क्यों राहुल गांधी को संघ का निमंत्रण सहर्ष स्वीकार करना चाहिए
संघ जब खुद आगे बढ़कर राहुल गांधी को निमंत्रण देने की बात कह रहा है तो ऐसे में राहुल गांधी को भी इस निमंत्रण को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए और संघ के घर को भीतर तक देख आना चाहिए. उसके बाद ही उनके आरोपों में दम आ पाएगा.
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कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी संघ यानी आरएसएस को लेकर अकसर ही हमलावर रहते हैं. हाल ही में जर्मनी और लंदन में जिस तरह से उन्होंने संघ की तुलना अरब देशों में सक्रिय आतंकवादी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड से की है उसने भारतीय राजनीति में ठीक-ठाक हलचल मचा दी है. राहुल गांधी के बयान पर आरएसएस के प्रवक्ता अरुण कुमार ने कहा कि जो भारत को नहीं समझ सका, वो संघ को क्या समझेगा? खबर आ रही है कि संघ अब राहुल गांधी को अगले माह दिल्ली में होने वाले अपने कार्यक्रम 'फ्यूचर ऑफ इंडिया' के लिए निमंत्रण भेजने वाला है. यदि राहुल को यह न्यौता भेजा जाता है, तो उन्हें हर कीमत पर उसे मंजूर करना चाहिए.
राहुल गांधी ने आरएसएस की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड से की थी.
प्रणव दा और अपने दादा को क्यों भूल गए राहुल गांधी
इसी साल जून में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम में शामिल हुए देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से राहुल गांधी को पूछना चाहिए कि आखिर आतंकवादी संगठन के कार्यक्रम में जाने के पीछे उनका क्या तर्क रहा होगा. तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद प्रणव मुखर्जी संघ के मंच पर गए. संघ की दिनरात आलोचना करने वाले पंडित नेहरू 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय संघ के स्वयंसेवकों की राष्ट्रभक्ति देखकर हैरान रह गए थे और संघ के कार्यकर्ताओं को रिपब्लिक डे परेड के लिए आमंत्रित किया था. पंडित नेहरू और प्रणव मुखर्जी से ज्यादा वैचारिक और बौद्धिक नेता कांग्रेस में शायद ही कोई रहा हो. भारत में वैचारिक मतभेदों का पुराना इतिहास रहा है लेकिन अपने विरोधियों को अपनी बात कहने का मौका देना भी हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है.
राहुल गांधी को बयान देने से पहले संघ की विचारधारा और भारतीय जीवन दर्शन के प्रति उसकी सोच को ठीक से समझ लेना चाहिए. राहुल गांधी देश के करोड़ों लोगों की तरह महात्मा गांधी से बहुत प्रभावित दिखते हैं. जिस दौर में देश में अस्पृश्यता और छुआछूत अपने चरम पर थी उस दौर में संघ के स्वयंसेवक एक साथ बैठकर खाना खाते थे. स्वयंसेवकों के इस अनुशासन के कायल राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी थे. भीमराव आंबेडकर से लेकर पंडित नेहरू तक कांग्रेस के बड़े नेता संघ से किसी न किसी रूप में प्रभावित हुए. जरूरी नहीं है कि राहुल गांधी भी प्रभावित हों लेकिन भारत की परंपरा और संस्कृति का सम्मान रखने के लिए एक बार तो संघ प्रमुख से मिल ही सकते हैं और भारतीय जीवन- दर्शन पर विस्तृत चर्चा कर ही सकते हैं.
समकालीन भारत में राजनीतिक बदलाव के पीछे हिन्दुत्व की विचारधारा और उसके वाहक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की निर्विवादित रूप से केन्द्रीय भूमिका रही है. यह बदलाव असाधारण है. इसने न सिर्फ स्थापित राजनीति को निष्प्रभावी किया बल्कि वैकल्पिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक दृष्टिकोणों को बढ़ती हुई स्वीकृति के साथ स्थापित करने का काम किया. जिन्हें यह परिवर्तन अचानक और अप्रत्याशित लगता है वे सम्भवतः देश के भीतर दशकों से हो रहे ज़मीनी स्तर के बदलाव को न समझ पाए हैं और न ही आज भी समझने की कोशिश कर रहे हैं.
संघ के लिए क्या है हिंदुत्व की परिभाषा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत के अनुसार हिन्दुत्व की विचारधारा किसी के विरोध में नहीं है. किसी का द्वेष और विरोध हिन्दुत्व नहीं है, बल्कि सबके प्रति प्रेम, सबके प्रति विश्वास और आत्मीयता यही हिन्दुत्व है. हम देश के लिए काम करते हैं. हिन्दुत्व कोई कर्मकांड भी नहीं है. यह अध्यात्म व सत्य पर आधारित दर्शन है. हिन्दू राष्ट्र से संघ का आशय भारत की भौगोलिक पहचान से है. हिमालय और सिंधु नदी की पौराणिक पहचान ही भारत की असली पहचान है ऐसा संघ का मानना है.
संघ का मानना है कि भारत को हमेशा यूरोप के ही चश्मे से देखा जाता रहा है. इसी को बदलने के लिए डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने सन 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी. भारतीय राष्ट्रवाद यूरोप के राष्ट्रवाद की तरह उग्र न होकर भारतीय जीवन दर्शन और मूल्यों का समायोजन है. जिसका मूल उद्देश्य भारत को उसकी अपनी सभ्यता के परिप्रेक्ष्य में पहचान प्रदान करना था और इसको अंजाम देने के लिए उन्होंने जिस तरीके को स्थापित किया वह राजनीतिक न होकर सामाजिक और सांस्कृतिक था. इसलिए संघ का देश की राजनीति में कितना ही प्रभाव क्यों न हो, उसका मूल चरित्र सामाजिक और सांस्कृतिक बना रहा है.
प्रियंका गांधी अपने पिता के हत्यारे से मिलती हैं, राहुल गांधी को प्रभाकरन के मरने पर दुःख होता है इसका सीधा मतलब है कि गांधी परिवार विशाल ह्रदय वाला राजनैतिक परिवार है, जिसकी दो संतानें अपने पिता के हत्यारों के प्रति भी कोमल भावनाएं रखती हैं. ऐसे में जब संघ ने खुद आगे बढ़कर उन्हें निमंत्रण देने की बात कही है, तो राहुल गांधी को किसी राजनीतिक मजबूरी की परवाह किए बिना संघ के घर में हो आना चाहिए. यदि उनकी नजर में संघ का मूल्यांकन वोटों की राजनीति के कारण नहीं हैं, तो संघ के घर से वे कुछ नया अनुभव लेकर लौटेंगे. शायद उसके बाद वे देश को ज्यादा ईमानदारी से बता पाएं कि संघ एक राष्ट्रवादी संगठन है या फांसीवादी/आतंकी संगठन.
कंटेंट - विकास कुमार (इंटर्न- आईचौक)
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