आख़िर संघ क्यों नहीं चाहता है 'कांग्रेस मुक्त भारत'
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत का हनीमून पीरियड अब ख़त्म हो चुका है और अब दोनों में दूरियां देखी जा रही हैं. ऐसे में ये कहना गलत नहीं है कि भविष्य में इन दूरियों के परिणाम दोनों ही के हित में घातक होंगे.
-
Total Shares
हाल ही में पुणे के एक निजी कार्यक्रम में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने एक बयान दिया और पूरे देश के राजनीतिक पंडितों के बीच चर्चा का बाज़ार अचानक से गर्म हो गया. संघ प्रमुख ने अपने सबसे चहेते स्वयंसेवक 'नरेंद्र मोदी' के उस राजनीतिक ज़ुमले को ही ख़ारिज कर दिया जिसके सहारे उन्होंने देश की सबसे पुरानी पार्टी के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया. जिस जुमले को कांग्रेस के ही कुछ नेता अपनी दबी जुबान में हकीक़त मानने लगे थे उसको संघ के मुखिया ने ही राजनीतिक बताकर किनारा कर लिया. तो अचानक ऐसा क्या हुआ कि आरएसएस को देश की राजनीति में कांग्रेस पार्टी एक बार फिर से प्रासंगिक लगने लगी है. क्या नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत का हनीमून पीरियड अब ख़त्म हो चुका है?
मौजूदा वक़्त में कई ऐसे मौके निकल कर आए हैं जिनमें संघ और मोदी एकदूसरे से दूरी बनाते नजर आ रहे हैं
ऐसा कहना ज़ल्दबाज़ी होगी कि संघ को अब मोदी की कार्यशैली पर शंका होने लगी है. पिछले 4 वर्षों में संघ ने मोदी सरकार को हर स्तर पर ऑक्सीजन देने का काम किया है. प्रवीण तोगड़िया से लेकर गोविंदाचार्य तक को चुप भी कराया और सरकार की नीतियों की खुलकर तारीफ भी की. दरअसल समय-समय पर देश की राजनीति में कुछ लोग ये सवाल अक्सर उठाते रहते हैं कि संघ का भारतीय जनता पार्टी की नीतियों में एक बड़े स्तर पर हस्तक्षेप होता है. आरएसएस के लोगों ने इसे हमेशा ही नकारा है और खुद को एक राष्ट्रवादी संगठन के रूप में ही बोलना और सुनना पसंद किया है. हो सकता है कि ऐसा बोलकर संघ प्रमुख अपने उसी दावे को मज़बूत करने का काम कर रहे हों. लेकिन मौजूदा वक़्त में इस बयान के मायने के लिए हमें थोड़ा संघ के इतिहास को टटोलना होगा.
आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उर्फ़ 'गुरु जी' ने राजनीति को हमेशा दोयम दर्ज़े का ही कर्म समझा और उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत रूप से इसमें रूचि नहीं ली. जनसंघ की स्थापना के समय संघ से राजनीति में जाने वाले स्वयंसेवकों से उन्होंने कहा था - आप चाहे राजनीति में जितना ऊपर चले जाएं, अंततः आपको लौटना धरती पर ही होगा. तो क्या आज के राजनीतिक परिदृश्य में ये बात नरेंद्र मोदी पर फिट बैठती है. तो क्या संघ प्रमुख विश्व नेता का तमगा पाने वाले अपने स्वयंसेवक को इशारों में यही समझाने की कोशिश कर रहे हैं. आप संगठन से हैं, संगठन आप से नहीं है. आखिर संघ को ये जताने की जरुरत क्यों पड़ी?
आज मोदी सरकार को सत्ता में आये लगभग 4 साल पूरे होने वाले हैं. जिन वादों और दावों के साथ ये सरकार आयी थी उसमे ये कहीं न कहीं फेल होती हुई दिख रही है. रोज़गार पैदा करने में सरकार असफल रही, किसानो की हताशा बढ़ रही है और एक के बाद एक बैंक घोटालों ने मोदी सरकार की नीतियों पर गहरा प्रश्न चिन्ह लगाया है.
माना जा सकता है कि मोदी और भागवत की इस तल्खी के परिणाम भाजपा और संघ दोनों के लिए घातक होंगे
सरकार के प्रति बढ़ते असंतोष ने संघ की चिंता को बढ़ाने का काम किया है. हो सकता है ये बयान उसी खीझ में दिया गया हो. आख़िर संघ के कार्यकर्ताओं को भी तो लोगों को जवाब देना पड़ता होगा. आज नरेंद्र मोदी भले ही लोकप्रियता के शिखर पर सवार हों पर भविष्य में भी ये बदस्तूर जारी रहे ,ऐसा कहना ज़ल्दबाज़ी होगा. अगले चुनाव में हार का जोखिम संघ कभी नहीं लेना चाहेगा, क्योंकि उसे मालूम है कि अगर इस बार चूके तो फिर उसके सपनो का भारत सपना ही रह जायेगा. ऐसा इसलिए क्योंकि जनता बार-बार बड़े परिवर्तनों के लिए तैयार नहीं होती है.
संघ किसी भी नेता को उसी समय तक स्वीकार करेगा जब तक वो लोकप्रियता के शिखर पर सवार हो और संघ के एजेंडे को आगे बढ़ाने का काम करता रहेगा. अब ये चिंता भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी को करनी होगी की वो जनता के बीच में कैसे अपनी विश्वसनीयता को बरक़रार रख पाते हैं और उसे ये समझाने में सफल हो पाते हैं कि 'कांग्रेस मुक्त भारत' ही भारत के विकास का एक मात्र ज़रिया है , जैसा की उन्होंने 2014 में किया था . वरना वक़्त बदलता है और सत्ता भी बदलती है. प्रायः ऐसा ही होता आया है.
कंटेंट- विकास कुमार (इंटर्न, इंडिया टुडे)
ये भी पढ़ें -
क्या मोहन भागवत, नरेंद्र मोदी और RSS को नयी दिशा और दशा दे रहे हैं?
उसूलन तो अब RSS और भागवत के आलोचकों को उनसे माफ़ी मांगनी चाहिए
मोहन भागवत ने तो जातिवाद से लड़ाई में हथियार ही डाल दिये
आपकी राय