7, जम्मू और कश्मीर में 5 में से 3, गोवा में 2 में से 2 सीटों पर विजय हासिल हुई थी.

अब बड़ा सवाल है कि क्या बीजेपी 2019 लोकसभा चुनाव में भी अपने इस चमत्कारिक प्रदर्शन को दोहराने जा रही है. बीजेपी बेशक दावा करे कि वो 2019 में 2014 से भी ज्यादा सीटें हासिल करेगी लेकिन जमीनी हकीकत और ही कुछ कह रही है. जिस तरह बीजेपी के खिलाफ एकजुट मुकाबले के लिए राज्यों के बड़े क्षेत्रीय दल आपस में हाथ मिला रहे हैं, उसमें बीजेपी के लिए कम से कम हिन्दी पट्टी में 2014 के प्रदर्शन को दोहरा पाना टेढ़ी खीर नजर आता है. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे बीजेपी शासित राज्यों में एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर भी काम करता नजर आए तो कोई बड़ी बात नहीं.

चुनाव, राजनीति, भाजपा, नरेंद्र मोदी    2019 चुनावों को लेकर अमित शाह और प्रधानमंत्री अभी से ही खासे फिक्रमंद हैं

सवाल ये भी है कि 2019 में हिन्दी पट्टी में बीजेपी अगर अपनी जो सीटें खोती हैं, उनकी भरपाई कहां से होगी. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को भी इसका अच्छी तरह अहसास है. तभी वो पश्चिम बंगाल, पूर्वोत्तर के राज्यों, तमिलनाडु आदि पर एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं. तमिलनाडु में फिलहाल एआईडीएमके के पास कुल 39 लोकसभा सीटों में से 37 सीटें हैं. तमिलनाडु के राजनीतिक पटल और दुनिया से जयललिता की विदाई के बाद एआईडीएमके तितर-बितर है.

ऐसे में 2014 के अपने प्रदर्शन को दोहराना उसके लिए आसमान से तारे तोड़ कर लाने से कम नहीं होगा. ऐसे में करुणानिधि-स्टालिन के डीएमके की ओर तमिलनाडु के लोगों का रुझान बढ़ना स्वाभाविक है. तमिलनाडु में बीजेपी की उम्मीद रहेगी कि सुपर स्टार रजनीकांत राजनीति में भी सिल्वर स्क्रीन जैसा चमत्कार दिखाएं. तमिलनाडु में एनडीए से कोई हाथ मिला सकता है तो वो रजनीकांत ही नजर आते हैं. अब ये देखना दिलचस्प होगा कि रजनीकांत चुनाव में उतर कर कितनी सीटों पर कब्जा कर पाते हैं. वैसे तो कमलहासन भी अपनी पार्टी का एलान कर चुके हैं लेकिन उनका स्टैंड बीजेपी के सख्त खिलाफ है.

पश्चिम बंगाल में भी ममता के तेवरों के आगे बीजेपी की कितनी दाल गलेगी, कहना मुश्किल है. असम समेत पूर्वोत्तर के सभी 7 राज्यों की बात की जाए तो वहां 24 की सीटों में से अभी बीजेपी के पास 8 सीटें हैं. पूर्वोत्तर पर बहुत ध्यान देने की वजह से यहां बीजेपी की सीटों का आंकड़ा बढ़ सकता है लेकिन उससे वो नुकसान पूरा नहीं होगा जो पार्टी को हिन्दी पट्टी में होने की संभावना है.

बीजेपी की अपनी सीटों से इतर बात की जाए तो ये पार्टी चाहेगी कि उसके एनडीए में सहयोगी दलों को अधिक से अधिक सीटें मिलें. लेकिन जमीनी हकीकत यहां भी बीजेपी के लिए अधिक सुहावनी नजर नहीं आ रही है. फिलहाल बीजेपी का सबसे बड़ा सहयोगी दल शिवसेना है जिसके पास लोकसभा में 18 सीट हैं. लेकिन शिवसेना जिस तरह रोज बीजेपी को आंखें दिखाती है और इस पार्टी के सांसद संजय राउत खुद ही संसद भवन में 27 मार्च को टीएमसी के कक्ष में ममता बनर्जी से मिलने चले गए वो अपने आप में बीजेपी के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है.

चुनाव, राजनीति, भाजपा, नरेंद्र मोदी    2019 के चुनावों में शिवसेना की भी भूमिका निर्णायक रहेगी

लोकसभा में सीटों के हिसाब से बीजेपी का दूसरा सबसे बड़ा सहयोगी दल लोक जन शक्ति पार्टी है जिसके पास 6 सीटे हैं. इस पार्टी का सारा आधार बिहार में है. साथ ही इस पार्टी के मुखिया राम विलास पासवान का इतिहास रहा है कि ये अपने क्षेत्र में वोटरों की नब्ज भांप कर सियासी पाला बदलने में देर नहीं लगाते. इन्हें अगर लगा कि 2019 लोकसभा चुनाव में बिहार में लालू के राष्ट्रीय जनता दल से हाथ मिलाना ज्यादा फायदे का सौदा रहेगा तो ये एनडीए से पाला छिटक भी सकते हैं.

लोकसभा सीटों के हिसाब से ही बीजेपी का तीसरा सबसे बड़ा सहयोगी दल अकाली दल है जिसके पास फिलहाल 4 सीट हैं. ये पार्टी पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ साथ केजरीवाल की पार्टी से भी पिछड़ कर तीसरे स्थान पर सिमट चुकी है. ऐसे में कहना मुश्किल है कि अकाली दल का 2019 लोकसभा चुनाव में कैसा प्रदर्शन रहेगा. बाकी जितने भी एनडीए में बीजेपी के सहयोगी हैं उनमें उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के पास 3, नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड और अपना दल के पास 2-2 सीटें हैं. बाकी 1-1 सीट वाले भी 6 सहयोगी दल हैं.

बीजेपी की ऐसी स्थिति है तो कांग्रेस के हालात भी कुछ खास नहीं है. ये जरूर है कि कांग्रेस ने 2014 में 44 सीटों का जो अपने चुनावी इतिहास का सबसे खराब प्रदर्शन किया था, उससे वो कहीं बेहतर प्रदर्शन कर सकती है. लेकिन ये प्रदर्शन इतना भी बेहतर नहीं हो सकता कि वो अपने बूते सरकार बनाने की स्थिति में आ सके. जिस तरह ममता के ‘दिल्ली चलो मिशन’ से फेडरल मोर्चे की आहट सुनाई दे रही है, उससे यही लगता है 2019 में सत्ता की कुंजी फेडरल मोर्चे के हाथ में आ सकती है.

ममता की टीएमसी, शरद पवार की एनसीपी, लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल, चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देसम, केसीआर चंद्रशेखर राव की टीआरएस, नवीन पटनायक का बीजू जनता दल, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, मायावती की बहुजन समाज पार्टी, अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, चौटाला का इंडियन नेशनल लोक दल, शरद यादव जैसे नेता आपस में हाथ मिलाते हैं तो एक बड़ी ताकत के तौर उभर सकते हैं. ऐसे में कांग्रेस को बीजेपी को सत्ता में आने से रोकने के लिए फेडरल फ्रंट को बाहर से समर्थन देना मजबूरी होगा.

शरद पवार फिलहाल बीजेपी विरोधी मोर्चा के लिए कांग्रेस को साथ लेकर चलने की बात कर रहे हैं. ममता भी सोनिया गांधी के साथ तो अपने समीकरण अच्छे बताती हैं लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व को लेकर उनकी हिचक साफ नजर आती है. फेडरल फ्रंट की वकालत कर रहे कुछ दलों का मानना है कि कांग्रेस को अगर हाथ मिलाना है तो वो खुद भी फेडरल फ्रंट का एक घटक बने.

फिलहाल जिस तरह की स्थिति है, उसमें देश की राजनीति 1996 के संयुक्त मोर्चा वाले दिनों की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है. ये सारा राजनीतिक गुणा-भाग इस बात पर निर्भर करता है कि अगले एक साल में देश का घटनाक्रम किस तरह से बदलता है. हां, इतना तय है कि आम चुनाव से पहले देश में राजनीतिक दलों का नए सिरे से ध्रुवीकरण देखने को मिलेगा.

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लेखक

खुशदीप सहगल खुशदीप सहगल @khushdeepsehgal

लेखक आजतक में न्यूज़ एडिटर हैं

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